सुसाइड शहर बनता कोटा, आखिर क्यों नही रुक रहे कोटा में सुसाइड केस…

सुसाइड शहर बनता कोटा, आखिर क्यों नही रुक रहे कोटा में सुसाइड केस…

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आखिर क्या है कोटा की कहानी-

कोरोना महामारी जब चरम पर थी तब देश में नेशनल एजुकेशन पॉलिसी आयी… इस पॉलिसी में कोचिंग कल्चर की आलोचना की गई थी. कोचिंग संस्थानों में सबसे आगे माने जाने वाले शहर राजस्थान के कोटा में कोचिंग कल्चर,,  स्टूडेंट्स की जान ले रहा है. अकेले कोटा में इस साल अगस्त तक 23 बच्चों ने खुद को मौत के हवाले कर दिया. ये छात्र वहां रहकर कोचिंग संस्थानों में विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे। आखिर वहां छात्रों द्वारा आत्महत्या का दौर खत्म क्यों नहीं हो रहा है?  क्या कारण है कि सुनहरे भविष्य की राह पर चलने वाले छात्र अपना जीवन खत्म करने को मजबूर हो रहे हैं? छात्रों में ऐसा नकारात्मक दृष्टिकोण क्यों आ रहा है? अब सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर क्यों बच्चे ऐसा कदम उठा रहे हैं. इसके पीछे आखिर क्या कारण है.

 

क्यों बच्चों पर बढ़ रहा है बोझ-

ये एक तरह की ज़िम्मेदारी बच्चों के कंधों पर तब डाल दी जाती है, जब उनका कंधा पहले से ही 10 किलो के स्कूली बैग से झुका होता है। ऐसे बच्चे कुछ और बनने का सपना नहीं देख पाते, उनकी आंख खुलने से पहले ही उन्हें एक सपना दिखा दिया जाता है IIT या NEET क्वालीफाई करके देश के किसी बड़े मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने का, बिना ये जाने कि उनमें वो सपना हासिल करने की क्षमता है भी या नहीं।  इन छोटे-छोटे रंगीन गुब्बारों में इतनी ज्यादा आईआईटी और नीट के सपने की हवा भर दी जाती है कि वो आसमान में उड़ने की बजाय कोटा में पहुंच कर फट जाते हैं. बीते दिनों तीन छात्रों के साथ भी ऐसा ही हुआ। प्रणव , उज्ज्वल , और अंकुश  ये 17 -18 साल के तीन  छात्र उस उम्र में दुनिया को अलविदा कर के चले गए. अब तक के जांच में जो बात सामने निकल कर आई है वो ये है कि ये तीनों छात्र पढ़ाई के दबाव की वजह से डिप्रेस थे और कई दिनों से अपनी कोचिंग और क्लासेज भी मिस कर रहे थे।

आज व्यक्ति का मूल्यांकन उसके मूल्यों और सही आचरण से नहीं होता, बल्कि उसके द्वारा कमाए धन से माना जाता है। दूसरा कारण माता-पिता की महत्वाकांक्षा है। आज हर माता-पिता अपने बच्चों को डॉक्टर और इंजीनियर के अतिरिक्त और कुछ नहीं बनाना चाहता। आईआईटी और एम्स से नीचे किसी इंस्टीट्यूट में वे अपने बच्चों का एडमिशन नहीं करवाना चाहते। अभिभावकों के जीवन में बच्चों की रुचियों, उनकी महत्वाकांक्षाओं का कोई महत्व नहीं होता। माता-पिता अपने दृष्टिकोण के अनुसार उनके लिए दिशा निर्धारित करते हैं। उन्हें क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, इसका निर्धारण माता-पिता बच्चों पर न छोड़कर स्वयं करते हैं।

 

आखिर बच्चे क्यों उठा रहे हैं ये कदम?

कोचिंग संस्थानों की इस मानसिकता से कहीं न कहीं वह छात्र भी प्रभावित होता है, जो इनसे जुड़ा है। कोचिंग संस्थान जितने बच्चों का दाखिला करते हैं, उन पर उन्हें बराबर ध्यान देना चाहिए और उनकी क्षमतानुसार उन्हें शिक्षा देने के साथ उनकी प्रतिभा का विकास करना चाहिए, पर वे सभी को एक डंडे से हांकते हैं। पाठ्यक्रम पूरा करने की होड़ में कोचिंग इंस्टीट्यूट यह भूल जाते हैं कि कुछ बच्चे सबके साथ दौड़ नहीं सकते। ऐसे ही छात्रों के मन में हीनता बोध का जन्म होता है, जो उन पर इस कदर हावी हो जाता कि उन्हें लगने लगता है कि वे अब कुछ नहीं कर सकते। उन्हें ग्लानि होती है कि उन्होंने अपने माता-पिता का पैसा बर्बाद कर दिया। जब ये ग्लानि अपने चरम पर पहुंच जाती है तो वे आत्महत्या की ओर कदम बढ़ा लेते हैं,

कोटा में अब तक इतने छात्रों ने किया सुसाइड-

कोटा में इस वर्ष अब तक 23 छात्रों की मौत सुसाइड करने से हुई है. यह घटना सिर्फ इस बार की नहीं है. पिछले साल भी कोटा में 17 छात्रों की मौत आत्महत्या करने से हुई थी. 2022 के पहले भी यह होता रहा रहा है.. 27 अगस्त को टेस्ट में कम नंबर आने पर नीट की तैयारी कर रहे दो छात्रों ने आत्महत्या कर ली… आखिरी कैसे और कब कोटा में रुकेगा छात्रों की आत्महत्या का सिलसिला…  आपको इसके बारे में आगे बताये पहले एक नजर कोटा शहर में हुई उन छात्रों की मौत के आंकड़ों पर डालते हैं जो आपको सोचने को मजबूर कर देंगे,, कोटा में साल 2015 में  17 छात्रों की  मौतें  जबकि  2016 में  16 छात्रों की मौतें..  2017 में  7 छात्रों की मौतें , 2018 में  8 छात्रों की मौतें,  2020 में  4 की मौतें वहीं 2022 में  15 और इस साल यानी 2023 में अब तक 23 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं,,


क्या कहते हैं NCRB के आंकड़े-

NCRB के आंकड़ों पर नज़र डालें तो हर साल देश में हजारों छात्र आत्महत्या करते हैं.. पिछले पांच साल के आंकड़ों पर नज़र डालें तो 2017 में जहां कुल 9 हजार 905 छात्रों ने आत्महत्या की थी, वहीं साल 2018 में 10 हजार 159 छात्रों ने आत्महत्या की थी… 2019 में ये आंकड़ा 10 हजार 335 था और 2020 में ये 12 हजार 526 तक पहुंच गया..  जबकि, 2021 में देश में कुल 13 हजार 89 छात्रों ने आत्महत्या की… आपको बता दें 2020 से 2021, जब सबसे ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की उस वक्त कोरोना काल चल रहा था और ज्यादातर छात्र अपने घरों से पढ़ाई कर रहे थे.. ये सोचने वाली बात है कि हॉस्टल में रहने की बजाय जब छात्रों को घर पर रह कर पढ़ाई करनी पड़ी तो उनमें आत्महत्या की दर ज्यादा थी। NCRB के आंकड़े में एक और बात सामने आई की आत्महत्या करने वाले छात्रों में लड़कों की संख्या लड़कियों की अपेक्षा ज्यादा थी।

ये राज्य आत्महत्या के मामले में सबसे ऊपर-

छात्रों के आत्महत्या के मामले में देश के जो पांच राज्य सबसे ऊपर हैं, उनमें महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और ओडिशा हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, साल 2021 में महाराष्ट्र के 1 हजार 834 छात्रों ने आत्महत्या की , वहीं मध्य प्रदेश के 1 हजार 308 छात्रों ने आत्महत्या की। जबकि, तमिलनाडु के 1 हजार 246 छात्रों ने आत्महत्या को चुना। वहीं कर्नाटक के 855 और ओडिशा के 834 छात्रों ने आत्महत्या कर ली… हालांकि, एनसीआरबी की रिपोर्ट में इस बात का जिक्र नहीं है कि छात्रों के आत्महत्या के पीछे की वजह क्या है, लेकिन ये जरूर बताया गया है कि साल 2021 में जिन 13 हजार 89 छात्रों ने आत्महत्या की थी, उनमें 10 हजार 732 की उम्र 18 साल से कम थी।

साल 2020 के मिड में आई नेशनल एजुकेशन पॉलिसी में कहा गया था कि कोचिंग कल्चर पर लगाम लगाने के लिए करिकुलम और एग्जाम सिस्टम में व्यापक सुधार किए जाएंगे, लेकिन कोटा के हाल से साफ है कि इस ओर कोई खास कदम नहीं उठाए गए. आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं. अगर इंजीनियरिंग और मेडिकल के करिकुलम और एक्जाम सिस्टम में बदलाव होते तो उसका असर कोटा की कोचिंग फैक्ट्रीज पर देखने को मिलता, लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहते हैं.

इस साल सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले-

एक रिपोर्ट के मुताबिक कोटा में 4 हजार होस्टल्स और 40 हजार पेइंग गेस्ट हैं. इन ठिकानों में देशभर से आए 2 लाख से ज़्यादा बच्चे रहते हैं. ये बच्चे जॉइंट एंट्रेंस एग्जाम यानी JEE और NEET की रेस का हिस्सा होते हैं. पढ़ाई की रेस में लगे युवा उम्मीदवारों में से 23 ने इस साल अगस्त तक जान दे दी. छात्रों की आत्महत्या के मामले में ये पिछले 8 सालों का सबसे बड़ा आंकड़ा है. किसी कदम का कैसा असर होता है उसको समझने का सबसे लेटेस्ट एग्जांपल है CUET  यानी कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट… मामला डीयू जैसी यूनिवर्सिटी का है. डीयू में पहले मेरिट बेसिस पर एडमिशन मिलता था. ऐसे एडमिशन के मामले में CBSE  बोर्ड वाले आगे निकल जाते थे और स्टेट बोर्ड वाले मार खा जाता थे. माना यही जाता है कि CBSE की तुलना में स्टेट बोर्ड काफी कम नंबर देते हैं.

 

एग्जाम पर दो महीने की पाबंदी-

एक बच्चे का आधे से ज्यादा समय केवल स्कूल में निकल जाता है. इसके बाद वह ट्यूशन या कोचिंग में पिसता है. फिर स्कूल और ट्यूशन में मिली एक्टिवीटीज में लग जाता है. ऐसे में अगर कोई सी भी चीज थोड़ी भी इधर-उधर हो जाए तो न जाने उसके मेंटल हेल्थ पर क्या असर पड़ता होगा…  वो भी उस दौर में जब अचीवमेंट्स को सोशल मीडिया पर सेलिब्रेट किया जाता है… लाइक्स और कमेंट्स वाले सेलिब्रेशन का भी बच्चों के दिमाग पर जो असर पड़ता है, शायद ही उसकी कोई मैपिंग हुई हो. हालांकि एक बात तय है कि मौजूदा कोचिंग सिस्टम का स्टूडेंट्स के दिमाग पर तगड़ा असर है. शायद इसी वजह से 23 बच्चों की मौतों की वजह से कोटा के कोचिंग सेंटर में होने वाले टेस्ट और एग्जाम पर दो महीने के लिए पाबंदी लगा दी गई है. ये पाबंदी DISTRICT ADMINISTRATION ने लगाई है… इस तरह का बैन जरूरी भी है. बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर बनाने के प्रेशर में घर वाले 13 से 14 साल की उम्र में ही अपने से दूर करके कोटा की कोचिंग फैक्ट्री में मजदूरी करने भेज देते हैं,..  जबकि जेईई-नीट की परीक्षाएं 12वीं के बाद होती हैं,,, लेकिन स्कूलिंग छुड़वाकर, अटेंडेंस के मामले में तिकड़म लगाकर बच्चों को कोटा फैक्ट्री का मजदूर बना दिया जाता है. छोटी उम्र में परिवार से दूर एक नीरस से शहर में ये बच्चे जब कोचिंग सेंटर्स में एडमिशन लेते हैं तब इन्हें कंपार्टमेंट लाइज कर दिया जाता है.

2021 में 13 हजार से अधिक की मृत्यु आत्महत्या से-

कुछ हफ्ते पहले, राजस्थान के ‘कोचिंग हब’ कोटा में एक अनोखा ‘आत्महत्या-विरोधी’ उपाय लागू किया गया था. इस उपाय के तहत पंखे में स्प्रिंग लगाने की बात की गयी. ऐसे में अगर कोई छात्र लटककर आत्महत्या करने की कोशिश करता है, तो स्प्रिंग फैलेगा और छात्र की मौत नहीं होगी. कोचिंग हब ‘कोटा’ की स्थिति वास्तव में बेहद गंभीर है… लेकिन छात्रों में बड़े पैमाने पर हो रही आत्महत्या की घटना केवल कोटा तक ही सीमित नहीं है. NEET परीक्षा विवाद को लेकर तमिलनाडु में कम से कम 16 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी… कोलकाता के जादव पुर विश्वविद्यालय में, इसी महीने अगस्त की शुरुआत में कथित तौर पर रैगिंग और यौन उत्पीड़न के बाद एक 17 वर्षीय किशोर ने आत्महत्या कर ली. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2021 की रिपोर्ट के अनुसार 2021 में करीब 13 हजार से अधिक छात्रों की मृत्यु आत्महत्या करने से हुई थी.

युवा भारतीयों को परेशान करने वाले सभी मुद्दों के बीच, केवल आत्महत्या पर बात करना कोई समाधान नहीं है. इससे संबंधित अन्य कई कारक है जिन पर बात होनी चाहिए. कोटा माता-पिता के सपनों की फैक्ट्री के रूप में जाना जाता है. यहां मेडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स भारी संख्या में कोचिंग करने आते हैं. उन स्टूडेंट्स पर अपने और माता-पिता के सपनों को पूरा करने की पूरी जिम्मेदारी होती है. इस दौरान छात्र अपनी इच्छाओं और क्षमता की परवाह किए बगैर अपना लक्ष्य पूरा करने की पूरी कोशिश करते हैं. और जब नतीजा सामने नहीं आता, तो वो आत्महत्या करना ही उचित समझते हैं…

किसी भी फैक्टर पर ध्यान नहीं दिया जाता-

यह सच है कि नेशनल सोसाइटी ऑफ प्रोफेशनल सर्वेयर्स (NSPS) के साथ-साथ अन्य रिपोर्ट्स में भी आत्महत्या के तरीकों तक पहुंच को कम करने की सिफारिश की गई है. लेकिन मूल कारणों पर बात किए बिना, आत्महत्या के तरीकों पर बात करना न केवल असंवेदनशील है, बल्कि अपने उद्देश्य में नाकाम होना भी है. दरअसल मेंटल हेल्थ को आजकल बायो साइको सोशल लेंस से देखा जा रहा है. जहां आत्महत्या की प्रवृत्ति बायोलॉजिकल, साइकोलॉजिकल और सोशल फैक्टर से प्रभावित होती है. लेकिन जब हम इन मामलों का आकलन करते हैं, तो बस बायोलॉजिकल और साइकोलॉजिकल फैक्टर पर ही ध्यान दिया जाता है. सोशल फैक्टर पर बात तक नहीं होती है. कई संस्थानों के मामले में तो इन दोनों फैक्टर पर भी ध्यान नहीं दिया जाता,,,यह सोचना गलत है कि विद्यार्थियों पर केवल सफल होने का दबाव होता है.


कई कारणों की वजह से होती है ये दिक्कतें- 

आत्महत्या की प्रवृत्ति अक्सर कई कारणों की वजह से यानी मल्टी फैक्टोरियल होती है. कोचिंग संस्थानों में छात्र कभी अपना तो कभी अपने परिवार का सपना पूरा करने आते हैं. जब वो अपने परिवार से दूर नए-नए बाहर आते हैं तो बहुत कुछ ऐसा होता है, जिसके बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा होता. पारिवारिक समस्या, बेरोजगारी, मानसिक बीमारियों से लेकर भेदभाव और दुर्व्यवहार तक. ये कई कारक होते हैं, जो मिलकर आत्महत्या की प्रवृत्ति में योगदान करते हैं.यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी स्टूडेंट्स सामाजिक और आर्थिक रूप से समान नहीं होते हैं.

वित्तीय रूप से कमजोर वर्ग से आने वाले छात्रों पर जल्दी से कुछ बनकर, अपने परिवार का भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी अधिक होती है. नौकरी न मिलने, प्लेसमेंट न होने की संभावना हर संस्थान में ज्यादा होती है. लेकिन कोई भी संस्थान इस पर बात करना जरूरी नहीं समझता… न्यूमेरिकल questionऔर हाई स्कोरिंग इक्वेशन के शॉर्टकट याद करते-करते स्टूडेंट्स का मेंटल हेल्थ बुरी तरह से खत्म हो जाता है.. आंकड़ों की बात करें, तो NCRB डेटा केवल उन्हीं नंबरों की गिनती करता है, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु होती है. जो आत्महत्या करने में सफल हो गए होते हैं.. लेकिन उनका क्या, जो इस परिस्थिति से गुजरे तो सही लेकिन आत्महत्या करने में सफल नहीं हो पाएं…

 

कोई भी व्यक्ति इसका शिकार हो सकता है-


आत्महत्याओं के प्रति दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है,,,एक ऐसा देश जहां एंग्जायटी जैसे मेंटल कंडीशन तक पर बात नहीं होती. इसे एक टैबू की तरह लिया जाता है और इससे पीड़ित लोगों को जज किया जाता है. वहां आत्महत्या के मुद्दे पर चर्चा करना बेहद मुश्किल है. ऐसा नहीं है कि जो लोग मानसिक तौर पर कमजोर होते हैं, केवल वो ही आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं. कभी-कभी हमारे ईर्द-गिर्द की परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि मजबूत से मजबूत हृदय वाला व्यक्ति भी इसका शिकार हो जाता है. व्यक्ति के चारों ओर ऐसी तनावपूर्ण स्थितियां होती हैं जो उसे इस ओर ले जाती हैं. उदाहरण के लिए जब एक छात्र किसी तरह के बदमाशी, यौन या शारीरिक शोषण, पढ़ाई में खराब प्रदर्शन से लेकर लिंग, धर्म या जाति के आधार पर शोषित होता है, तो वह ऐसा कर बैठता है.

अगर हम में से कोई भी एक बार इस परिस्थिति का डटकर सामना करने की कोशिश करें, तो शायद हम खुद को बचा सकें. केवल हमें एक बार साहस करके अपनी बात रखने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए संस्थान के दृष्टिकोण में भी बदलाव की आवश्यकता है. स्कूल-कॉलेज, कोचिंग संस्थानों में आत्महत्या से संबंधित हिंसा को रोकने पर बात होनी चाहिए. हर शिक्षा संस्थान में भेदभाव पर चर्चा करनी चाहिए. टीचर्स व प्रोफेसर स्टूडेंट्स के आवश्यकता के अनुसार उनकी मदद करें ये सुनिश्चित करना चाहिए… इसके अलावा, सभी छात्रों के लिए संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य सहायता सहित स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए. फिलहाल फोकस सिर्फ आत्महत्या से होने वाली मौतों को कम करने पर है….

छात्रों के जीवन पर विचार करने की है आवश्यकता-
अब ये भी सवाल उठता है कि संस्थाएं आत्महत्याओं को कैसे रोक सकती हैं ? इसके लिए हमें प्राथमिक स्तर पर इस स्थिति को रोकने के तरीकों पर विचार करने की जरूरत है. अगर हम स्टूडेंट्स के पर्सनल लेवल पर जाकर बात करें, तो सबसे पहले हमें उन्हें उस जगह से निकालना चाहिए,, जहां वो किसी कारण से परेशानी का सामना कर रहे हैं. या फिर किसी तरह की हिंसा का शिकार हो रहे हैं. न कि उनके कमरे से पंखा निकाल लेना चाहिए कि वो सुसाइड न करे. हमें यह सोचना चाहिए कि उक्त छात्र अपना जीवन समाप्त करने का प्रयास क्यों कर रहा है ? निश्चित तौर पर, सभी कारण टालने योग्य तो नहीं ही होंगे. यहां तक कि परिवारों को भी छात्रों के जीवन में उनकी भूमिका पर विचार करने की जरूरत है. सब लोग डॉक्टर और इंजीनियर बन जाएं, ये जरूरी नहीं. कई लोग तो ऐसी डिग्री लेने के बाद अपना रास्ता बदल देते हैं.

 

आत्महत्या की रोकथाम जरूरी-

क्या एक युवा किशोर से ये उम्मीद करना कि वो उस कंपटीशन में भाग ले और टॉप करे. वो भी ऐसे में  जो उसने कभी खुद के लिए चुना ही नहीं. क्या ये उचित है? भारत में युवाओं की आबादी बहुत अधिक है और 15 से 29 वर्ष आयु वर्ग में मृत्यु का प्रमुख कारण आत्महत्या है. इनको रोकने के लिए कई प्रयास जरूरी हैं, जैसे मानसिक स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच में सुधार और  इसमें गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना, स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों को संबोधित करना, इसमें नौकरी के अवसर प्रदान करना, वित्तीय सहायता, भेदभाव और हिंसा को रोकना व इन विषयों पर चर्चा करना और सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देना शामिल है…आत्महत्या की रोकथाम के बारे में जागरूकता बढ़ाना और  इसमें लोगों को आत्महत्या के खतरनाक कारकों और सहायता कैसे प्राप्त करें इसके बारे में शिक्षित करना,आत्महत्या जैसी मानसिकता से जूझ रहे लोगों की मदद करना, इसमें भावनात्मक सहायता, व्यावहारिक मदद और संसाधनों के लिए तंत्र बनाना शामिल है…साथ ही सबसे महत्वपूर्ण सभी शैक्षणिक संस्थानों को आत्महत्या से निपटने के लिए अपने तंत्र पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.

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