इस कारण आ रही केदारघाटी में आपदाएं, विशेषज्ञों की सलाह दरकिनार…
केदारनाथ के गौरीकुंड में हुए हादसे ने एक बार फिर कई सवालों को जन्म दे दिया है,केदारघाटी में जिस तरह लगातार गतिविधियां बढ़ रही है वो कहीं न कहीं इस पूरी घाटी के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर रही हैं,वैज्ञानिकों और वाडिया संस्थान के शोध बताते हैं कि पूरी केदारघाटी एक सेंसटिव जॉन में बसी है, यहां अत्यधिक मानवीय गतिविधियां इस पूरी घाटी के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर रही हैं ?
मैं केदारनाथ बोल रहा हूं… आज से 10 साल पहले मेरे आंगन में एक आपदा आई थी. जिसका जिम्मेदार भी मुझे ही ठहराया गया था. लेकिन ये मेरी मर्जी नहीं थी. मुझे तो एकांत चाहिए. सालों से मेरे दिल पर पत्थर तोड़े जा रहे हैं. मेरा घर हिमालय है. जिसे इंसान अपने फायदे के लिए लगातार तोड़ रहा है. मैं चुप हूं. कुछ कर नहीं पा रहा हूं, लेकिन मेरे घर को तोड़कर इसे कमाई का जरिया बनाने वाले इन इंसानों को जरा भी आभास नहीं है कि ऐसा करना न सिर्फ मेरे लिए बल्कि मेरे अंदर रह रहे लाखों लोगों के लिए विनाशकारी हो सकता है. गौरीकुंड में मंदाकिनी नदी किनारे मलबे के बीच बिखरी पड़ी 10 से अधिक कंड़ियां भूस्खलन हादसे की विभीषिका को बयां कर रही हैं। कमाई का साधन तो रह गया लेकिन कमाने वाले मजदूर लापता है, जिनकी खोज की जा रही है। दो वक्त की रोटी के लिए ये लोग 16 किमी पैदल मार्ग पर कंडी के सहारे यात्री को पीठ पर लादकर केदारनाथ पहुंचाते थे।गौरीकुंड में हुए इस भूस्खलन से तीन लोगों की मौत हो गई है, जबकि 17 लोग लापता हैं। केदारघाटी के गौरीकुंड में हुए इस हादसे ने दस साल पहले वर्ष 2013 में आई केदारनाथ आपदा की यादों को ताजा कर दिया है। जबकि बीते चार दशक में ऊखीमठ ब्लॉक क्षेत्र में यह तीसरी बड़ी आपदा है। इसके बाद भी आज तक केदारघाटी से लेकर केदारनाथ पैदल मार्ग पर सुरक्षा के नाम पर ठोस इंतजाम तो दूर, कार्ययोजना तक नहीं बन पाई है।सरकार सिर्फ केदारनाथ में पुनर्निर्माण कार्यों तक ही सिमटी रही। वर्ष 1976 से रुद्रप्रयाग व केदारघाटी के गांव प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेलते आ रहे हैं। यहां आज भी कई गांव मौत के मुहाने पर खड़े हैं। बीते चार दशक में यहां 14 प्राकृतिक आपदाएं आ चुकी हैं जिसमें से 16-17 जून 2013 की केदारनाथ की आपदा सबसे विकराल रही।
2013 की आपदा ने केदारघाटी से लेकर केदारनाथ का भूगोल बदल दिया था। गौरीकुंड से रुद्रप्रयाग के बीच मुनकटिया, रामपुर, खाट, सेमी, भैंसारी, रामपुर, बांसवाड़ा, विजयनगर कई क्षेत्र हादसों का सबब बने हुए हैं लेकिन सरकारें, प्राकृतिक आपदा कम हो इसके प्रयास कम करने की योजना बनाने के बजाय केदारनाथ पुनर्निर्माण में ही घिरकर रह गई। केदारनाथ पैदल मार्ग पर यहां न तो भूस्खलन जोन का ट्रीटमेंट हो पाया न ही पैदल रास्ते का विकल्प ढूंढा गया। जबकि रुद्रप्रयाग जिला भूकंप व अन्य प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से पांचवें जोन में है। इस पूरी घाटी में आयी अब तक की इन आपदाओं के आंकड़े देखें तो साफ़ हो जायेगा कि सरकारों का रुख इस घाटी के प्रति क्या रहा है,,,इस घाटी में 1976 भूस्खलन से ऊपरी क्षेत्रों में मंदाकिनी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया था ।1979 में क्यूंजा गाड़ में बाढ़ से कोंथा, चंद्रनगर और अजयपुर क्षेत्र में भारी तबाही से 29 लोग काल के गाल में समा गए थे ।1986 जखोली तहसील के सिरवाड़ी में भूस्खलन हुआ जिसमें 32 लोगों की जान गयी थी, 1998 भूस्खलन से भेंटी और पौंडार गांव ध्वस्त हो गया था । साथ ही 34 गांवों में इससे नुकसान पहुंचा जबकि 103 लोगों की मौत हुई थी ।
2001 से 2013 तक आई आपदा की घटनाएं-
2001 ऊखीमठ के फाटा में बादल फटा जिसमें 28 की मौत हुई थी,जबकि 2002 बड़ासू और रैल गांव में भूस्खलन,,,2003 स्वारीग्वांस मेंं भूस्खलन,,,2004 घंघासू बांगर में भूस्खलन,,,2005 बादल फटने से विजयनगर में तबाही से चार की मौत,,2006 डांडाखाल क्षेत्र में बादल फटने की घटना, 2008 चौमासी-चिलौंड गांव में भूस्खलन से एक युवक की मौत और कई मवेशी मलबे मेंं दबे थे,इतना ही नहीं 2009 गौरीकुंड घोड़ा पड़ाव मेंं भूस्खलन से दो श्रमिक की मौत ,,,2010 में भी रुद्रप्रयाग जनपद में कई स्थानों पर बादल फटे, 2012 ऊखीमठ के कई गांवों में बादल फटने से 64 लोग मरे थे ।जबकि 2013 केदारनाथ आपदा में हजारों मौतों से पूरी केदारघाटी प्रभावित हुई थी,और अब 2023 में गौरीकुंड में भूस्खलन 19 लोग लापता होने की घटना,,, ये सब वो घटनाएं हैं जिनमें कई लोगों ने अपनी जान गवाई पर आज तक हमारी किसी भी सरकार ने इस घाटी को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बनाई,,,
रुद्रप्रयाग जिले को देश में भूस्खलन से सबसे अधिक खतरा-
2013 में केदारनाथ में हुए भूस्खलन और बाढ़ में 4500 लोग मौत के आगोश में सो गए थे और कई स्थानों का नामो-निशान मिट गया।ये सिर्फ सरकारी आंकड़े हैं जबकि कहा जाता है कि मरने वालों की संख्या इससे भी कहीं अधिक है , बीते दिन गौरीकुंड भूस्खलन हादसे ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो के राष्ट्रीय सुदूर संवेदी केंद्र (एनआरएससी) की उस भूस्खलन मानचित्र रिपोर्ट पर मुहर लगाई है। उपग्रह से लिए गए चित्रों के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट बताती है कि रुद्रप्रयाग जिले को देश में भूस्खलन से सबसे अधिक खतरा है। भूस्खलन जोखिम के मामले में देश के 10 सबसे अधिक संवेदनशील जिलों में टिहरी दूसरे स्थान पर है।पर्वतीय जनमानस के लिए चिंताजनक बात यह है कि सर्वाधिक भूस्खलन प्रभावित 147 जिलों में उत्तराखंड के सभी 13 जिले शामिल हैं। इनमें चमोली जिला भूस्खलन जोखिम के मामले में देश में उन्नीसवें स्थान पर है। चमोली जिले का जोशीमठ शहर भूस्खलन के खतरे की चपेट में पहले से है।
क्या कहते हैं पर्यावरण विशेषज्ञ-
पर्यावरण विशेषज्ञों और जानकारों का मानना है कि 2013 की वो आपदा सरकार के लिए एक सबक थी। लेकिन जिस तरह पहाड़ों में जरूरत से ज्यादा निर्माण, बहुत अधिक संख्या में पर्यटकों की आवाजाही भी आपदा के कारण हैं। खनन, पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले पदार्थों की अधिकता से पारिस्थितिकी तंत्र को अधिक नुकसान हुआ है। जो अभी वर्तमान स्थिति का प्रमुख कारण है।केदारनाथ में उमड़ती भीड़,यहां मार्गों में होते निर्माण को कंट्रोल न करना भी इस घाटी पर अधिक दबाव बना रहे हैं,जिससे वहां का क्लाइमेट भी तेजी से बदल रहा है,इससे ग्लेशियरों पर भी प्रभाव पड़ रहा है जिससे वो तेजी से पिघल रहे हैं,अत्यधिक मानव गतिविधियां भी यहां कई परिवर्तन ला रहा है,घाटी में हेली सेवाओं का अत्यधिक आवाज से भी यहां काफी प्रभाव पद रहा है,कई जंलि पशु पक्षी इस कारण यहां से विलुप्त हो रहे हैं ,जो यहां हो रहे बदलावों का एक बड़ा प्रमाण हैं,,
भूविज्ञानी एवं पर्यावरणविद् एसपी सती ने कहा कि चार धाम जाने के लिए सड़कें चौड़ी कर दी गई हैं। वहां हजारों गाड़ियां पहुंच रही हैं, जिससे हालात बिगड़ रहे हैं। गाड़ियां खड़ी करने के लिए पार्किंग तक नहीं हैं। इस वजह से सड़कों पर जाम लगा रहता है। इसके अलावा पहाड़ों पर वीकेंड टूरिज्म को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे हिमालय की इकोलॉजी को नुकसान पहुंच रहा है। दूसरा इसके बदले स्थानीय लोगों को कोई फायदा भी नहीं मिल रहा। कुछ गिने-चुने लोगों की लॉबी न केवल कमाई कर रही है, बल्कि, जब पर्यटकों की संख्या सीमित करने की बात होती है तो प्रशासन पर दबाव बनाकर इसका विरोध करती है।
वैज्ञानिकों ने पहले भी दी थी चेतावनी- कई पहाड़ी क्षेत्रों में भू-धंसाव, दरारें आना, पहाड़ों का कटाव, नदियों में बढ़ता अवैध खनन, चमोली में हाइड्रो पावर प्लांट के नाम पर ऋषिगंगा में 2016 में आई बाढ़ हो या जोशीमठ में एनटीपीसी के द्वारा बनाई जा रही टनल ही क्यों न हो ? उच्च हिमालयी क्षेत्र में सीधे 12 महीने आवागमन संभव नहीं है. वैज्ञानिकों ने इस बारे में 2013 में आई आपदा से पहले ही चेतावनी दे दी थी, लेकिन सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया था,,विशेषज्ञ कहते हैं, ‘सरकार के पास सड़कें बनाने के लिए तो बजट है, लेकिन कटाव के कारण पहाड़ पर बनी ढलान को स्थिर करने के लिए कोई बजट नहीं है. यही कारण है कि ऐसी सड़कों पर साल भर भूस्खलन होता रहता है.’कुछ वैज्ञानिकों ने चार धाम मार्ग पर एक सर्वे किया था. जिसमें पाया गया कि इन हाईवे पर कई नए भूस्खलन क्षेत्र बने थे और कई आगे भी बन सकते हैं. रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई लेकिन सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. केदारनाथ के इलाक़े में दशकों से शोध कार्य कर रहे ‘वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन जीयोलॉजी’ ने दिसंबर 2013 में, इस आपदा पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. क्योंकि संस्थान के पास पिछले कई सालों से जुटाए गए विभिन्न वैज्ञानिक आंकड़े मौजूद थे तो इस रिपोर्ट में आपदा की वजहों की वैज्ञानिक पड़ताल भी थी. साथ ही कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए गए थे. उनके अनुसार केदारनाथ चौराबाड़ी ग्लेशियर द्वारा बनाए गए ढीले और छिछले मलबे से बने मैदान में बसा है,बाढ़ के जरिए पहुंचे ग्लेसियो—फ्ल्यूवियल मलबे को छेड़ा नहीं जाना चाहिए. इस इलाके में ना ही इतनी जगह है और ना ही ऐसी कोई तकनीक है जिससे कि इतने अधिक मलबे को यहां से कहीं हटाया जा सके और निस्तारित किया जा सके. इसलिए, निकट भविष्य में इसे छेड़ने की कोई भी कोशिश नहीं की जानी चाहिए।
क्या कहते हैं वैज्ञानिक डॉ डोभाल-
वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल बताते हैं, कि “हमने अपनी रिपोर्ट में हिमालयन जियोलॉजी के अनुसार कई सुझाव दिए थे, जिन्हें ध्यान में रखना बेहद महत्वपूर्ण था.”डॉ. डोभाल आगे कहते हैं, “इसमें कोई शक नहीं है कि एनआईएम की टीम ने इतनी ऊंचाई पर बड़ी बहादुरी से काम किया है. लेकिन जो काम हुआ है उसमें दूरदर्शिता और प्लानिंग की कमी है. जिस तरह से कंक्रीट और अन्य भारी निर्माण सामग्री का इस्तेमाल, निर्माण कार्य में किया गया है वह ग्लेशियर के मलबे से बने इस भू-भाग में इस्तेमाल नहीं की जानी चाहिए थी.”हिमालय के ऊंचाई वाले जिस भूगोल में केदारनाथ का मंदिर बना हुआ है, भूगर्भवेत्ताओं और ग्लेशियरों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के लिए यह ग्लेशियर के मलबे का अस्थिर ढेर है जहां किसी भी किस्म के भारी निर्माण कार्य को वे अवैज्ञानिक मानते हैं।
कई जियोलॉजिस्ट की भी है यही राय-
हिमालयी ग्लेशियर्स पर लम्बे समय से काम कर रहे ‘फिजिकल रिसर्च लैब, अहमदाबाद’ से जुड़े वरिष्ठ जियोलॉजिस्ट डॉ. नवीन जुयाल की भी यही राय है. वे कहते हैं, “केदारनाथ में आई बाढ़ अपने साथ इतना मलबा लाई थी कि उसने इस कस्बे को कई फीट तक ढक दिया. इस मलबे को स्थिर होने तक यहां कोई भी निर्माण करना विज्ञान संगत बात नहीं थी. अब जब वहां नई इमारतें बनाई जा रही हैं तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इन इमारतों की नींव को उस नए मलबे की गहराई से भी बहुत नीचे तक डालना होगा. डॉ. जुयाल उच्च हिमालयी इलाकों में वैज्ञानिक ढंग से निर्माण कार्यों के बारे में बताते हुए आगे कहते हैं, “इस ऊंचाई वाले भू-भाग में, ग्लेशियर के मलबे के ऊपर भारी इमारतें नहीं बनाई जा सकती. अगर आप इतनी ऊंचाई पर बसे पारंपरिक समाजों के स्थापत्य को देखेंगे तो हमेशा नज़र आएगा कि लकड़ी आदि, हल्की निर्माण सामग्री का इस्तेमाल किया जाता रहा है.”डॉ. जुयाल आगे कहते हैं, ”केदारनाथ में जब प्रकृति ने हमें तमाचा मारते हुए संभलने का एक मौक़ा दिया था तो हमें अपने स्थानीय पारंपरिक ज्ञान से सबक लेना चाहिए था. लकड़ी और पत्थरों की ढालूदार छतों वाली हल्की इमारतें वहां बनाई जानी चाहिए थी. लेकिन शायद हम ये मौका चूक गए हैं।”
कई एजेंसियों ने किया था पुन: निर्माण कार्य करने से मना-
केदारनाथ कस्बे की दाहिनी ओर की पहाड़ी पर कुछ ऊंचाई पर बने भैरव मंदिर से पूरा केदारनाथ कस्बा दिखाई देता है. आपदा के निशान चारों ओर पसरे हुए हैं. आपदा के बाद फिर से, सुनहरी ढालदार छत और करीने से तराशे गए पत्थरों से बना केदारनाथ मंदिर, कंक्रीट से बनी घिचपिच, तंग, बहुमंजिला इमारतों से घिर गया है. पुनर्निमाण के नाम पर सौंदर्य को एकदम नज़रअंदाज कर सीमेंट और कंक्रीट की सपाट छतों वाली बहुमंजिला इमारतें बना दी गई हैं जो कि इस उच्च हिमालय के भूगोल से एकदम साम्य बनाती नहीं दिखती.एनआईएम बुनियादी तौर पर निर्माण कार्यों से जुड़ी एजेंसी नहीं है. लेकिन 2013 की आपदा के बाद, निर्माण के क्षेत्र में कोई विशेषज्ञता या अनुभव नहीं होने के बावजूद केदारनाथ कस्बे में पुनर्निर्माण का कार्य उसे इसलिए सौंप दिया गया, क्योंकि वह पर्वतारोहण में महारत रखती थी. आपदा ने इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में जिस तरह के हालात पैदा कर दिए थे ऐसे में निर्माण कार्य में दक्षता रखने वाली सभी एजेंसियों ने तत्काल निर्माण कार्य करने से मना कर दिया था।
पीएम मोदी ने अपने संबोधन में कही थी ये बातें-
विशेषज्ञ समितियों की सलाह को नज़रअंदाज कर प्रधानमंत्री मोदी ने केदारनाथ के अपने संबोधन में अगले साल 10 लाख लोगों के केदारनाथ मंदिर में आने का दावा किया है. लेकिन साथ ही उन्होंने विरोधाभासी बयान देते हुए, वहां होने वाले निर्माण कार्यों के दौरान पर्यावरण का ध्यान रखे जाने की भी बात कही है. उन्होंने कहा, ”जब यहां इतना सारा पैसा लगेगा, इतना सारा इंफ्रास्ट्रक्चर बनेगा तो उसमें पर्यावरण के सारे नियमों का ख्याल रखा जाएगा. यहां की रुचि, प्रकृति, प्रवृति के अनुसार ही इसका पुनर्निर्माण किया जाएगा. उसमें आधुनिकता होगी मगर उसकी आत्मा वही होगी जो सदियों से केदारनाथ की धरती ने अपने भीतर संजोए रखी है.” यह समझ से परे है कि कैसे 10 लाख लोगों को इतने संवेदनशील भौगोलिक इलाके में ले जाकर पर्यावरण का ख़याल रखा जा सकता है. केदारनाथ में अब तक हुए नए निर्माण कार्य में पर्यावरण और भूगर्भशास्त्र की विशेषज्ञ एजेंसियों के सुझावों को पूरी तरह अनदेखा किया गया है. जो कुछ अब तक हुआ है उसका परिणाम, फिर से वही अनियोजित और अदूरदर्शी तरीके से कंक्रीट की इमारतों की घिचपिच है. एक विशेषज्ञ के तौर पर पर्यावरणीय और भूगर्भीय चिंताओं के अलावा डॉ. नवीन जुयाल हिमालय के शीर्ष पर बसे कैलाश पर्वत का उदाहरण देते हुए चिंता ज़ाहिर करते हैं, ”चीन जैसे देश ने भी, जहां एक नास्तिक और तानाशाह सरकार है, जिसने सांस्कृतिक क्रांति के दौरान धर्मों से जुड़े कई प्रतीकों को तोड़ा, ऐसी सरकार ने भी कैलाश पर्वत की चढ़ाई करने पर इस कारण प्रतिबंध लगाया हुआ है क्योंकि वह हिमालय के आस-पास जन्मे सारे ही धर्मों के लिए पवित्र पर्वत है. लेकिन हम अपने संवेदनशील पवित्र स्थानों को लेकर कितने लापरवाह हैं।
न विशेषज्ञों और न ही वैज्ञानिकों की राय पर ध्यान दे रही सरकार-
ये वो तमाम कारण और शोध से निकले निष्कर्ष है, जिसको लेकर सरकार को भी आगाह किया गया था लेकिन लगता है केदारघाटी की चिंता न केंद्र सरकार को है और न राज्य सरकार को,, बस सरकार केदार घाटी को एक पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित करने में जुटी है और सिर्फ और सिर्फ राजस्व बटोरना ही सरकार का मकसद रह गया है, यही कारण है कि इतनी संवेदनशील घाटी होने के बावजूद सरकार तमाम विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की राय पर ध्यान ही नहीं दे रही,और इसका नतीजा आज सबके सामने हैं,,चाहे वो 2013 की आपदा हो या कल का गौरीकुंड हादसा।