Category Archive : राजनीति

हाई कोर्ट के निर्देश पर कार्बेट में पेड़ कटान व अवैध निर्माण मामले में सीबीआई ने शुरू की जांच

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सीबीआई ने जिम कार्बेट नेशनल पार्क के पाखरो रेंज में टाइगर सफारी के नाम पर हुए अवैध निर्माण तथा छह हजार पेड़ काटने के मामले की जांच शुरू कर दी है। राज्य सतर्कता निदेशक वी मुर्गेशन के मुताबिक, राज्य सतर्कता ने कार्बेट मामले से संबंधित सभी दस्तावेज सीबीआई को सौंप दिए हैं।नैनीताल हाईकोर्ट के निर्देश पर सीबीआइ कार्बेट पार्क मामले की जांच सीबीआई कर रही है। इस मामले में सबसे पहले पाखरो सफारी मामले से जुड़े तीन सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ) और एक मौजूदा पीसीसीएफ समेत रेंज में काम करने वाले करीब एक दर्जन वन अधिकारियों, कर्मचारियों व ठेकेदारों से सीबीआई पूछताछ करेगी।

 

जांच का प्रमुख केंद्र होंगे तत्कालीन वन मंत्री हरक सिंह रावत

सीबीआई की जांच का मुख्य केंद्र बिंदु तत्कालीन वन मंत्री हरक सिंह रावत होंगे। विजिलेंस और अन्य जांचों से पता चला है कि हरक सिंह के दबाव में कार्बेट टाइगर सफारी में वित्तीय और अन्य स्वीकृतियां लिए बिना ही काम शुरू कर दिया गया था।

बता दें है कि 21 अगस्त को मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विपिन सांघी व न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ में देहरादून के अनु पंत की जनहित याचिका पर सुनवाई हुई थी। इसमें कहा गया था कि  बिना अनुमति के निर्माण कार्य किए गए। छह जनवरी, 2023 को हाई कोर्ट ने मुख्य सचिव से पेड़ों के कटान के प्रकरण पर जांच रिपोर्ट कोर्ट में पेश करने और यह बताने को कहा था कि किन लोगों की लापरवाही और संलिप्तता से यह अवैध कार्य हुए।

अमेठी के संजय गांधी अस्पताल पर ताला, इलाज के दौरान हुई थी महिला की मौत…

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सवाल ये की आखिर बीजेपी पर ये आरोप क्यों लग रहे हैं ?
बीजेपी क्यों पहले से अस्पताल बंद करवाना चाहती थी ?
क्यों कांग्रेस ने इसे बदले की राजनीति का करार दिया ?
क्या ये बदले की राजनीति है ?

अमेठी से बीजेपी ने सिर्फ राहुल गांधी को ही नहीं हटाया बल्कि वहां से  पूरे गांधी परिवार का नामो निशान मिटाने में लगी है.. इसलिए लंबे समय से बीजेपी की नजर संजय गांधी अस्पताल पर थी. अस्पताल को ताला लगाने की हर संभव कोशिश हो रही थी और फिर आखिरकार बीजेपी ने वो मौका ढूंढ ही लिया और बेहद जल्दबाजी दिखाते हुए संजय गांधी अस्पताल का लाइसेंस निरस्त कर दिया. यहां तक की उसकी ओपीडी और सारी सेवाएं बंद कर दी. इस मामले ने पूरे राज्य की राजनीति का पारा गरमा दिया. कांग्रेस पहले से ही इसे बदले की राजनीति बता रही है।उसका कहना है कि अस्पताल इसलिए बंद किया गया क्योंकि ये उस ट्रस्ट द्वारा संचालित है जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं. कांग्रेस ने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अस्पताल का ताला खुलवाने की मांग की है.इस बीच वरुण गांधी ने भी अस्पताल बंद करने पर आपत्ति जताई। 

 

 

सीएम योगी को लिखा पत्र-

 

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने सीएम योगी आदित्यनाथ को इसके लिए एक पत्र भी लिखा है. इसमें उन्होंने संजय गांधी अस्पताल का लाइसेंस रद्द किए जाने के आदेश को वापस लेने की अपील की है. उन्होंने कहा है कि अस्पताल का रजिस्ट्रेशन रद्द करना उचित नहीं है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने पत्र में आगे कहा है कि संजय गांधी अस्पताल में लाखों लोगों का इलाज़ होता है. अस्पताल कम पैसे पर बड़ी स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराता है. ये अस्पताल अमेठी क्षेत्र के स्वास्थ्य सेवाओं की लाइफ लाइन है. ऐसे में उन्हें विश्वास है कि सीएम के निर्देशों से अमेठी की जनता व संजय गांधी अस्पताल के साथ अन्याय नहीं होगा.

 

क्यों लगाया गया अस्पताल पर ताला ?

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक 14 सितंबर की सुबह पेट दर्द की शिकायत के बाद एक 22 साल की महिला को संजय गांधी अस्पताल में भर्ती कराया गया था. लेकिन, पित्ताशय की सर्जरी से पहले उसकी हालत खराब होने पर उसे लखनऊ के एक निजी अस्पताल में रेफर कर दिया गया. जहां 16 सितंबर को महिला की मौत हो गई. महिला के परिवार ने आरोप लगाया कि संजय गांधी अस्पताल में एनेस्थीसिया के ओवरडोज के कारण महिला की मौत हुई. इसे लेकर 17 सितंबर को एक FIR दर्ज की गई. पुलिस ने महिला की मौत पर अस्पताल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सहित चार कर्मचारियों के खिलाफ इलाज के दौरान लापरवाही से मौत होने का मामला दर्ज किया. जैसे ही ये खबर आयी ताक में बैठी बीजेपी सरकार तुरंत एक्शन में आ गयी.. मामले का संज्ञान उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक ने लिया और तत्काल जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ अंशुमान सिंह को निर्देशित करते हुए कार्रवाई करने को कहा, इधर सीएमओ ने तीन सदस्यीय जांच कमेटी का गठन किया जांच कमेटी ने अस्पताल पहुंचकर हर पहलू की जांच कर अपनी रिपोर्ट सीएमओ को भेज दी, जिसके बाद संजय गांधी अस्पताल को कारण बताओ नोटिस देते हुए स्पष्टीकरण देने के लिए 3 महीने का समय दिया गया. 

 

 

आखिर बीजेपी को इतनी जल्दी क्यों ?

लेकिन 24 घंटे के अंदर ही संजय गांधी अस्पताल का लाइसेंस निरस्त करते हुए उसकी ओपीडी और सारी सेवाएं बंद कर दी गयी.. अब यहां पर सवाल उठता है की जब 3 महीने का समय स्पष्टीकरण के लिए दिया गया था तो इस पर ताला लगाने की इतनी जल्दी क्या थी.. बीजेपी ने क्यों 24 घंटे के अंदर ही सारी सेवाएं बंद कर दी.. क्या इस पर गौर करने वाली बात नहीं है ? इतनी जल्दी एक्शन लेने से सरकार की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे है.  क्या सरकार को आम जनता की कोई चिंता नहीं है ? 

 

 

400 कर्मचारियों पर संकट-

उधर, अमेठी के मुंशीगंज में स्थित संजय गांधी अस्पताल का लाइसेंस निलंबित करने के बाद अस्पताल के 400 से अधिक कर्मचारियों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है. बुधवार (20 सितंबर) को अस्पताल में तैनात कर्मचारियों ने अस्पताल परिसर में प्रदर्शन करने के बाद डीएम को ज्ञापन सौंपा. उन्होंने अस्पताल के लाइसेंस को बहाल करने की मांग की. कर्मचारियों का कहना था कि अगर अस्पताल बंद हो गया तो उनके सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा.

 

 

कांग्रेस ने कहा सब कुछ स्मृति ईरानी के इशारे पर हुआ-

आपको बता दें इस मामले ने इसलिए भी इतना तूल पकड़ा है क्योंकि ये दो राष्ट्रीय पार्टियों बीजेपी और कांग्रेस के बीच का विवाद है, दरअसल ये अस्पताल संजय गांधी ट्रस्ट की तरफ से संचालित किया जाता  है. इस ट्रस्ट की अध्यक्ष सोनिया गांधी हाँ, और ट्रस्ट के सदस्य प्रियंका गांधी और राहुल गांधी है, यही नहीं अमेठी और रायबरेली कांग्रेस का गढ़ मन जाता है, जिसकी एक वजह ये अस्पताल भी है, ये अस्पताल 1986 से अपनी सेवाएं दे रहा है, अमेठी जिले का 350 बेड का ये एकलौता अस्पताल है, जहाँ पर लड़भाग 400 कर्मचारी काम करते है , यहाँ पर ANM, और GNM के कोर्स भी संचालित है जिसमे 1200 छात्र छात्राएं ट्रेनिंग ले रहे हैं ,

 

अब ऐसे में बीजेपी सरकार की इस कारवाही को लेकर कुछ राजनीति के जानकार ये दवा कर रहे हैं की अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस और गांधी परिवार की इतनी पूछ है, जिस से बीजेपी इतनी परेशान है, और कांग्रेस का नामो निशान मिटाना चाहती है. वही कांग्रेस ने इस पर खुलकर बोला  है की ये बदले की राजनीति है, कांग्रेस जिला अध्यक्ष और कांग्रेस के पूर्व एमएलसी दीपक सिंह के नेतृत्व में कांग्रेसियों ने भी विरोध प्रदर्शन किया. विरोध प्रदर्शन को लेकर कांग्रेस के पूर्व एमएलसी दीपक सिंह ने कहा कि अस्पताल को बंद करना बिल्कुल ठीक नहीं है. अगर कोई संस्थागत व्यक्ति हो और वह संविधान की शपथ ले तो उसे संविधान के दायरे में रहकर काम करना चाहिए. दीपक सिंह ने सांसद स्मृति ईरानी पर निशाना साधने के साथ स्वास्थ्य मंत्री बृजेश पाठक पर भी निशाना साधा. उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति कई बार विधायक रहा हो, कानून मंत्री रहा हो, उसे तो अमेठी की सांसद स्मृति ईरानी के इशारे पर ये काम नहीं करना चाहिए.

एक साल पूरा ,न्याय अधूरा ! महिला आरक्षण बिल मुबारक हो…

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क्या बिल के बाद सुधरेगी महिलाओं की स्थिति-

 

चुनावी साल में तीन दशकों से लंबित महिला आरक्षण बिल को  मोदी कैबिनेट  ने मंजूरी दे दी, विपक्ष ने भी इस बिल के समर्थन में है. तो अब क्या ये माना जाय कि इस बिल के आने मात्र से  महिलाओं की स्तिथि में सुधार हो जायेगा, महिलाओ की कितनी स्थिति कितनी सुधरती है ये तो आने वाला वक्त बताएगा। बहरहाल  कई सवाल है, जिनका जवाब मिलना अभी बाकी है.

 

महिला आरक्षण से पहले सबसे ज्यादा जरूरी है उनकी सुरक्षा। प्रधानमंत्री मोदी हमेशा ही महिलाओं की बात हर मंच से करते दिखाई देते हैं,बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ का नारा भी प्रधानमंत्री मोदी ने ही दिया है. लेकिन उन्ही के एक  राज्य जहां की महिलाओं ने उनको वोट के रूप में दिल खोलकर आशीर्वाद दिया हो उस राज्य में  एक बहादुर  बेटी की हत्या कर दी जाती है.

आखिर कब मिलेगा न्याय-

वो लड़की जो अपने दम  पर कुछ काम करके अपने परिवार का सहारा बनना चाहती थी और उस बेटी की बेबस मां न्याय के लिए कोर्ट से लेकर सड़क तक दर-दर भटक कर एड़ियां रगड़ रही हो. एक साल से उस मां के आंसू रुक नहीं रहे हो  और मोदी जी के धाकड़ मुख्यमंत्री उनको न्याय नहीं दिला पा रहे हों.  तो महिला सुरक्षा की बात करना बेमानी प्रतीत होता है,, एक साल से बुजुर्ग माता पिता न्याय के लिए हर दरवाजे और चौखट को खटका रहे हैं लेकिन सरकार उस बदनसीब बेटी के नाम पर एक जगह का नामकरण करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है.

एक साल बाद भी इंसाफ नहीं-

उत्तराखंड के बहुचर्चित अंकिता भंडारी हत्याकांड को  एक साल पूरा हो गया है। इस मर्डर केस की गूंज पूरे उत्तराखंड में सुनाई दी थी। 19 साल की अंकिता के साथ युवकों की हैवानियत की कहानी ने लोगों को हिलाकर रख दिया था। अंकिता एक रिजॉर्ट मे रिसेप्शनिस्ट थी। उसकी हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई थी, क्योंकि उस पर रिजॉट में आने वाले VIP गेस्ट को स्पेशल सर्विस देने का दबाव बनाया गया था.. जिसे उसने मना कर दिया,,ये रिजॉर्ट भी बीजेपी नेता के बेटे का था और अपराधी भी खुद बीजेपी नेता का बेटा,,,,केस में भाजपा नेता विनोद आर्य के बेटे पुलकित आर्य पर रेप और हत्या के आरोप लगे, जिसमें सौरभ भास्कर और अंकित गुप्ता ने उसकी मदद की।पुलिस ने आरोपियों को दबोच कर सख्ती से पूछताछ की तो उन्होंने गुनाह कबूल लिया था।

आखिर इतनी देरी क्यों-

सवाल ये खड़ा होता है कि जब अपराधी अपना गुनाह कबूल कर चुके हैं, जांच टीम  दावा कर रही थी  कि टीम के पास पुरे सबूत मौजूद हैं,तो फिर अंकिता को एक साल बाद भी न्याय क्यों नहीं मिल पाया,न्याय मिलने में इतनी देरी क्यों ? अंकिता के माता -पिता ये दावा करते हैं कि स्थानीय विधायक ने रातो रात रिजॉर्ट पर बुलडोजर चला कर सबूत नष्ट किये लेकिन आज भी धाकड़ मुख़्यमंत्री ने अपनी विधायक से इसको लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं मांगा,ऐसे में ये भी संशय पैदा होता है कि क्या बीजेपी नेता का बेटा होने की वजह से अंकिता को न्याय मिलने में देरी हो रही है,,पूरा प्रदेश उस VIP का नाम जानना चाहती है जिसको स्पेशल सर्विस के नाम पर अंकिता पर दबाव बनाया जा रहा था,आखिर क्यों सरकार उस VIP का नाम सार्वजनिक नहीं करना चाह रही.

कई बयानों में खुलासा फिर भी न्याय नहीं-

हत्या से पहले अंकिता पर जो बीती उसका खुलासा गवाहों के बयान में हुआ है। एक  रिपोर्ट के मुताबिक अंकिता भंडारी का लगातार सेक्सुअल हरासमेंट हो रहा था। इतना ही नहीं हत्या से पहले उसके साथ रेप भी हुआ। गवाहों के बयान के मुताबिक पुलकित आर्य की बर्थडे पार्टी के दिन अंकिता को कोल्ड ड्रिंक में शराब मिलाकर पिलाई गई। जब वो बेहोश हो गई तो उसके साथ दुष्कर्म किया गया। सौरभ भास्कर इस करतूत में शामिल था। 108 नंबर कमरे में अंकिता के साथ दुष्कर्म हुआ था, पुलकित ने भी उसके साथ गलत हरकते की। ये लोग उसका यौन शोषण कर रहे थे, बाद में उसे वीआईपी को सौंपने की भी प्लानिंग कर रहे थे।

क्या ये है सरकार का न्याय-

अब जब हत्याकांड को एक साल हो गया है तो मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अंकिता भंडारी के नाम पर डोभ श्रीकोट स्थित राजकीय नर्सिंग कॉलेज का नाम रखने की घोषणा कर दी, लेकिन आरोपियों को अभी तक सजा नहीं हुई।

 

अभी कुछ दिन पहले ही उत्तराखंड में एक सूचना सामने आयी है कि किस तरह बीजेपी की डबल इंजन की सरकार में 2021 से 2023 तक 38 सौ  से अधिक महिलाएं गायब हो गयी है, क्या इस तरह  मोदी सरकार के धाकड़ मुख़्यमंत्री बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा सफल बनाएंगे,ऐसे हालातों को देख तो लगता है कि जब बेटी बचेगी ही नहीं तो पढ़ने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.

पूरे प्रदेश में आक्रोश- 

अंकिता भंडारी हत्याकांड से पुरे प्रदेश के लोगों में रोष व्याप्त है,पहाड़ की इस बेटी से यहां के सभी लोगों की भावनाएं जुड़ी हुई हैं,लोगों का गुस्सा सड़कों पर भी फूटता दिखाई देता है, लोग सरकार की मंशा पर ही सवाल उठा रहे हैं, विपक्ष भी लगातार इस मुद्दे पर सरकार को घेरता आ रहा है,लेकिन भाजपा उन पर राजनीति करने का आरोप जरूर लगाती है.

2024 में भाजपा के लिए बड़ी दिक्कत-

लेकिन ये तय है कि जितनी देर अंकिता को न्याय मिलने में हो रही है,उससे सरकार की छवि को धीरे धीरे नुकसान हो रहा है,क्योकि जब हत्याकांड सामने आया था तब भी किसी भाजपा नेता ने इस पर खुल कर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जिससे जनता में पहले ही एक मेसेज जा चुका है,,,अभी भी अंकिता को न्याय न मिलना 2024 में भाजपा के सामने एक बड़ा मुद्दा बनकर उठेगा,,,जो कम से कम भाजपा के सबसे मजबूत गढ़ माने जाने वाली पौड़ी लोकसभा सीट पर बड़ा असर डालेगा,क्योकि अंकिता इसी सीट से आती है,जहां के लोग इस घटना से आज भी बेहद आक्रोशित हैं.

क्या है महिला आरक्षण बिल ? जाने पूरी जानकारी इस खबर में… 

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केंद्र सरकार की ओर से  नए संसद भवन में पहला विधेयक महिला आरक्षण बिल पेश कर दिया गया है. संसद के निचले सदन में कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने महिलाओं को लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण दिलाने वाला ये बिल पेश किया. सरकार का दावा है कि विधेयक पर चर्चा के बाद कल ही इसे पारित भी करा लिया जाएगा.

अब सवाल ये उठता है कि अगर सरकार की योजना के मुताबिक ये बिल कल लोकसभा से पारित हो जाता है तो क्‍या 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में 181 संसदीय क्षेत्र महिला प्रत्याशियों के लिए आरक्षित कर दिए जाएंगे?

विधेयक में आखिर क्या प्रस्ताव है ?

महिला आरक्षण विधेयक में संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव रखा गया था. बिल में प्रस्ताव रखा गया था कि हर लोकसभा चुनाव के बाद आरक्षित सीटों को रोटेट किया जाना चाहिए. आरक्षित सीटें राज्य या केंद्र शासित प्रदेशों के अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में रोटेशन के जरिये आवंटित की जा सकती हैं. बता दें कि मौजूदा समय में पंचायतों और नगरपालिकाओं में 15 लाख से ज्यादा चुनी हुई महिला प्रतिनिधि हैं, जो 40 फीसदी के आसपास होता है. वहीं, लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं की उपस्थिति काफी कम है.

महिलाओं की शक्ति,, समझ और नेतृत्व जिसे दशकों तक भारतीय राजनीति में जगह नहीं मिली, उसको पूजन योग्य बताते हुए सरकार ने ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ का प्रस्ताव लोकसभा में पेश किया है.लेकिन क़ानून बनाने और नारी शक्ति के वंदन के अमल में सरकार का ही नहीं राजनीतिक पार्टियों का इम्तिहान होगा. काम के अन्य क्षेत्रों की ही तरह, राजनीति भी पुरुष प्रधान रही है. आरक्षण के जरिए महिलाओं के राजनीति में आने को समर्थन देने से राजनेता बार-बार पीछे हटे हैं.साल 1992 में पंचायत के स्तर पर 33 प्रतिशत आरक्षण का कानून बनाए जाने के बावजूद यही आरक्षण संसद और विधानसभाओं में लाने के प्रस्ताव पर आम राय बनाने में तीन दशक से ज़्यादा लग गए हैं.

बिल से जुड़ी सभी जानकारियां  – 

दरअसल महिला आरक्षण बिल 1996 से ही अधर में लटका हुआ है. उस समय H. D देव गौड़ा सरकार ने 12 सितंबर 1996 को इस बिल को संसद में पेश किया था. लेकिन पारित नहीं हो सका था. यह बिल 81 वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में पेश हुआ था. बिल में संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव था. इस 33 फीसदी आरक्षण के भीतर ही  S.C, S.T के लिए उप-आरक्षण का प्रावधान था. लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं था. इस बिल में प्रस्ताव है कि लोकसभा के हर चुनाव के बाद आरक्षित सीटों को रोटेट किया जाना चाहिए.

आरक्षित सीटें राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में रोटेशन के ज़रिए आवंटित की जा सकती हैं. इस संशोधन अधिनियम के लागू होने के 15 साल बाद महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण खत्म हो जाएगा.अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1998 में लोकसभा में फिर महिला आरक्षण बिल को पेश किया था. कई दलों के सहयोग से चल रही वाजपेयी सरकार को इसको लेकर विरोध का सामना करना पड़ा. इस वजह से बिल पारित नहीं हो सका. वाजपेयी सरकार ने इसे 1999, 2002, 2003 और 2004 में भी पारित कराने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुई. बीजेपी सरकार जाने के बाद 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार सत्ता में आई और डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने.

जब 2008 में यूपीए ने पेश किया था बिल – 

यूपीए सरकार ने 2008 में इस बिल को 108 वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में राज्यसभा में पेश किया. वहां ये बिल 9  मार्च 2010 को भारी बहुमत से पारित हुआ. बीजेपी, वाम दलों और जेडीयू ने बिल का समर्थन किया था. यूपीए सरकार ने इस बिल को लोकसभा में पेश नहीं किया. इसका विरोध करने वालों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल शामिल थीं. ये दोनों दल यूपीए का हिस्सा थे. कांग्रेस को डर था कि अगर उसने बिल को लोकसभा में पेश किया तो उसकी सरकार ख़तरे में पड़ सकती है.

 

साल में 2008 में इस बिल को क़ानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति को भेजा गया था. इसके दो सदस्य वीरेंद्र भाटिया और शैलेंद्र कुमार समाजवादी पार्टी के थे. इन लोगों ने कहा कि वे महिला आरक्षण के विरोधी नहीं हैं. लेकिन जिस तरह से बिल का मसौदा तैयार किया गया, वे उससे सहमत नहीं थे. इन दोनों सदस्यों की सिफ़ारिश की थी कि हर राजनीतिक दल अपने 20 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को दें और महिला आरक्षण 20 फीसदी से अधिक न हो.  साल 2014 में लोकसभा भंग होने के बाद यह बिल अपने आप खत्म हो गया. लेकिन राज्यसभा स्थायी सदन है, इसलिए यह बिल अभी जिंदा है.अब  इसे लोकसभा में नए सिरे से पेश करना पड़ेगा. अगर लोकसभा इसे पारित कर दे, तो राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह कानून बन जाएगा. अगर यह बिल कानून बन जाता है तो 2024 के चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिल जाएगा.

बिल के समर्थन में विपक्ष ने भी दिलाई थी याद- 

साल 2014 में सत्ता में आई बीजेपी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस बिल की तरफ ध्यान नहीं दिया. नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में इसे पेश करने का मन बनाया है.हालांकि उसने 2014 और 2019 के चुनाव घोषणा पत्र में 33 फीसदी महिला आरक्षण का वादा किया है. इस मुद्दे पर उसे मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी समर्थन हासिल है.कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने 2017 में प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस बिल पर सरकार का साथ देने का आश्वासन दिया था.वहीं कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने 16 जुलाई 2018 को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर महिला आरक्षण बिल पर सरकार को अपनी पार्टी के समर्थन की बात दोहराई थी.

विपक्ष ने उठाया मुद्दा- 

सोमवार को कैबिनेट की बैठक में महिला आरक्षण बिल को मंजूरी मिलने की बात सामने आने के बाद कांग्रेस ने इस मुद्दे को उठाया. कांग्रेस ने कहा कि बहुमत होने के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में इस बिल को पारित कराने का कोई प्रयास नहीं किया. कांग्रेस ने विशेष सत्र में इस बिल को पारित कराने की मांग की है. विशेष सत्र से पहले सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई थी. इसमें कांग्रेस बीजू जनता दल,, भारत राष्ट्र समिति और कई अन्य दलों ने महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पेश करने पर ज़ोर दिया था. इस समय लोकसभा में 82 और राज्य सभा में 31 महिला सदस्य हैं. यानी की लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी 15 फीसदी और राज्य सभा में 13 फ़ीसदी है.

 पहली बार इस सरकार ने की थी बिल पेश करने  की कोशिश-

इंदिरा गांधी 1975 में प्रधानमंत्री थीं तो ‘to words equality ‘ नाम की एक रिपोर्ट आई थी. इसमें हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण दिया गया था.इसमें महिलाओं के लिए आरक्षण की भी बात थी. इस रिपोर्ट को तैयार करने वाली कमेटी के अधिकतर सदस्य आरक्षण के खिलाफ थे. वहीं महिलाएं चाहती थीं कि वो आरक्षण के रास्ते से नहीं बल्कि अपने बलबूते पर राजनीति में आए.

राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में 1980 के दशक में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए विधेयक पारित करने की कोशिश की थी, लेकिन राज्य की विधानसभाओं ने इसका विरोध किया था. उनका कहना था कि इससे उनकी शक्तियों में कमी आएगी. पहली बार महिला आरक्षण बिल को एचडी देवगौड़ा की सरकार ने 12 सितंबर 1996 को पेश करने की कोशिश की.  सरकार ने 81 वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया. इसके तुरंत बाद देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई. देवगौड़ा सरकार को समर्थन दे रहे मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद महिला आरक्षण बिल के विरोध में थे.  जून 1997 में फिर इस विधेयक को पारित कराने का प्रयास हुआ. उस समय शरद यादव ने विधेयक का विरोध करते हुए कहा था, ”परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो क्या सोचेंगी.”

1998 में जब वाजपेयी सरकार में बिल पेश करने की हुई थी कोशिश- 

1998 में 12वीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की सरकार आई. इसके कानून मंत्री एन थंबीदुरई ने महिला आरक्षण बिल को पेश करने की कोशिश की. लेकिन सफलता नहीं मिली. एनडीए सरकार ने 13वीं लोकसभा में 1999 में दो बार महिला आरक्षण बिल को संसद में पेश करने की कोशिश की. लेकिन सफलता नहीं मिली.   वाजपेयी सरकार ने 2003 में एक बार फिर महिला आरक्षण बिल पेश करने की कोशिश की. लेकिन प्रश्नकाल में ही जमकर हंगामा हुआ और बिल पारित नहीं हो पाया.

 

एनडीए सरकार के बाद सत्तासीन हुई यूपीए सरकार ने 2010 में महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किया. लेकिन सपा-राजद ने सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी. इसके बाद बिल पर मतदान स्थगित कर दिया गया. बाद में 9  मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को 1  के मुकाबले 186 मतों के भारी बहुमत से पारित किया. जिस दिन यह बिल पारित हुई उस दिन मार्शल्स का इस्तेमाल हुआ.

कुछ तथ्य और जानकारियां-

अब आपके सामने कुछ तथ्य रखते हैं जिनको देख शायद कुछ तस्वीर और साफ हो पायेगी, 543 सीटों वाली लोकसभा में फिलहाल सिर्फ़ 78 महिला सांसद हैं, जबकि 238 सीटों वाली राज्यसभा में सिर्फ़ 31 महिला सांसद हैं, छत्तीसगढ़ विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या 14 फीसदी है,जबकि पश्चिम बंगाल विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या 13.7 फीसदी, झारखंड विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या 12.4 फीसदी और बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या 10-12 फीसदी तक है,

बाकी राज्यों  में महिला विधायकों की संख्या 10 फीसदी से कम है, इससे ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बेहद कम है.

क्या 2024 चुनाव तक लागू होगा विधेयक-

ये भी सवाल उठता है कि ये बिल कानून का रूप लेने के बाद  कब  लागू होगा और इसमें सबसे बड़ी समस्या क्या है ? अगर महिला आरक्षण विधेयक  लोकसभा में पारित हो भी जाता है तो भी इसे लोकसभा चुनाव 2024 में लागू करना मुश्किल है. संसद से पारित होने के बाद महिला आरक्षण बिल को कम से कम 50 फीसदी विधानसभाओं से पारित कराना होगा.  यानी कि अगर केंद्र सरकार को ये कानून देशभर में लागू करना है तो इसे कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं से भी पास कराना होगा. वहीं, 2026 के बाद परिसीमन का काम भी होना है. कानून बनने पर भी महिला आरक्षण विधेयक परिसीमन के बाद ही लागू किया जा सकेगा. ऐसे में महिला आरक्षण लोकसभा चुनाव 2029 में लागू हो सकता है.

15 साल के लिए ही होगा लागू-

अब सवाल ये उठता है कि कानून बनने के बाद 33 फीसदी महिला आरक्षण कब तक लागू रहेगा? तो सबसे बड़ी बात आपको बता दें कि राज्यसभा और विधान परिषदों में महिला आरक्षण लागू नहीं होगा.साल 1996 में जब ये विधेयक पेश किया गया था, तो इसके प्रस्‍ताव में स्पष्ट तौर पर लिखा गया था कि इसे सिर्फ 15 साल के लिए ही लागू किया जाएगा. इसके बाद इसके लिए फिर से विधेयक लाकर संसद के दोनों सदनों से पारित कराना होगा. सवाल ये उठता है कि अगर ये विधेयक कानून बन जाता है तो इसकी 15 साल की अवधि कब से शुरू होगी ? कानून विशेषज्ञों के मुताबिक, महिला आरक्षण की 15 साल की अवधि लोकसभा में इसके लागू होने के बाद से ही शुरू होगी. अगर ये 2029 में लागू हो जाता है तो ये 2044 तक लागू रहेगा. इसके बाद दोबारा विधेयक संसद में लाना होगा और पूरी प्रक्रिया से गुजरना होगा.

अभी लोकसभा में 15 फीसदी है महिलाओं की भागीदारी- 

अब आपको बताते हैं, इस बिल के लागू होने पर क्या  समीकरण बनेंगे ? महिला आरक्षण लागू होने के बाद लोकसभा में मौजूदा सांसदों की संख्या के आधार पर संसद के निचले सत्र में कम से कम 181 महिला MP तो होंगी ही. फिलहाल लोकसभा में महिला सांसदों की भागीदारी 15 फीसदी से भी कम है. इस समय लोकसभा में 78 महिला सांसद ही हैं. अगर परिसीमन के बाद संसद सीटों की संख्या बढ़ती है तो महिला सांसदों की संख्या में भी इजाफा होगा.

कई पार्टियां क्यों कर रही हैं विरोध- 

सबसे बड़ा और अहम सवाल जिस को लेकर कई पार्टियां इस बिल का विरोध कर  रही हैं इसकी सबसे बड़ी वजह है एससी-एसटी आरक्षण ? सवाल ये  है कि क्या इनको अलग से आरक्षण मिलेगा ? तो आपको ये भी बता दें कि लोकसभा में  S.C और S.T  आरक्षण लागू है. लेकिन  S.C, S.T   महिलाओं को अलग से आरक्षण नहीं मिलेगा. महिला प्रतिनिधियों को कोटा में कोटा मिलेगा.

महिलाओं को आरक्षण- 

आसान भाषा में कहें तो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एससी-एसटी वर्ग के लिए पहले से आरक्षित सीटों में ही महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिलेगा. फिलहाल लोकसभा में 47 सीटें  S.T  और 84 सीटें S.C  वर्ग के लिए आरक्षित हैं. संसद की मौजूदा स्थिति के आधार पर कहा जा सकता है कि कानून बनने के बाद 16 सीटें एसटी और 28 सीटें एससी वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. बता दें कि लोकसभा में ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है. इसके अलावा महिलाएं उन सीटों पर भी चुनाव लड़ सकती हैं, जो उनके लिए आरक्षित नहीं हैं.

मोदी सरकार में बढ़ रही सीनियर नेताओं की नारजगी,अब ये नेता भी खुल कर बोली…

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मोदी सरकार में नाराजगी- 

मोदी सरकार में 2024 से पहले बगावत के सुर उभरने लगे हैं,कई वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी खुल कर सामने आने लगी है,पहले नितिन गडकरी का एक मंच पर प्रधानमंत्री मोदी के नमस्कार का जवाब न देना और अब भाजपा की बड़ी और फायरब्रांड नेता उमा भारती का खुल कर सामने आना कहीं न कहीं ये साफ़ संकेत देता है कि मोदी की भाजपा में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा और कई दिग्गज नेताओं की पार्टी में अनदेखी के चलते शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ नाराजगी बढ़ रही है,जो कि एकजुट विपक्ष के साथ -साथ अपनों की नारजगी  मोदी सरकार  के लिए नई मुसीबत खड़ी कर सकती है

 

उमा भारती को मनाना आसान नहीं- 

उमा भारती,,, भाजपा का वो बड़ा चेहरा और वो नाम जो राम मंदिर आंदोलन के दौरान पुरे देश ने देखा,,और इसी आंदोलन ने उमा भारती को भाजपा और भारतीय राजनीती में उस मुकाम तक पहुंचाया जहां से आज उनकी अनदेखी भाजपा इतनी आसानी से नहीं कर सकती,,, उमा भारती 27 साल की उम्र में पहली बार चुनाव लड़ी. 6 बार सांसद, 2 बार विधायक बनी. 11 साल केंद्र में मंत्री रहीं और मध्य प्रदेश मुख्यमंत्री भी रहीं. जहां से बेहद नाटकीय ढंग से उनको हटाया गया,उस दौरान भी उमा भारती का अड़ियल रुख भाजपा हाईकमान से लेकर सबने देखा था,इससे ये तो साफ़ है अगर उमा भारती किसी चीज को लेकर अड़ गयी तो मोदी के लिए भी उनको मनाना आसान नहीं है

 

उमा के तीखे तेवर,अनदेखी से नाराज-

एक बार फिर उमा भारती के कड़े तेवर दिखने शुरू हो गए हैं,,उमा भारती साफ़ कर चुकी हैं कि , मैंने 2019 में ही कहा था कि 2019 में चुनाव नहीं लड़ूंगी. मुझे 5 साल का ब्रेक दे दो, गंगा का काम करूंगी. यात्रा करूंगी. लेकिन मैं 2024 का चुनाव जरूर लड़ूंगी. मुझे कोई किनारे नहीं कर सकता’,,,, उमा भारती का ऐसा कहना यूँ अचानक नहीं हुआ,जिस तरह से पार्टी में कई पुराने नेता मार्गदर्शक मंडल में दाल दिए गए,कई और सीनियर नेता हाशिये पर डाल  दिए गए उससे संकेत मिल रहे हैं कि कई नेताओं को 24 चुनाव में छुट्टी हो सकती है,लेकिन 24 के आम चुनाव से पहले जिस तरह उमा भारती को किनारे लगाया जा रहा है उससे उमा बेहद खपा हैं और वो भी उस राज्य से जहां की वो मुख़्यमंत्री रही हों सांसद रही हों

क्यों नाराज है उमा भारती ?

मोदी सरकार में मंत्री रह चुकी उमा भारती ने मध्य प्रदेश में पार्टी द्वारा शुरू की गई जन आशीर्वाद यात्रा में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं दिए जाने पर विधानसभा चुनाव से जुड़ी इस महत्वपूर्ण यात्रा का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी है। उमा भारती पार्टी से इस हद तक नाराज हैं कि उन्होंने जन आशीर्वाद यात्रा के 25 सितंबर को होने वाले समापन समारोह में भी नहीं जाने की घोषणा कर दी है। समापन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी शामिल होने की संभावना है।आपको बता दें कि मध्य प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने रविवार को राज्य के सतना जिले से पार्टी के राज्यव्यापी कार्यक्रम के तहत पहली जन आशीर्वाद यात्रा का शुभारंभ किया था। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सोमवार को राज्य के नीमच से दूसरी जन आशीर्वाद यात्रा का शुभारंभ करने जा रहे हैं।लेकिन इन सभी कार्यक्रमों से भाजपा ने उमा भर्ती से दुरी बनाये रखी हुई है,जिससे उमा बेहद नाराज दिखाई दे रही हैं

पार्टी द्वारा चुनावी रणनीति के लिहाज से शुरू की गई इन महत्वपूर्ण यात्राओं के लिए निमंत्रण नहीं मिलने पर नाराजगी जताते हुए उमा भारती ने कहा, ”आज बीजेपी की यात्राएं निकल रही। इनमें मुझे कहीं नहीं बुलाया। इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनको ये ध्यान तो रखना था। मुझे नहीं जाना था। वो घबराते है कि मैं पहुंच जाऊंगी तो सारा ध्यान मेरी तरफ चला जाएगा। मुझे नहीं जाना था। कम से कम निमंत्रण देने की औपचारिकता पूरी करनी चाहिए थी।

” उमा भारती ने सोमवार सुबह ट्वीट (एक्स) कर कहा, “मुझे जन आशीर्वाद यात्रा के शुभारंभ में निमंत्रण नहीं मिला, यह सच्चाई है कि ऐसा मैंने कहा है, लेकिन निमंत्रण मिलने या ना मिलने से मैं कम ज्यादा नहीं हो जाती। हां अब यदि मुझे निमंत्रण दिया गया तो मैं कहीं नहीं जाऊंगी। ना शुभारंभ में ना 25 सितंबर के समापन समारोह में।” हालांकि इसके बाद अपने अगले ट्वीट में उमा भारती ने यह भी कहा, “मेरे मन में शिवराज के प्रति सम्मान एवं उनके मन में मेरे प्रति स्नेह की डोर अटूट और मज़बूत है। शिवराज जब और जहां मुझे चुनाव प्रचार करने के लिए कहेंगे मैं उनका मान रखते हुए उनकी बात मानकर चुनाव प्रचार कर सकती हूं।” भाजपा नेताओं के फाइव स्टार होटलों में रुकने पर फिर से सवाल उठाते हुए उमा भारती ने अगले ट्वीट में कहा, “शादियों की फ़िज़ूल खर्ची और हमारे नेताओं का 5 स्टार होटलों में रुकना इसको मैं शुरू से ही ग़लत मानती हूं।

 

उमा की चेतावनी-

उन्होंने एक चैनल  से बातचीत में कहा कि अगर आप यानी बीजेपी उन नेताओं के वजूद को पीछे धकेल देंगे, जिनके दम पर पार्टी का वजूद खड़ा है, तो आप एक दिन खुद खत्म हो जायेंगे,उमा भारती से पूछा गया कि वे बैठकों में नजर नहीं आ रही हैं, रणनीतियों से दूर रह रही हैं क्या उमा भारती को दरकिनार किया गया, या खुद दूरी बनाए हुए हैं? इस पर चेतावनी वाले लहजे में उमा भर्ती ने जवाब दिया कि   मैं 2024 का चुनाव जरूर लड़ूंगी. इसलिए मैंने खुद को किनारे नहीं लगाया. और न कोई मुझे किनारे लगा सकता है

गडकरी की नारजगी भी दिखाई दे रही- 

 

ऐसा नहीं है कि सिर्फ उमा भारती ही नाराज हैं,गडकरी की नाराजगी भी अब खुल कर सामने दिखाई दे रही है,एक मंच पर प्रधानमंत्री मोदी जब सबको अभिवादन कर रहे थे और मंच पर खड़े सभी नेता भी प्रधानमंत्री का स्वागत कर रहे थे तो उसी मंच पर मौजूद गडकरी ने न तो पीएम मोदी को अभिवादन किया और न मोदी की तरफ देखा,इससे ये तो साफ़ है कि कहीं न कहीं पार्टी के भीतर ही विरोध बढ़ रहा है,,ऐसा नहीं है कि सिर्फ बड़े स्तर पर ही नाराजगी दिखाई दे रही है बल्कि छोटे स्तर पर भी नेता अब अपनी आवाज खुल कर उठाने लगे हैं

 

कई अन्य नेता भी चल रहे नाराज- 

भाजपा ने नाराज नेताओं को अलग-अलग समितियों में स्थान देकर खुश करने की कोशिश की गई है। कुछ तो मान गए हैं, लेकिन नाराज नेताओं की लिस्ट इतनी लंबी है कि उन्हें मनाने के लिए भाजपा को बकायदा रणनीति बनानी पड़ी है। उसी के मुताबिक रूठों को मनाने की तैयारी की जा रही है। चुनावी राज्य मध्य प्रदेश में बीजेपी के 60 से ज्यादा नेता नाराज बताये जा रहे हैं,,पूर्व विधानसभा अध्यक्ष  के भाई और पूर्व विधायक गिरिजाशंकर शर्मा फिर कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं। उन्होंने खुद इसके संकेत दिए हैं।

उन्होंने कहा कि वर्तमान में सरकार और संगठन की स्थिति खराब है। 7 -7 बार विधायक बन क्र जितने वाले नेता भी पार्टी की बेरुखी से नारज लग रहे हैं,कभी प्रदेश सरकार में प्रभावी मंत्री रहे डॉ. गौरीशंकर शेजवार अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। चुनाव के लिए बनी समितियों में उन्हें जगह नहीं दी गई है। बीजेपी के संस्थापक और पार्टी के सबसे बड़े नेता रहे पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा ने साफ शब्दों में इरादे एक साल पहले ही जाहिर कर दिए थे। उन्होंने एक बयान में कहा था कि मैं चुनाव लड़ूंगा यह तो तय है। अब पार्टी को सोचना है कि वह कहां से लड़ाना चाहती है। उनके यह तेवर अब पार्टी नेतृत्व के लिए उलझन बढ़ा सकते हैं, क्योंकि अनूप अभी तक ग्वालियर पूर्व विधानसभा से चुनाव लड़ते आए हैं।ऐसे कई नेता हैं जो अब खुलकर बोल रहे हैं जिससे बीजेपी मुश्किलें लगातार बढ़ रही है और इनका असर भी चुनावों पर पद सकता है

 

भाजपा के लिए बनता सरदर्द- 

चुनावी साल में वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी से भारतीय जनता पार्टी परेशान है. यही वजह है कि इंदौर में बीजेपी को नई गाइडलाइन जारी करना पड़ी. पार्टी ने यहां अब अपने हर कार्यक्रम में मंच पर पुराने नेताओं को बैठाने औऱ उन्हें पूरा सम्मान देने के निर्देश जारी किए हैं. पार्षदों से लेकर मंडल अध्यक्षों तक को वरिष्ठ नेताओं का विशेष ध्यान रखने के लिए कहा गया है.बीजेपी के वरिष्ठों की नाराजगी पर कांग्रेस चुटकी ले रही है. कांग्रेस प्रवक्ता नीलाभ शुक्ला का कहना है वरिष्ठ नेताओं के सम्मान की परंपरा तो बीजेपी में कभी की खत्म हो चुकी है. वरिष्ठ नेताओं को मार्ग दर्शक मंडल में बैठाकर उनके घरों का मार्ग ही भूल चुके हैं. कई वरिष्ठ नेता पार्टी को लेकर मुखर भी हो चुके हैं. खुद कैलाश विजयवर्गीय ने स्वीकार किया कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओ में खासा असंतोष है. विधानसभा चुनाव में बीजेपी को लग रहा है कि वरिष्ठों की नाराजगी भारी पड़ सकती है. इसलिए उन्हें मंच पर बैठाकर सम्मान का लॉलीपाप दिया जा रहा है. कुल मिलाकर राजनैतिक ड्रामेबाजी की जा रही है. कहीं भी इनके मन के अंदर वरिष्ठों को लेकर सम्मान नहीं है।

कर्नाटक और हिमाचल  चुनाव में करारी हार के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल कम हुआ है. वहीं बीजेपी के पुराने नेता रही सही कसर पूरी कर रहे हैं. ऐसे में पार्टी पशोपेश में है.  कई नेता है, जो अपनी उपेक्षा से नाराज है,ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा की बीजेपी इन्हें मनाने में किस हद तक कामयाब होती है

 

चुनाव से ठीक पहले फिर फंसी मध्य प्रदेश की मामा सरकार…

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एक और नया ताजा घोटाला- 

मध्य प्रदेश में चुनाव हैं और एक बार फिर यहां घोटालों की आवाज सुनाई देने लग गयी है,मध्य प्रदेश में आजकल घोटाले पर घोटाले सामने आ रहे हैं. अभी एक ताजा घोटाला और सामने आया है.. जिसमें दावा किया जा रहा है कि शिवराज सरकार की एक योजना के तहत  बीजेपी नेताओ के करीबी और रिश्तेदारों पर जनता की कमाई का पैसा उड़ाया जा रहा है.. और उनको मौज कराई जा रही है.. लेकिन  इस नए घोटाले का जिक्र करने से पहले थोड़ी सी जानकारी मध्य्प्रदेश के उस घोटाले की भी लेना जरूरी है, जिसे आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला कहा जाता है।
आजाद भारत के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला- 

मध्य प्रदेश की राजनीति,और शिवराज सरकार का जिक्र जब भी आएगा एक घोटाले का नाम हमेशा  सामने आएगा. और वो है ‘व्यापम घोटाला ‘  ये वो घोटाला है जिसे आजाद भारत के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला कहा जाता है. साल था 2013 जब मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाले का खुलासा हुआ था। मध्य प्रदेश के बहुचर्चित व्यावसायिक परीक्षा मंडल  यानी व्यापम घोटाले का पर्दाफाश हुए 10 साल हो गए हैं। अगले कुछ महीने में मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हैं। इस वजह से व्यापम घोटाला एक बार फिर से राजनीतिक चर्चा का विषय बना हुआ है। ये इसलिए भी चर्चित है क्योंकि इस घोटाले का पर्दाफाश होने के बाद कई पत्रकार समेत कई लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई।

 

2013 में हुई थी इस घोटाले से 40 से ज्यादा की मौतें- 

कई मीडिया रिपोर्ट्स के  एक अनुमान के मुताबिक व्यापम घोटाले से जुड़े 40 से ज्यादा लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो चुकी है। इतना ही नहीं, इस मामले में कई गिरफ्तारियां भी हुई है. साल 2013 में  व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्‍यापम की परीक्षाओं में अभ्यर्थियों की जगह किसी दूसरे को बिठाना, नकल कराना और अन्य तरह की धांधलियों की वजह से इस मामले में अब तक 125 से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। इस मामले में जब जांच शुरू हुई तो जांचकर्ता और आरोपियों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत होने लगी। घोटाले के तार मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों से जुड़े होने की बात सामने आई। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट में ये मामला पहुंचने पर इस मामले की जांच केंद्रीय जांच एजेंसी CBI को सौंपी गई।

 

इस घोटाले के तार कई लोगों से जुड़े मिले-

व्यापम में रिश्वत लेकर प्रवेश परीक्षाओं और भर्तियों में नकल करने के मामले में 4 हजार 46 लोगों को आरोपी बनाया गया है। इसमें से 956 आरोपियों की गिरफ्तारी अब तक भी  नहीं हो पाई है। वहीं CBI ने 1242 लोगों को आरोपी बनाया है। गौर करने वाली बात यह है कि इस मामले में मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल राम नरेश यादव के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज है। इतना ही नहीं व्यापम घोटाले में तत्कालीन शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की गिरफ्तारी भी हो चुकी है। इस धांधली का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब एंट्रेंस एग्जाम के बाद अभ्यर्थी इंटरव्यू के लिए पहुंचे तो उनका चेहरा और एडमिट कार्ड पर लगी फोटो दोनों अलग होते। इसके बाद भी उन्हें इंटरव्यू में पास करके उन्हें एडमिशन दे दिया जाता। मामला उजागर होने पर इसके तार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कार्यालय और तत्कालीन राज्यपाल राम नरेश यादव तक जुड़ते पाए गए।

 

फिर विवादों में क्यों आयी शिवराज सरकार ?

अब बात उस नए घोटाले की जिससे शिवराज सरकार फिर विवादों में आ गयी है,,मध्य प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा  कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाह रही है. सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान  युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक को रिझाने के लिए रोजाना कुछ न कुछ नया कर रहे हैं. लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है.चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री शिवराज ने मुख्यमंत्री हवाई तीर्थ यात्रा की शुरुआत की है.लेकिन इस योजना से बुजुर्गों को हवाई यात्रा का दावा करने वाली शिवराज सरकार की अब पोल खुलती हुई नजर आ रही है।

 

चुनाव से ठीक पहले इस योजना की शुरुवात- 

चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री शिवराज ने मुख्यमंत्री हवाई तीर्थ यात्रा की शुरुआत की है. लेकिन इस योजना का लाभ बीजेपी के पदाधिकारी उठा रहे हैं. पैसे वाले रसूखदार लोग उठा रहे हैं, मिली जानकारी के अनुसार हवाई सफर रायसेन से पूर्व जिलाध्यक्ष समेत बीजेपी के दिग्गज नेता सहित हेल्थ मिनिस्टर प्रभुराम चौधरी के सबसे करीबी लोग कर रहे हैं. मंत्री विश्वास सारंग के करीबी रसूखदार बीजेपी भोपाल मंडल अध्यक्ष नीरज पचौरी के ब्रजमोहन भी सीएम की मुफ्त रेवड़ी वाली हवाई यात्रा में तीर्थ दर्शन कर आये. कद्दावर मंत्री प्रभुराम चौधरी ने तीर्थ यात्रियों को हवाई यात्रा पर भेजते हुए फेसबुक पर फोटो डाली, प्रभुराम चौधरी के साथ फोटो में रायसेन से पूर्व जिला अध्यक्ष नरेंद्र सिंह कुशवाह हैं, बीजेपी रायसेन के 2003 से 2007 तक जिला अध्यक्ष रहे हैं. इसके अलावा प्रभुराम चौधरी के खासम खास मलखान सिंह, कालूराम विश्वकर्मा भी हवाई जहाज पर सवार हुए. इस लिस्ट में बड़ी संख्या में बीजेपी नेता प्रयागराज डुपकी लगाने गए।

 

करीबियों को हो रहा है योजना का फायदा- 

भोपाल की हवाई तीर्थ दर्शन की सूची में मंत्री विश्वास के विस्वस्थ हवाई सरकार पर खूब उड़े. मंत्री ने मुख्यमंत्री की योजना को पलीता लगा दिया है. पोस्टर में नजर आ रहे है नीरज पचौरी जो की बीजेपी के मंडल अध्यक्ष पोस्टर पर मंत्री विश्वास सारंग का फोटो बताता है की ये उनके बेहद करीबी हैं, करीबी होने की वजह से फायदे भी मिल रहे हैं. मंडल अध्यक्ष नीरज पचौरी के पिता ब्रजमोहन पचौरी इनके पास करोड़ों की सम्पति है पर मंत्री विश्वास के करीबी हैं तो इन्हें गरीबों की योजना का लाभ मिल रहा है. क्योंकि ब्रजमोहन पचौरी मंत्री विश्वास के लिए वोट बटोरने के लिए नरेला में काम आते है . मकसद ये था कि इस यात्रा में निर्धन परिवार के लोग ही यात्रा करें, लेकिन निर्धन बुजुर्गों के हक को बीजेपी नेताओं ने मार लिया है।

 

12 अप्रैल को सर्कुलर किया था जारी- 

पहली बार किसी राज्य में सरकार के खर्च पर हवाई जहाज से तीर्थ यात्रा की शुरुआत हुई ..शिवराज सिंह चौहान के द्वारा काफी धूम-धाम से शुरु की गयी शिवराज सरकार धार्मिक न्यास और धर्मस्व विभाग ने 12 अप्रैल 2023 को यात्रा से जुड़ा सर्कुलर जारी किया था. इसके मुताबिक, यात्रियों को चुनने के दो क्राइटेरिया पहला, यात्री की उम्र 65 साल से ज्यादा होना चाहिए, दूसरा, वो इनकम टैक्स न देता हो. सर्कुलर के हिसाब से यात्रियों के सिलेक्शन की जिम्मेदारी जिला कलेक्टर को दी गई है. ये भी कहा गया है कि तय संख्या से ज्यादा आवेदन आने पर यात्रियों का सिलेक्शन कम्प्यूटराइज्ड लॉटरी सिस्टम से किया जाए।

 

आखिर इन लोगों को क्यों करवाया गया तीर्थाटन- 

21 मई को पहला ग्रुप राजधानी भोपाल से हवाई जहाज से  प्रयागराज भेजा गया था, इसमें कुल 32 यात्री शामिल थें, लेकिन इन यात्रियों में अधिकांश भाजपा के पदाधिकारी और उसके नेताओं के परिजन थें. इसमें दो यात्रियों की पहचान महाराष्ट्र और तमिलनाडु निवासी के रुप में हुई है. अब सवाल है कि मध्य प्रदेश सरकार उन्हें अपने खर्चे से यात्रा कैसे करवा रही थी?  इसके साथ ही तीर्थ योजना का लाभार्थी के लिए जो मापदंड तय किया गया था, उसकी भी धज्जियां उड़ाई गयी है, मापदंड के विपरीत इसमें से अधिकांश बड़े-बड़े हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाले लोग हैं, जिनके पास आलीशान गाड़ियां और लग्जरी भरी जिंदगी है, बावजूद इसके इन सभी को गरीब-वचिंत बताकर तीर्थाटन करवाया गया।

 

10 साल बीत चुके हैं व्यापम घोटाले को-

व्यापम घोटाले का पर्दाफाश हुए 10 साल बीत चुके हैं। लेकिन घोटालों का जिन्न आज भी शिवराज सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहा,,  पिछले दिनों पटवारी भर्ती परीक्षा में एक बार फिर से धांधली के आरोप लगे। आरोप ये भी लगे कि ये भी व्यापम की तरह ही एक और घोटाला है, जिससे शिवराज सरकार फिर से निशाने पर आ गयी, ये मामला थोड़ा हल्का पड़ा  ही  था कि अभी हाल ही में एक और घोटाले के आरोपों में शिवराज सरकार घिर गयी है, जिस पर खूब हंगामा मचा हुआ है,और अब विपक्षी भी शिवराज सरकार पर तंज कस रहे हैं कि वो दिन दूर नहीं जब गूगल पर घोटाला सर्च करेंगे  तो शिवराज सिंह चौहान की तस्वीर सामने आएगी।

प्रियंका गांधी के द्वारा मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान को 50 फीसदी कमीशन वाली सरकार बताने पर मुकदमा दर्ज किया गया है,  प्रियंका और दूसरे कांग्रेस नेताओं के खिलाफ करीब 45 थानों में मुकदमा दर्ज किया गया है. साफ है कि जिस प्रकार वहां से भ्रष्टाचार की खबरें आ रही है, और कांग्रेस के आरोपों पर भाजपा जिस गैर जरूरी उग्रता के साथ प्रतिक्रिया दे रही है, मध्यप्रदेश में भी भाजपा कर्नाटक की राह चलती नजर आ रही है।

फिर मुश्किल में मोदी सरकार, पुरानी पेंशन बहाली को लेकर सड़कों पर उतरेंगे देश के करोड़ों कर्मचारी…

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पेंशन से हो सकती है मोदी सरकार में टेंशन-

महंगाई और बेरोजगारी को दूर करने में नाकाम रही नरेंद्र मोदी सरकार अब नई मुसीबत में है. देश सबसे बड़ी हड़ताल की मुहाने पर खड़ा है, रेलगाड़ी, सरकारी दफ्तर, सरकारी बस, सरकारी बैंक, पोस्ट आफिस, मंडियां, कॉलेज, स्कूल, यूनिवर्सिटी सब पर ताला लग सकता है. क्योंकि जिस पुरानी पेंशन योजना ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया उसकी आवाज अब पूरे भारत से बुलंद होने वाली है, सरकारी कर्मचारियों के संगठन ने भाजपा की ईंट सीट बजाने का ऐलान कर दिया है.. चेतावनी जारी हुई है की अभी भी मोदी के पास समय है या तो वे पुरानी पेंशन योजना लागू कर दें. और नहीं तो अब हम अनिश्चितकाल के लिए धरने पर बैठने को मजबूर होंगे

 
2024 चुनाव में बड़ा मुद्दा बन सकता है ये- 
 

कर्मचारियों ने सरकार को खुली चेतावनी दे डाली है. कि अगर सरकार ने पुरानी पेंशन योजना लागू नहीं की तो 2024 में भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा, यानी की अब ये मुद्दा पूरे देश में तूल पकड़ चुका है,,, क्योकि कर्मचारियों को लगता है कि सरकार इस मामले में अड़ियल रवैया अपना रही है. आप जानते ही हैं की कांग्रेस शासित प्रदेशों में OPS यानी  Old Pension Scheme लागू होने के बाद से बीजेपी शासित राज्यों की मुसीबत बढ़ गयी है, इसलिए राजनीति के जानकारों का तो यहां तक दावा है की 2024 लोकसभा चुनावों में ये मुद्दा बड़ा चुनावी मुद्दा जरुर बन सकता है

 
हो सकती है जल्द ही बड़ी हड़ताल-
 

ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है क्योकि OPS के लिए गठित नेशनल ज्वाइंट काउंसिल ऑफ ऐक्शन की संचालन समिति की वरिष्ट सदस्य और AIDEF के महासचिव सी.श्री कुमार ने बताया की सरकार इस मामले पर अडियल रवैया अपना रही है, इसलिए पुरानी पेंशन के लिए कर्मचारी संगठन राष्ट्रीय व्यापी अनिश्चितकालीन हड़ताल कर सकती है

 
देश में स्ट्राइक-
 

इस मामले पर विचार करने के लिए 20 और 21 नवंबर को देशभर में स्ट्राइक बैलेट होगा. इसमें कर्मचारियों की राय ली जाएगी. अगर बहुमत हड़ताल के पक्ष में होता है तो केंद्र और राज्यों में सरकारी कर्मचारी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले जाएंगे. साथ ही उन्होंने चेतावनी भी दी की अगर ऐसा हुआ तो पूरे देश में रेल के पहिए थम जाएंगे. वही केंद्र एवं राज्यों के कर्मचारी कलम छोड़ देंगे ‘मतलब पूरा देश ठप’

 
 सी.श्री कुमार ने दावा किया की पुरानी पेंशन बहाली के लिए केंद्र एवं राज्यों के कर्मचारी एक साथ आ गए हैं. लगभग देश के सभी कर्मचारी संगठन इस मुद्दे पर एक साथ है.
 

 

केंद्र और राज्यों के विभिन्न निगमों और स्वायत्तता प्राप्त संगठनों ने भी OPS की लड़ाई में शामिल होने की बात कही है. बैंक और इंश्योरेंस कर्मियों से भी बातचीत चल रही है. कर्मचारियों ने हर तरीके से सरकार के सामने पूरानी पेन्शन बहारी की मांग की है. लेकिन उनकी बात सुनी नहीं गई अब उनके पास अनिश्चितकालीन हड़ताल ही एक मात्र रास्ता बचा है. आपको बता दें की 10 अगस्त को दिल्ली के रामलीला मैदान में पूरे देशभर से लाखों सरकारी कर्मचारी आए थे और सबने मिलकर OPS को लेकर हुंकार भरी थी

उठाए जा सकते हैं ये कदम-

 

कर्मचारियों ने दो टूक शब्दों में कहा था की वो किसी भी तरह से पुरानी पेंशन बहाल करा कर दी दम लेंगे सरकार को अपनी जिद्द छोड़नी ही पड़ेगी, कर्मचारियों ने कहा था की वो सरकार को वो फॉर्मूला बताने को तैयार हैं, जिसमें सरकार को OPS लागू करने में कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन अगर इसके बाद भी सरकार पुरानी पेंशन लागू नहीं करती है तो भारत बंद जैसे कई कठोर कदम उठाए जाएंगे

OPS पर सभी विभाग एक साथ-
 
रक्षा कर्मी
सिविल कर्मचारी 
रेलवे 
बैंक 
प्राइमरी स्कूल 
कॉलेज 
यूनिवर्सिटी 
डॉक 
सेकेंडरी स्कूल 
हाई स्कूल 
 
BJP के लिए खड़ी हो सकती है बड़ी परेशानी-
 

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से भी मुलाकात की कोशिश की थी लेकिन वो इसमे कामयाब नहीं हो सके. संचालन समिति के राष्ट्रीय संयोजक ने चुनौती भरे लहजे में कहा था की अगर 2024 लोकसभा चुनाव से पहले पुरानी पेंशन अगर लागू नहीं होती है तो भाजपा को इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए, उन्होंने बताया की कर्मियों, पेंशनरों और उनके रिश्तेदारों को मिलाकर ये संख्या 10 करोड़ के पार चली जाती है. चुनावों में बड़ा उलटफेर करने के लिए ये संख्या निर्णायक है. केंद्र के सभी मंत्रालय विभाग, OPS पर एक साथ आ चुके हैं

 
NPS मंजूर नहीं- 
  

सी.श्री कुमार के मुताबिक मोदी सरकार पेंशन पर होशियारी कर रही है. वित्त मंत्रालय ने जो कमेटी बनाई है उसमें OPS का ही जिक्र नहीं है. उसमे तो NPS यानी National Pension System में सुधार की बात की गयी है, इसका मतलब है की केंद्र सरकार OPS को लागू करने के मूड में ही नहीं है. और केंद्र सरकार NPS में चाहे जो भी सुधार कर ले कर्मचारियों को ये मंजूर नहीं है, कर्मियों का केवल एक ही मकसद है बिना गारंटी वाला NPS योजना को खत्म किए जाए और परिभाषित एवं गारंटी वाली पुरानी पेंशन योजना को बहाल किया जाए

NPS में कोई राहत नहीं-
 

AIDEF यानी ऑल इंडिया डिफेंस एम्पलाइज फेडरेशन के महासचिव ने ये भी कहा की NPS में पुरानी पेंशन व्यवस्था की तरह महंगाई राहत का भी कोई प्रावधान नहीं है जो कर्मचारी पुरानी पेंशन व्यवस्था के दायरे में आते हैं उन्हे महंगाई राहत के तौर पर आर्थिक फायदा मिलता है. NPS में सामाजिक सुरक्षा की गारंटी भी नहीं रही, रिटायरमेंट के बाद सरकारी कर्मचारियों को जानबूझकर मुश्किल में धकेला जा रहा है. और हम इसे स्वीकार करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं

 
कांग्रेस OPS को अपनी राज्यों की सरकार में कर रही है लागू-
 

इसका मतलब साफ है कि सरकारी कर्मचारियों में अब सरकार के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इसका सीधा असर आने वाले चुनावों चाहे वो विधानसभा चुनाव हो या फिर अगले साल होने वाले आम चुनाव दोनो पर पड़ेगा.. एक तरफ कांग्रेस इस मामले में लीड ले चुकी है, तो बीजेपी बैकफुट पर है. कांग्रेस हर उस राज्य में OPS को लागू कर रही है या लागू करने की घोषणा कर चुकी है जहां-जहां उनकी सरकारे हैं. वहीं बीजेपी अभी तक यही फैला रही है की OPS की तरफ लौटना मतलब देश बर्बाद करना, इज्जत पर अड़े रहना बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है. क्योकि हिमाचल और कर्नाटक को कहीं ना कहीं इसी मुद्दे की वजह से नुकसान उठाना पड़ा था. अब दोनो राज्यों में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में इस मुद्दे को शामिल किया और सरकार बनने पर पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का वादा किया

 
इन राज्यों में भी भारी पड़ रहा है ये मुद्दा- 
 

इसके साथ ही ये मुद्दा उत्तर प्रदेश, हरिय़ाणा, महाराष्ट्र जैसे बीजेपी शासित राज्यों में भी तेजी से तूल पकड़ने लगा. और अब तो कर्मचारियों ने साफ चेतावनी दे दी है की अगर उनकी मांगे नहीं मानी गय़ी तो वो अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ जाएंगे, ये चेतावनी मोदी सरकार को भारी पड़ सकती है. क्योकि अगर 1 लाख लोगों ने भी दिल्ली में धरना शुरु कर दिया तो एक नया दूसरा अन्ना आंदोलन खड़ा हो सकता है. और फिर OPS ऐसा मुद्दा है जो हर गांव, हर शहर, और हर राज्य में बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकता है

 

ऐसे में अब देखना होगा की सरकारी कर्मचारियों की इस चेतावनी पर सरकार ध्यान देती है या नहीं. कर्मचारी सरकार को चेतावनी देने के बाद बेसब्री से उनके जवाब का इंतजार कर रही है. लेकिन अभी जितना ये मामला टलेगा 2024 चुनाव में ये उतना ही बड़ा मुद्दा बनेगा और बीजेपी इसे टालने की हर मुम्किन कोशिश करेगी

वसुंधरा से दूरी बनाती भाजपा, नाराजगी मोदी को पड़ सकती है महंगी… 

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क्या वसुंधरा अब बीजेपी की ज़रूरत की लिस्ट से बाहर हो चुकी हैं? सवाल उठना लाजिमी भी है क्योंकि वसुंधरा राजे न सिर्फ़ दो बार की मुख्यमंत्री रही हैं, बल्कि प्रदेश में पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा भी हैं.राजस्थान चुनाव की तैयारियों में जुटी पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे को बीजेपी ने बड़ा झटका दिया है. गुरुवार को बीजेपी ने चुनाव प्रबंधन समिति और संकल्प पत्र समिति के गठन का ऐलान किया. इन दोनों ही समितियों से वसुंधरा राजे का नाम गायब है. बीजेपी का ये फैसला चौंकाने वाला है.वसुंधरा के किसी समर्थक को भी इन कमेटियों में जगह नहीं मिली है. इसके उलट घनश्याम तिवाड़ी और डॉक्टर किरोड़ी लाल मीणा जैसे नेताओं को शामिल किया गया है, जो वसुंधरा राजे के घोर विरोधी माने जाते हैं. ये वही नेता हैं जो एक समय वसुंधरा राजे की वजह से बीजेपी छोड़कर चले गए थे. हालांकि, अभी कैंपेन कमेटी की घोषणा बाकी है, लेकिन इन दो कमेटियों से वसुंधरा का पत्ता कटने के बाद राजस्थान के राजनीतिक गलियारे में सुगबुगाहट तेज हो गई है. सवाल उठने लगे हैं कि क्या राजस्थान की सियासत में वसुंधरा राजे के साथ खेल हो गया? क्या बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद की सबसे बड़ी दावेदार वसुंधरा को साइड लाइन कर दिया?

 
राजस्थान में जहां भाजपा जीत की आस लगा रही है,पर कुछ ऐसे कारण राजस्थान में बन रहे हैं जिससे जहां कांग्रेस को थोड़ा राहत और भाजपा में बेचैनी दिखाई दे रही है, राजस्थान में भाजपा की जीत सबसे ज्यादा निर्भर करेगी वसुंधरा राजे पर, राजस्थान विधानसभा चुनावों को लेकर बीजेपी ने हाल ही में दो समितियां गठित की हैं. इन दोनों समितियों में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का नाम नहीं होने से उनके समर्थकों में नाराजगी है.बीजेपी में चुनाव समितियों का बड़ा महत्व माना जाता है.इसलिए दोनों समितियों में वसुंधरा राजे का नाम नहीं होने से फिर एक बार बीजेपी में उनकी अहमियत को लेकर चर्चा शुरू हो गई है.हालांकि, बीजेपी का कहना है कि वसुंधरा राजे बीजेपी की बड़ी नेता हैं. वे चुनावों में प्रचार-प्रसार करेंगी। 
 
 
राजस्थान में कैंपेनिंग कमेटी की घोषणा- 
 

दूसरी तरफ कांग्रेस ने राजस्थान में नाराज चल रहे सचिन पायलट को कांग्रेस वर्किंग कमेटी में शामिल कर लिया है. रविवार को कांग्रेस वर्किंग कमिटी की जो लिस्ट आई उसमें सचिन पायलट का भी नाम है.जहाँ कांग्रेस सचिन पायलट को साथ लेकर चलने की कोशिश कर रही है, वहीं बीजेपी में वसुंधरा राज्य निर्णायक भूमिका में नहीं दिख रही हैं.बीजेपी पहली बार राजस्थान में कैंपेनिंग कमिटी की घोषणा भी करने वाली है. चुनावों में बीजेपी की कैंपेनिंग कमेटी को बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है.ऐसे में वसुंधरा राजे की भूमिका को लेकर सबकी निगाहें अब कैंपेनिंग कमिटी की घोषणा पर टिकी हुई हैं.17 अगस्त के दिन जयपुर में बीजेपी ने कोर कमिटी की बैठक बुलाई थी. लेकिन, इस बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे शामिल नहीं हुईं.इस बैठक से पहले बीजेपी ने आगामी राजस्थान विधानसभा चुनाव के दो समितियों की घोषणा की.प्रदेश चुनाव प्रबंधन समिति और प्रदेश संकल्प पत्र समिति. इन दोनों ही समितियों से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का नाम नहीं है.वसुंधरा राजे के चेहरे पर 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई थी.इसके बाद से ही दिल्ली के बीच उनके मतभेद देखने को मिले हैं. चर्चाएं रहीं कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे को महत्व नहीं दे रहा है.इस बार इसलिए भी सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे का चुनावों के लिए बनाई गईं सभी समितियों में नाम था.तब चुनाव प्रबंधन समिति में भी वसुंधरा राजे शामिल रहीं थीं लेकिन इस बार उनका नाम नहीं है.वसुंधरा राजस्थान बीजेपी की सबसे बड़ी नेता है,भाजपा भले कुछ भी दावे करे लेकिन ये भी सच है कि वसंधुरा को अगर भाजपा राजस्थान से किनारे करती है तो आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को मुश्किलों के दौर से गुजरना पड़  सकता है

चुनावी रणनीति पर दिल्ली की पकड़ मजबूत- 


वसुंधरा राजे का पिछले चुनावों में जो क़द था, वो इस बार नहीं रहा है. इसका अब कारण दिल्ली से राज्यों का चुनाव संचालन हो सकता है.चुनाव में प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति तक सभी फ़ैसलों पर दिल्ली की पकड़ मजबूत हो गई है. इसके बाद से ऐसा देखा नहीं गया कि वसुंधरा राजे को कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई हो,वसुंधरा समर्थक चाहते हैं कि उनको राजस्थान सीएम का चेहरा बनाया जाए.बीजेपी में सबसे महत्वपूर्ण कैंपेन कमेटी मानी जाती है. इस कमेटी का चेहरा चुनावों का चेहरा माना जाता है और इसलिए सब की निगाहें कैंपेन कमेटी पर टिकी हैं.राजस्थान में पहली बार कैंपेन कमेटी की घोषणा होने जा रही है.माना जा रहा है कि कैंपेन कमेटी में वसुंधरा राजे को शामिल किया जा सकता है. अगर नहीं किया जाएगा तो बीजेपी आलाकमान का यह सीधा संदेश होगा कि वसुंधरा राजे को दरकिनार करके चुनावों में जा रहे हैं.पहली बार साल 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान कैंपेनिंग कमेटी बनाई गई थी, जिसका अध्यक्ष नरेंद्र मोदी को बनाया गया था. इसलिए माना जाता है कि कैंपेनिंग कमिटी का चेहरा ही आगामी चुनाव का चेहरा होगा

 

बीजेपी ने प्रदेश संकल्प पत्र समिति का संयोजक बीकानेर से सांसद और केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को सौंपी है.राजस्थान में अर्जुन राम मेघवाल बीजेपी के बड़े दलित चेहरा हैं.राजनीति में आने से पहले वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं.संकल्प पत्र समिति में राज्यसभा सांसद घनश्याम तिवाड़ी और राज्यसभा सांसद डॉ किरोड़ी लाल मीणा हैं.ये दोनों ही नेता एक समय पर वसुंधरा राजे के धुर विरोधी रहे हैं. संकल्प पत्र समिति में छह सह संयोजक और 17 सदस्य समेत कुल 25 नेता शामिल हैं.प्रदेश चुनाव प्रबंधन समिति का संयोजक नारायण पंचारिया को बनाया गया है.पंचारिया बीजेपी से पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष और सांसद रहे हैं. वे केंद्रीय नेतृत्व के करीबी माने जाते हैं.बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और जयपुर ग्रामीण सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौर समेत छह सह संयोजक और 14 सदस्यों समेत 21 नेताओं को समिति में शामिल किया गया है

 
क्या वसुंधरा की अहमियत भाजपा में कम?


ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या वसुंधरा राजे की अहमियत भाजपा में कम हो रही है,वसुंधरा राजे एक समय में पार्टी में मजबूत कद रखती थी,वसुंधरा अटल और आडवाणी के दौर में एक समय 2014 से पहले प्रधानमंत्री के पद की दावेदार के रूप में थी,लेकिन मोदी सत्ता में उनको इतना महत्व नहीं दिया गया,वसुंधरा राजे के चेहरे पर 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई थी.इसके बाद से ही दिल्ली के बीच उनके मतभेद देखने को मिले हैं. चर्चाएं रहीं कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे को महत्व नहीं दे रहा है.इस बार इसलिए भी सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे का चुनावों के लिए बनाई गईं सभी समितियों में नाम था.तब चुनाव प्रबंधन समिति में भी वसुंधरा राजे शामिल रहीं थीं लेकिन इस बार उनका नाम नहीं है

बीजेपी राजस्थान में परिवर्तन यात्रा निकाल रही है,हालांकि, इस बार परिवर्तन यात्रा एक चेहरे पर नहीं बल्कि चार दिशाओं से चार चेहरों पर टिकी होगी.ऐसे में यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बार यह यात्रा सिर्फ़ वसुंधरा राजे को साइड लाइन करने के लिए किया गया है. राजनीतिक विश्लेषक मिलाप चंद डांडी कहते हैं, “राजस्थान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही चेहरे पर ही चुनाव लड़ा जाएगा. मुझे नहीं लगता कि वसुंधरा राजे का चेहरा सामने किया जाएगा. क्योंकि उन पर गहलोत से मिले होने के आरोप हैं.अभी तक तो ऐसा लग रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव मोदी बनाम गहलोत होगा. मीडिया में भी मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर वसुंधरा से अलग नाम तैर रहे हैं.. कभी गजेंद्र सिंह शेखावत, कभी सतीश पूनिया तो कभी अश्विनी वैष्णव. मतलब साफ़ है, वसुंधरा के लिए संकेत अच्छे नहीं हैं. शायद, वसुंधरा राजे को भी इसका अहसास हो चुका है, इसलिए अक्सर वो पार्टी की बैठकों से नदारद रहती हैं. गुरुवार को भी राजस्थान में भाजपा का विशेष सदस्यता अभियान चल रहा था, लेकिन कोर कमेटी की मेंबर होने के बावजूद वसुंधरा नहीं पहुंचीं

क्या बीजेपी के लिए आसान होगा ये?


अब सवाल उठता है  की क्या  वसुंधरा को किनारे करना बीजेपी के लिए आसान होगा ? पार्टी के अंदर ही वसुंधरा राजे के खिलाफ एक बड़ी लॉबी बन गई है. हाल में अमित शाह के दौरे में इसकी झलक भी दिखी थी. उदयपुर में मंच पर अमित शाह के साथ वसुंधरा राजे भी थीं. नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने वसुंधरा की अनदेखी कर भाषण के लिए अमित शाह का नाम लिया. हालांकि, अमित शाह ने वसुंधरा राजे की ओर इशारा कर भाषण के लिए कहा. अब सवाल है कि क्या बीजेपी के लिए वसुंधरा राजे को साइड लाइन करना आसान होगा? जवाब है- बिल्कुल नहीं. वसुंधरा राजे का एक अपना व्यक्तित्व है जो सियासत को किसी करवट बदलने का माद्दा रखता है. अगर राजस्थान की सियासत में वसुंधरा के दुश्मन हैं तो दोस्त भी. वसुंधरा के करीबी और सात बार के विधायक रहे देवीसिंह भाटी ने तो वसुंधरा को चेहरा न बनाए जाने की स्थिति में तीसरा मोर्चा बनाने तक की बात कह दी है. हालांकि, वसुंधरा राजे अभी वेट और वॉच वाली स्थिति में हैं. इलेक्शन कैंपेन कमेटी की घोषणा अभी बाक़ी है. माना जाता है कि इलेक्शन कैंपेन कमेटी का संयोजक ही चुनाव में पार्टी का चेहरा होता है. ऐसे में इस पद के लिए वसुंधरा प्रेशर पॉलिटिक्स से नहीं चूकेंगी. लेकिन, अगर ऐसा नहीं हुआ तो इतना तो तय है कि वसुंधरा को साइड लाइन करना बीजेपी के लिए फायदे का सौदा नहीं होगा

 
 
क्या खतरनाक प्रतिद्वंद्वी साबित हो सकती हैं ये- 


फिलहाल, BJP के बड़े नेता अपनी तरफ से गुटबाजी पर लगाम लगाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं क्योंकि गुटबाजी भगवा कुनबे की चुनावी संभावनाओं के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है,राजस्थान में नेतृत्व की दुविधा हल करने में BJP की नाकामी के इन चुनावों में तकलीफदेह नतीजे हो सकते हैं. राजस्थान में पार्टी की सबसे लोकप्रिय नेता वसुंधरा राजे की अपरिभाषित भूमिका BJP की चुनावी संभावनाओं पर किस तरह असर करेगी, यह एक जटिल सवाल है. अगर उनके कुछ वफादारों के नाराजगी भरे बयान कोई इशारा हैं,  तो ‘एंग्री वूमेन’ अपनी ही पार्टी के लिए एक खतरनाक प्रतिद्वंद्वी साबित हो सकती है !

5 राज्यों का खेला, किसने किसको पेला, ये बिगाड़ देंगे भाजपा-कांग्रेस दोनों का ही खेल…

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अगले दो-तीन महीनों में पांच राज्यों की विधानसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं। इनमें से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पर सबकी नजरें टिकी हुई हैं। इस बीच आ रहे अलग-अलग सर्वे में कहीं भारतीय जनता पार्टी, कहीं कांग्रेस तो कहीं किसी को भी स्पष्ट बहुमत मिलता दिखाई नहीं दे रहा है।  इनमें से दो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है, जबकि मध्य प्रदेश में भाजपा की शिवराज सिंह चौहान की सरकार है। ये चुनाव 2024 लोकसभा का सेमीफाइनल की तरह होगा और इनके नतीजे 24 के लोकसभा पर बड़ा असर डालेंगे,, इन तीनों ही राज्यों में भाजपा और कांग्रेस  दोनों दल बड़े खिलाड़ी हैं लेकिन तीनों राज्यों में 9 ऐसे छोटे दल हैं जो दोनों ही बड़ी पार्टियों का खेल बिगाड़ने को आतुर हैं। सियासी जानकारों का मानना है कि अगर दोनों ही बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने छोटे दलों को नहीं साधा तो उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है।2024 लोकसभा  से पहले जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, मोदी सरकार के लिए ये सबसे अहम चुनाव साबित होंगें,तीसरी बार सत्ता तक पहुंचने के लिए भाजपा को इन चुनावों में जीत बेहद जरूरी है,इनमे सबसे अधिक सीट वाले मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनावी नतीजे कई हद तक 2024 की दिशा तय करेंगे,इन राज्यों में जीत दर्ज करने वाली पार्टी एक बड़े मनोबल से 24 के रण में उतरेगी,भाजपा अगर यहां जीत दर्ज करने में कामयाब होती है तो पुरे देश में उनका माहौल बनेगा,और अगर कांग्रेस इसमें कामयाब हुई तो न केवल गटबंधन में कांग्रेस का पक्ष सबसे मजबूत होगा बल्कि पुरे देश में कांग्रेस एक नए उत्त्साह से चुनाव लड़ेगी और ये विपक्षी खेमें में भी जोश भरेगी,, लेकिन मध्य प्रदेश,राजस्थान,छतीशगढ में कुछ छोटे ऐसे दल भी हैं जो इन दोनों पार्टियों में किसी की भी पार्टी का गणित बिगाड़ सकते हैं,इन राज्यों का समीकरण हम आपको सिलसिलेवार तरिके बताते हैं।

123 सीटों पर होने वाला है खेल-

पहले बात मध्य प्रदेश की जहां लोकसभा की 29 सीट हैं,,जहां से 2019 में मोदी सरकार 28 सीट जितने में कामयाब रही थी,लेकिन विधानसभा में कांग्रेस ने उसको नजदीकी मुकाबले में हरा दिया और राज्य की सत्ता पाने में कामयाबी हासिल की,हलाकि कुछ समय बाद ज्योतिराज सिंधिया कुछ विधयकों को लेकर भाजपा में शामिल हो गए और कांग्रेस की कमलनाथ सरकार अल्पमत के कारण गिर गयी,और शिवराज फिर मुख़्यमंत्री बन गए,लेकिन इस बार कांग्रेस मध्य प्रदेश में भाजपा को फिर कड़ी चुनौती देती दिखाई दे रही है और एक बार फिर भाजपा कांग्रेस में यहां कांटे का मुकाबला देखने को मिल सकता है,लेकिन इस बार छोटे दल और निर्दलीय यहां किसी भी पार्टी का समीकरण बिगाड़ने को तैयार है,ये भी सम्भव है कि चुनाव नतीजों के बाद ये किंग मेकर की भूमिका निभा सकते हैं, मध्य प्रदेश में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं। इनमें से 47 अनुसूचित जनजाति और 35 अनुसूचित जाते के लिए आरक्षित हैं। इन सीटों के अलावा 41 और सामान्य सीटें हैं, जहां SC/ST वोटर हार-जीत तय करते हैं। यानी कुल 123 सीटों पर तगड़ा खेल होने वाला है क्योंकि इन सीटों पर तीन छोटे दलों की मौजूदगी और अच्छी पकड़  मानी जाती है। उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे बुंदेलखंड क्षेत्र में मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी एक प्रमुख सियासी खिलाड़ी है। ग्वालियर चंबल क्षेत्र में दलित (SC) मतदाताओं पर बसपा का अच्छा प्रभाव माना जाता है।

इसी तरह महाकोशल क्षेत्र की कई सीटों पर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (जीजीपी) की मजबूत पकड़ मानी जाती है। पांच साल पहले यानी 2018 के चुनावों में जीजीपी ने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन बनाकर कुल 125 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन उस गठबंधन को सिर्फ एक सीट ही मिली थी। इन दोनों के अलावा हीरालाल अलावा के नेतृत्व  वाले जय आदिवासी युवा शक्ति (JAYS) इस साल मई में मध्य प्रदेश में एसटी के लिए आरक्षित 47 सीटों सहित कुल 80 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की थी। पिछली बार उन्होंने कांग्रेस के साथ समझौता किया था और उसी की टिकट पर हीरालाल विधायक चुने गए थे। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि इन छोटे दलों की खींचतान की वजह से भाजपा या कांग्रेस किसी को भीनुकसान  हो सकता है।  इन छोटे दलों का वोट प्रतिशत लोकसभा चुनाव में  देखें तो एक बड़ा अंतर् दिखाई देता है लेकिन वही मत प्रतिशत विधानसभा चुनावों के नतीजों पर  बड़ा असर डालता दिखाई देता है और किसी भी सीट पर जितने वाले प्रत्याशी का समीकरण खराब कर सकता है।

 

छत्तीसगढ़ में दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था की तुलना-

बात छत्तीसगढ़ की करें तो यहां भी कई दल दोनों राष्टीय दलों का गेम बिगाड़ने के लिए तैयार हैं,, छत्तीसगढ़ में भी मुख्य लड़ाई आदिवासी वोट बैंक और सीटों की है। राज्य की 90 सीटों में से 29 सीटें एसटी कैटगरी के लिए आरक्षित हैं, जबकि अन्य 20 सीटें पर आदिवासी मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जेसीसी) ने 2018 का विधानसभा चुनाव बसपा के साथ गठबंधन में लड़ा था और कुल 11% वोट परसेंट के साथ सात सीटें जीतीं थी। इस बीच, अनुभवी आदिवासी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम द्वारा स्थापित पार्टी (हमर राज) तेजी से अपने विस्तार कर रहा है। नेताम बस्तर क्षेत्र से आते हैं। वह बसपा और सीपीआई (एम) के साथ गठबंधन कर 50 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं। बसपा का राज्य भर में दलित वोटों के एक वर्ग पर खासा प्रभाव माना  जाता है। ये भी यहां भाजपा और कांग्रेस किसी भी पार्टी का गणित बिगाड़ सकते हैं ।

लेकिन इस बार राष्ट्रिय पार्टी का दर्जा मिलने के बाद केजरीवाल की पार्टी आप भी यहां अपना दम दिखाने जा रही है, जो कांग्रेस और बीजेपी का समीकरण बिगाड़ सकती है ,छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने 9 गारंटी दी। उन्होंने इस दौरान दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था से छत्तीसगढ़ की शिक्षा की तुलना की। आप नेता व दिल्ली के सीएम ने अपने सहयोगी कांग्रेस पार्टी की सरकार को निशाने पर लिया।अरविंद केजरीवाल और पंजाब के सीएम भगवंत मान ने शुक्रवार का छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी की सरकार बनाने की अपील की।दरअसल, कांग्रेस की छत्तीसगढ़ सरकार पर केजरीवाल ने ऐसे वक्त में ये टिप्पणी की हैस जब दोनों पार्टियों के बीच अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में दिल्ली में कौन कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा इसको लेकर बहस छिड़ी हैं। केजरीवाल के यहां चुनाव लड़ने का असर कांग्रेस पर ज्यादा पड़ने के आसार लग रहे हैं,अगर आप यहां थोड़े वोट काटने में कामयाब हुई तो किसी भी पार्टी का समीकरण बिगड़ सकता है।

 

छोटे दलों को मिल सकता है फायदा-

राजस्थान में भी तीन छोटे दल सत्ताधारी कांग्रेस और मुख्य विपक्षी भाजपा के लिए चुनौती बने हुए हैं। इनमें राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) की स्थापना पूर्व भाजपा नेता और नागौर से सांसद हनुमान बेनीवाल ने की है। वह तीन कृषि कानूनों का विरोध करते हुए एनडीए से बाहर हो गए थे। उनका जाटों के बीच प्रभाव है। इसके अलावा, जयंत चौधरी के नेतृत्व वाली आरएलडी भी एक सियासी खिलाड़ी है जिसने पिछली बार एक विधानसभा सीट जीती थी। आरएलडी का यूपी से सटी सीमा खासकर भरतपुर, धौलपुर और अलवर के इलाकों में जाट वोटरों पर अच्छी पकड़ मानी जाती है। इनके अलावा मायावती की बसपा भी राजस्थान में दोनों बड़े दलों के लिए सियासी शत्रु है। 2018 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने कुल चार फीसदी वोट बैंक पर कब्जा जमाते हुए छह सीटें जीती थीं। हालांकि बाद में बसपा के विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए थे।ये छोटे दल हलाकि ज्यादा सीट तो नहीं जीत पाती है लेकिन ये कई सीट पर इतना प्रभाव रखती है कि इनको मिलने वाला वोट प्रतिशत किसी भी दल के प्रत्याशी की जीत को हार में बदल सकता है,,,जिस तरह से भाजपा और कांग्रेस में यहां अंदरूनी जंग छिड़ी है उसका थोड़ा फायदा भी छोटे दलों को मिल सकता है।

 

2024 की राह कितनी आसान-

राजस्थान में जातिगत समीकरणों का भी बड़ा असर रहता है,चुनाव नजदीक आने के साथ जातीय गणित को लेकर भी पार्टियां मंथन में जुटी है। लेकिन राजस्थान की बात करें तो यहां वर्षों से जातिगत समीकरण कई पार्टियों के लिए चौंकाने वाले रहे हैं। पूर्वी बेल्ट राजस्थान का महत्वपूर्ण क्षेत्र है जो मीणा और गुर्जर वोटों के प्रभुत्व के लिए जाना जाता है, जबकि शेखावाटी और मारवाड़ बेल्ट महत्वपूर्ण जाट वोटों के लिए जाना जाता है। मीणाओं ने 2018 में अपने समुदाय के सबसे बड़े नेता किरोड़ी लाल मीणा को खारिज कर सबको चौंका दिया था। जाटों में हनुमान बेनीवाल ने रिकॉर्ड अंतर से जीत हासिल की, क्योंकि उन्होंने खुद को जाट नेता के रूप में प्रचारित किया। ऐसे उदाहरणों से समझा जा सकता है कि राजस्थान में पार्टियों के लिए जातीय समीकरणों का अनुमान लगाना कितना कठिन है।

इन राज्यों में सत्ता किसके पास जाएगी यह अभी स्‍पष्‍ट नहीं है लेकिन अलग-अलग सर्वे में कहीं भारतीय जनता पार्टी, कहीं कांग्रेस तो कहीं किसी भी दल को भी स्पष्ट बहुमत मिलता दिखाई नहीं दे रहा है।ऐसे में ये छोटे दल किंग मेकर की भूमिका में आ सकते हैं,जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा की गई है, उनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना शामिल हैं. राजस्थान, मध्य प्रदेश, मिजोरम और तेलंगाना में एक चरण में चुनाव होंगे, जबकि छत्तीसगढ़ में दो चरणों में चुनाव होंगे. सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए 11 दिसंबर को मतगणना होगी और इसी दिन नतीजे आएंगे ,इसी दिन साफ़ हो जायेगा कि 2024 की राह किसकी आसान होगी और किसकी मुश्किलों में इजाफा होगा।

INDIA गठबंधन में जाने को तैयार मोदी के सहयोगी दल…

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2024 के लिए राजनीतिक मैदान सज रहा है NDA VS INDIA में कौन बाजी मारेगा,अभी ये कहना मुश्किल है,लेकिन जिस तरह सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने 38 दल अपने साथ जोड़े है उसको देख भले वो आज खुश दिखाई दें लेकिन अंदर ही अंदर एक सबसे बड़ी चिंता उनको 24 तक साथ रखने की भी है,इतने दलों को साथ लाने का मतलब ये तो साफ़ है कि भाजपा 2024 में एकतरफा मुकाबला मानकर तो नहीं चल रही है,, क्योकि जिस तरह इंडिया गठबंधन खेमे में महाजुटान हुआ है उससे कहीं न कहीं मोदी सरकार चिंतित प्रतीत होती है,और यही कारण है कि भाजपा लगातार अपने साथी कुनबे को बढ़ाने में लगी है,लेकिन इतने दलों को साथ रख पाने के लिए भाजपा को कई समझौते भी करने पड़ेंगे,मगर,,, क्या प्रचंड बहुमत की मोदी सरकार ऐसा कर पायेगी ? आज के वीडियो में बात भाजपा की आने वाले दिनों की उस सबसे बड़ी चिंता की और उन दलों की जो मोदी के साथ हैं,, साथ ही विपक्षी खेमें में कांग्रेस की परेशानी और विपक्षी एकता की बात भी… विस्तार से समझने के लिए इस वीडियो को अंत तक देखिए…अगर सर चक्कराना जाए तो कहना.

PM के नेतृत्व में 38 दल- 

एनडीए आज अपनी बढ़ी हुई ताकत दिखा रहा है. गौर कीजिए जहां अटल बिहारी वाजपेयी के समय एनडीए में 24 दल हुआ करते थे, वहीं आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए में 38 दल शामिल हुए हैं. आने वाले समय में यह संख्या और बढ़ सकती है, लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी के लिए इन सहयोगी दलों में सीटों का बंटवारा करना इतना आसान भी नहीं होगा. खासतौर से बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में.. जहां पर यूपी को छोड़ दें तो सीटों की संख्या अधिक है.

 
 
सबसे पहले बात बिहार की- 

 

सबसे पहले बात बिहार की जहां से विपक्षी गठबंधन इंडिया की शुरुआत हुई,,, 2019 में बीजेपी ने जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था. समझौते के तहत बीजेपी और जेडीयू ने 17-17 और लोक जनशक्ति पार्टी ने 6 सीटों पर चुनाव लड़ा. लोक जनशक्ति पार्टी को एक राज्य सभा सीट भी एनडीए की तरफ से दी गई थी, जिससे रामविलास पासवान संसद में पहुंचे थे. तब एनडीए ने राज्य की 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी. इनमें बीजेपी ने 17, जेडीयू ने 16 और एलजेपी ने 6 सीटों पर जीत हासिल की थी. ऐसा माना जाता है कि बाद में जेडीयू के दबाव में लोक जनशक्ति पार्टी में विभाजन हुआ और चिराग पासवान अलग कर दिए गए. अब बीजेपी चाहती है कि पशुपति पारस और चिराग पासवान अपनी विभाजित पार्टियों का विलय कर दें, लेकिन पशुपति इसके लिए तैयार नहीं. उधर चिराग चाहते हैं कि 2019 के फार्मूले के तहत उनकी पार्टी को छह लोक सभा सीटें और एक राज्य सभा सीट दी जाए. इस विवाद को सुलझाना बीजेपी के लिए यकीनन बड़ी चुनौती होगी. उधर, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी भी चाहेंगे कि उनकी पार्टियों को अधिक संख्या में लोकसभा सीटें दी जाएं, जबकि बीजेपी चाहेगी कि इस बार वह पिछली बार से अधिक संख्या पर सीटों पर चुनाव लड़े क्योंकि जेडीयू उसके साथ अब नहीं है.

 
 
 
BJP के ये बड़ी चुनौती- 
 

अब बात दूसरे राज्य महाराष्ट्र की,,जहां यूपी के बाद सबसे अधिक लोकसभा सीट है पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी, शिवसेना गठबंधन था. राज्य की 48 में से 25 पर बीजेपी ने और 23 पर शिवसेना ने चुनाव लड़ा था. बीजेपी ने 23 और शिवसेना ने 18 सीटों पर जीत हासिल की थी. अब शिवसेना के बीच विभाजन होने के बाद भाजपा के गुट में आए. एकनाथ शिंदे का गुट उन सभी 18 सीटों पर दावेदारी कर रहा है, जो 2019 में शिवसेना ने लड़ी थीं. इस बीच, एनसीपी में भी विभाजन हुआ. और अजीत पवार का गुट बीजेपी के साथ है. लिहाजा अजित पवार भी उम्मीद पाले हुए हैं की वो एनसीपी कोटे की सभी सीटों पर चुनाव लड़े…याद रहे की 2019 में एनसीपी ने चार सीटें जीती थीं. बीजेपी के सामने इन 48 सीटों के बंटवारे की भी चुनौती रहेगी.

 
अब बात यूपी की-
 

वो राज्य जिसने मोदी को देश की सत्ता सौंपने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई अब बात उस राज्य यूपी की करना बेहद जरुरी है क्योकि सत्ता की चाभी यूपी से ही होकर निकलती है… 2019 में बीजेपी ने अपना दल के साथ मिल कर लोक सभा चुनाव लड़ा था. तब अपना दल को दो सीटें दी गई थीं जो उसने जीत ली थी. इस बार ओमप्रकाश राजभर और निषाद पार्टी भी बीजेपी के साथ है. बीजेपी को सीट बंटवारे में भी उन्हें भी साथ रखना होगा. गाजीपुर लोक सभा सीट पर उपचुनाव में राजभर के बेटे खड़े हो सकते हैं. इसके अलावा जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल से भी बीजेपी की बातचीत चल रही है. ऐसा राजनीतिक जानकारों का मानना भी है… भाजपा चाहती है कि आरएलडी का बीजेपी में विलय हो जाए जिसके लिए जयंत तैयार नहीं. अगर भविष्य में आरएलडी साथ आए तो बीजेपी को उसे भी सीटें देनी होगी…यानी बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश का सीटों को लेकर बंटवारा मुश्किल तो पैदा जरुर करेगा.

 
 
यहाँ से चुनाव लड़ सकते हैं पीएम मोदी-

 

 

तमिलनाडु में  बीजेपी और AIADMK के बीच 2024 चुनाव मिलकर लड़ने पर सहमति है. कुछ अन्य सहयोगी दल भी साथ लड़ेंगे. 2019 में भी इन दलों ने मिल कर चुनाव लड़ा था. राज्य की 39 लोकसभा सीटों में  AIADMK ने 20, PMK  ने 7, बीजेपी ने 5, DMDK ने 4, पीटी ने 1, तामिल मनीला कांग्रेस एक और PNK ने 1 सीट पर चुनाव लड़ा था.. इस बार कुछ नई पार्टियां भी साथ आईं हैं और बीजेपी तमिलनाडु पर खासतौर से ध्यान दे रही है. पीएम मोदी के भी यहां से लोकसभा चुनाव लड़ने की चर्चा है.. इसका इशारा कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में भी दिखाई देता है,, जहां वो साउथ को दिल्ली के करीब और दिल्ली के दिल में बसे होने की बात करते हुए भी दिखाई देते हैं.. ऐसे में सीटों के बंटवारे पर सबकी नजरें रहेंगी.

 
हरियाणा में भी यही हाल-
 

हरियाणा में बीजेपी और दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी राज्य में मिल कर सरकार चला रहे हैं, लेकिन बीजेपी साफ कर चुकी है कि वह सभी दस लोक सभा सीटों पर अकेले ही चुनाव लड़ेगी और जेजीपी के साथ समझौता नहीं होगा. अटकल यह भी है कि लोक सभा चुनाव से पहले बीजेपी और जेजीपी का गठबंधन टूट जाए और दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ें.

दोनों पार्टियों की  चुनाव लड़ने की संभावना-

झारखण्ड में भी बीजेपी ने 2019 में पहली बार आजसू के साथ लोक सभा चुनाव गठबंधन में लड़ा था. राज्य की 14 में से 11 सीटें बीजेपी और एक सीट आजसू ने जीती थी. इस बार भी दोनों पार्टियों के मिल कर चुनाव लड़ने की संभावना है. 2019 में असम में  बीजेपी ने एजीपी और बीपीएफ के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था. बीजेपी ने राज्य की 14 में से 10 सीटों पर चुनाव लड़ा, जबकि एजीपी को 3 और बीपीएफ को एक सीट दी गई थी. तब बीजेपी ने 10 में से नौ सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि एजीपी और बीपीएफ कोई सीट नहीं जीत सके थे. बदली परिस्थितियों में बीजेपी अधिक सीटों पर लड़ना चाहेगी. अन्य राज्यों जैसे केरल और पूर्वोत्तर में सहयोगी दलों की जमीनी ताकत इतनी अधिक नहीं कि वे लोकसभा चुनाव में बीजेपी से मोल-भाव कर सकें. इसलिए बीजेपी को वहां अपनी शर्तों के हिसाब से चुनाव लड़ने में कोई भी परेशानी नहीं आएगी.
भाजपा को इन राज्यों में लग सकता है झटका-

कुल मिलाकर बीजेपी 38 दलों को साथ लेकर तो चल रही है,लेकिन इन सब के साथ टिकट बंटवारा कितना आसान होगा ये आने वाला समय बताएगा, राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अगर टिकट बंटवारे में सहयोगी दलों को भाजपा संतुष्ट नहीं कर पाई तो कई दल ऍन चुनाव के वक्त पर भाजपा का साथ छोड़ कर इंडिया गठबंधन या अकेले चुनाव मैदान में उतर सकते हैं.. जिससे भाजपा की कई राज्यों में न केवल मुश्किलें बढ़ेंगी बल्कि 2024 की जीत का सपना देख रही भाजपा को इन राज्यों में झटका भी लग सकता है,,
क्या ममता लेफ्ट के साथ चुनाव लड़ पाएंगी? 

ऐसा नहीं है कि ऐसी परेशानी विपक्षी दलों की एकता में नहीं हो सकती है,, आज की कांग्रेस इस स्थिति में नहीं है कि ज्यादा मोल भाव कर सकती है. हालांकि कर्नाटक और हिमाचल जीत से कांग्रेस का दावा गठबंधन में मजबूत जरूर हुआ है. लेकिन कई राज्यों में कांग्रेस की सीटों को लेकर सहयोगी दलों के साथ कॉम्प्रोमाईज़ करना पड़ेगा,जैसे बंगाल,बिहार,महाराष्ट्र,और यूपी. ऐसे में परेशानी विपक्षी खेमे में भी आ सकती है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को TMC प्रमुख और ममता बनर्जी को सबसे ज्यादा सीट देनी पड़ेगी, साथ ही लेफ्ट भी गठबंधन का साथी है तो उनकी बात भी रखनी पड़ेगी,यहां कांग्रेस की स्थिति ये नहीं है कि वो इनसे मोल भाव कर सके खासतौर पर ममता से,, एक सवाल और भी खड़ा होता है,,, क्या ममता लेफ्ट के साथ चुनाव लड़ पाएंगी ? ऐसी ही स्थिति बिहार में भी देखने को मिल सकती है,जहां एक तरफ नीतीश कुमार होंगे और दूसरी तरफ तेजस्वी यादव,,यहां भी कांग्रेस को समझौता करना पड़ेगा,, दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी सत्ता में होने के कारण सबसे अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना चाहेगी,, ऐसा ही कांग्रेस के साथ महाराष्ट्र में भी परेशानी सामने आएगी,जहां उद्धव  और शरद पवार जैसे नेता गठबंधन के साथी हैं, ऐसे में कांग्रेस कितनी जगह कितना समझौता करेगी INDIA गठबंधन की एकता इस पर काफी हद तक निर्भर करेगी.


ऐसे हालात कई राज्यों में-
कुल मिलाकर कमोबेश ऐसे हालात कई राज्यों में भाजपा और कांग्रेस जैसे मुख्य दलों के सामने आने वाले हैं. बहरहाल पक्ष और विपक्ष की एकता मुख्य रूप से टिकट बंटवारे पर निर्भर करेगी, और यहीं से 2024 की दिशा भी तय होगी, जो भी इस फॉर्मूले को सही ढंग से साध लेगा उसको 2024 में निश्चित रूप से फायदा मिलेगा? यानी सत्ता पर काबिज होने का मौका मिलेगा.