मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले नेताओं की बयानबाजी से सियासी पारा चढ़ता जा रहा है। अब जैसे ही शिवराज को MP से किनारे लगाया गया, शिवराज ने अब सीधे मोदी को ही चुनौती दे डाली है. मध्य प्रदेश में चुनावी कार्यक्रम के एलान से पहले ही सरगर्मियां बढ़नी शुरू हो गयी हैं. भाजपा ने इस बार शिवराज को किनारे कर सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम पर ही विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है, इस बार बड़े-बड़े मंत्रियों को भी चुनावी मैदान में उतारा गया है, लेकिन सीएम शिवराज की दावेदारी को लेकर सस्पेंस अभी बरकरार है. कहा जा रहा है कि इस बार पीएम मोदी ने शिवराज से पूरी तरह किनारा कर दिया है.
क्या कहा कमलनाथ और पूर्व CM ने-
पूर्व सीएम और पीसीसी चीफ कमलनाथ ने सोशल मीडिया पर लिखा कि मध्य प्रदेश भाजपा में हताशा चरम पर है। पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम लेना बंद कर दिया और उन्हें मुख्यमंत्री की दौड़ से बाहर कर दिया। इसके जवाब में प्रधानमंत्री पर दबाव बनाने के लिए पहले तो मुख्यमंत्री ने जनता के बीच यह पूछना शुरू किया कि मैं चुनाव लड़ूं या नहीं लड़ूं (Should I contest elections or not?) और अब सीधे पूछ रहे हैं कि मोदी जी को प्रधानमंत्री होना चाहिए या नहीं.
आखिर ऐसा क्यों कहा CM शिवराज ने-
भारतीय जनता पार्टी की तरफ से जो संकेत मिल रहे हैं वो शिवराज के लिए शुभ नहीं माने जा रहे हैं, खुद शिवराज सिंह चौहान को भी अपनी विदाई दिखाई दे रही है इसलिए कैबिनेट बैठक सहित सभाओं में वो भावुक नजर आ रहे हैं शिवराज ने कैबिनेट में सभी मंत्रियों सहित अधिकारियों को धन्यवाद किया था. वहीं 1 अक्टूबर को एक कार्यक्रम में उन्होने कहा था कि ऐसा भैया आपको दोबारा नहीं मिलेगा, जब जाऊंगा तो बहुत याद आऊंगा, अभी एक दो दिन पहले उन्होंने अपने चुनावी क्षेत्र बुधनि में लोगों से पूछा था कि चुनाव लड़ूँ या नहीं, यहां से लड़ूँ या कहीं और से.
इस तरह के संकेत वो कई बार दे चुके हैं, जिस पर कांग्रेस कह रही है कि मामा जी अपनी विदाई के संकेत खुद दे रहे हैं और अब उनकी विदाई तय है,, इसलिए चुनाव से पहले शिवराज खूब घोषणाएं कर रहे हैं. लाड़ली बहन योजना भी चला रहे हैं, लेकिन मोदी ने उनको चुनाव से पूरी तरह साइडलाइन कर दिया है.
मोदी जी को पीएम बनना चाहिए– शिवराज
कांग्रेस के मीडिया सलाहकार पीयूष बबेले ने एक वीडियो शेयर करते हुए लिखा है कि पीएम मोदी ने शिवराज जी का पत्ता काटा तो वो सीधे मोदी जी को ही चुनौती देने लग गए हैं और पूछ रहे हैं कि मोदी जी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए कि नहीं ? शिवराज जी ईंट का जवाब पत्थर से दे रहे हैं,, तो कांग्रेस का कहना है कि शिवराज जी मोदी के खिलाफ बिगुल फूंक चुके हैं और सीधे लोगों से ही पूछ रहे हैं कि मोदी जी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए कि नहीं.
अब बताइये वहां मुख़्यमंत्री का चुनाव होना है तो शिवराज प्रधानमंत्री बनने को लेकर ऐसा वक्तव्य या विचार अपने मन में क्यों लाएंगे, क्योकि ये बोलने का तो शिवराज का कोई मतलब नहीं बनता की मोदी जी पीएम बनेगें या नहीं. इतना ही नहीं शिवराज ये भी कह रहे हैं कि जो हमारा साथ देगा हम भी उसी का साथ देंगे, जो नहीं देगा हम भी उसका साथ नहीं देंगे.
मैं चुनाव लड़ूं या नहीं लड़ूं- शिवराज
कांग्रेस के पूर्व मुख़्यमंत्री कमलनाथ ने लिखा कि मध्य प्रदेश भाजपा में हताशा अपने चरम पर है। पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम लेना बंद कर दिया और उन्हें मुख्यमंत्री की दौड़ से बाहर कर दिया। इसके जवाब में प्रधानमंत्री पर दबाव बनाने के लिए पहले तो मुख्यमंत्री ने जनता के बीच यह पूछना शुरू किया कि मैं चुनाव लड़ूं या नहीं लड़ूं और अब सीधे पूछ रहे हैं कि मोदी जी को प्रधानमंत्री होना चाहिए या नहीं। नाथ ने कहा कि पीएम और सीएम की जंग में भाजपा में जंग होना तय है। जिन्हें टिकट मिला वह लड़ने को तैयार नहीं हैं, और जो टिकट की रेस से बाहर हैं, वह सबसे लड़ते फिर रहे हैं.
3 अक्टूबर को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बुदनी में पूछा कि मैं चुनाव लड़ूं या नहीं? यहां से लड़ू या नहीं? 4 अक्टूबर को उन्होंने बुरहानपुर में कहा कि मैं देखने में दुबला पतला हूं, पर लड़ने में तेज हूं,, इससे पहले सीहोर में कहा था कि मैं चला जाऊंगा तो बहुत याद आऊंगा. शुक्रवार को डिंडोरी में जनता से पूछा कि सरकार कैसी चल रही है, सीएम बनूं या नहीं?
शिवराज की इस तरह की बयानबाजी से राजनीतिक माहौल गरमा गया है अब अगर बीजेपी सत्ता में आयी तो शिवराज सीएम बनेंगे या नहीं, शिवराज चुनाव लड़ेंगे या नहीं, इस पर संशय बना हुआ है क्योकि इससे पहले जब गृह मंत्री अमित शाह ने शिवराज सरकार का रिपोर्ट कार्ड पेश किया था तो पत्रकारों के सवाल पर गृह मंत्री ने कहा था कि अभी शिवराज मुख्यमंत्री हैं और इसके बाद होंगें या नहीं इस पर पार्टी फैसला लेगी,, इस जवाब के बाद से ही कई कयास शिवराज के भविष्य को लेकर लगने शुरू हो गए थे, इसके बाद पार्टी ने कई दिग्गज नेताओं को यहां से टिकट दिया जिसमे कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि उनको तो उम्मीद ही नहीं थी कि पार्टी उनको चुनाव लड़ाएगी. इतना ही नहीं कैलाश विजयवर्गीय ये भी कह चुके हैं कि वो सिर्फ विधायक बनने नहीं आये हैं, पार्टी उनको बड़ी जवाबदेही देगी, उनके जवाब के बाद ये कयास लगने लगे कि क्या बीजेपी ने शिवराज की विदाई तय कर ली है, जिस बड़ी जवाबदेही की बात विजयवर्गीय कर रहे हैं वो क्या MP की कुर्सी को लेकर उनका इशारा है ? इस जवाब के बाद से ही कई कयास शिवराज के भविष्य को लेकर लगने शुरू हो गए हैं.
ED और CBI देश के अलग अलग राज्यों में ताबड़तोड़ कारवाही कर रही है, सांसद से लेकर पत्रकारों को अलग-अलग मामलों में उठाया जा रहा है, इस कारवाही का देश में कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं, इस सब के बीच आप सांसद संजय सिंह की गिरफ्तारी पर भी खूब बबाल हो रहा है, सरकार पर इसको लेकर गंभीर आरोप लग रहे हैं और इसको बदले की कारवाही बताया जा रहा है. इस सब के बीच दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के मामले में सुनवाई करते हुए कोर्ट ने ED और CBI की कारवाही पर कई सवाल उठाए हैं.
कोर्ट के सवालों का कोई संतुष्ट जवाब जांच एजेंसियां नहीं दे पाई. इतना ही नहीं कोर्ट ने इस पूरी कारवाही पर ही सवाल उठा दिए. कोर्ट ने सुनवाई के दौरान ED को आड़े हाथों लिया, मामले की सुनवाई के दौरान बेंच ने जांच एजेंसी से तीखे सवाल पूछे और सीबीआई के इस केस को बेहद कमजोर बताया।
कोर्ट ने ED और CBI से पूछे सवाल-
दिल्ली शराब घोटाला मामले में ईडी द्वारा दर्ज केस में मनीष सिसोदिया की जमानत याचिका पर गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में पांच घंटे से भी ज्यादा सुनवाई हुई। इस दौरान जहां ईडी ने मनीष सिसोदिया की जमानत का विरोध किया, वहीं जस्टिस खन्ना की बेंच ने ईडी से उसके द्वारा पेश तथ्यों के आधार पर यह पूछा, वो सबूत कहां है जो बताए कि सिसोदिया मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपी हैं।अदालत ने ईडी से पूछा, प्रूफ कहां हैं? प्रमाण कहां हैं? आपको पूरी घटनी की श्रृंखला पेश करनी होगी? अपराध हुआ तो उसकी कमाई कहां है? सुप्रीम कोर्ट ने ED से पूछा कि अगर मनी ट्रेल में मनीष सिसोदिया की भूमिका नहीं है, तो मनी लांड्रिंग में सिसोदिया को आरोपी बनाकर कैसे शामिल किया और क्यों?
सिसोदिया की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने रिमार्क दिया कि सिसोदिया इस मामले में संलग्न मालूम नहीं पड़ते। अदालत ने ईडी से ये भी पूछा कि वो कैसे मनी लॉन्ड्रिंग केस में आरोपी बनाए गए हैं? सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘मनीष सिसोदिया इस केस में सम्मिलित नहीं दिखते। विजय नायर जरूर है लेकिन मनीष सिसोदिया नहीं। आपने कैसे उन्हें मनी लॉन्ड्रिंग का आरोपी बनाया। उन्हें तो पैसे मिल नही रहे। ‘यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने ईडी से कई तरह से सवाल कर यह जानना चाहा कि जब कमाई सिसोदिया तक नहीं पहुंची तो उन्हें आरोपी कैसे बनाया है?
12 अक्टूबर को होगी अगली सुनवाई-
इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने ED पर कई सवाल उठाए. कोर्ट ने ED के सरकारी गवाहों की गवाई पर भी सवाल उठाये जस्टिस संजीव खन्ना ने पूछा कि सरकारी गवाह के बयान पर कैसे भरोसा करेंगे? सुप्रीम कोर्ट ने ED से कहा कि आपकी दलील तो एक अनुमान है, जबकि ये सब कुछ सबूतों पर आधारित होना चाहिए. वरना अदालत में होने पर यह केस दो मिनट में ही गिर जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने CBI-ED से पूछा कि सबूत कहां हैं? अप्रूवर के बयान के अलावा, क्या कोई अन्य सबूत है? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शराब नीति में बदलाव हुआ है, व्यापार के लिए अच्छी नीतियों का हर कोई समर्थन करेगा. नीति में बदलाव गलत होने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि अगर नीति गलत भी है और उसमें पैसा शामिल नहीं है, तो यह अपराध नहीं है. पैसे वाला हिस्सा ही अपराध बनाता है.
सुप्रीम कोर्ट ने जांच पर सवाल उठाते हुए ईडी से पूछा कि क्या आपके पास यह दिखाने के लिए कोई डाटा है कि पॉलिसी कॉपी की गई थी, और शेयर की गई थी? अगर प्रिंट आउट लिया गया था तो डाटा उसे दिखाएगा. इस आशय का कोई डाटा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ अप्रूवर के बयानों के आधार पर कहा जा रहा है कि रिश्वत दी गई थी. आपके मामले के अनुसार मनीष सिसोदिया के पास कोई पैसा नहीं आया.
कोर्ट में ED की दलील-
ED की तरफ से दलील दी गयी कि सिसोदिया ने सीधे तौर पर पैसे का इस्तेमाल नहीं किया बल्कि इसे अप्रत्यक्ष रूप से संभाला क्योंकि पैसा उनकी पार्टी को जाता था। इसका इस्तेमाल चुनाव में किया जाता था। पीठ ने यह भी कहा कि शराब नीति में बदलाव की पैरवी करने वाले लोगों की केवल भागीदारी ही पर्याप्त नहीं थी। सीबीआई और ईडी को यह साबित करना था कि इसे अपराध बनाने के लिए इसमें रिश्वत शामिल थी। कोर्ट ने कई सवाल उठाते हुए कहा कि आरोपी का अपराध में सक्रिय रूप से शामिल होना जरूरी है। सीबीआई की चार्जशीट में है कि 100 करोड़ दिए गए। ED ने 33 करोड़ बताया है। शराब लॉबी से आरोपी तक पैसे किस तरह, किस रूट से पहुंचे, इस पूरी चेन को साबित करना जरूरी है। आपका केस आरोपी दिनेश अरोड़ा के बयानों के इर्द-गिर्द है। वह सरकारी गवाह बन गया। जांच एजेंसी सिर्फ सरकारी गवाह के बयान पर कैसे भरोसा कर सकती है? आपके पास दिनेश अरोड़ा के बयानों के अलावा शायद ही कुछ है।
कोर्ट का अहम सवाल-
ED और CBI के लिए पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने इस पर कहा कि सबूत होंगे तो किसी को बख्शा नहीं जाएगा. इस दौरान जजों ने कुछ सख्त सवाल भी किए. जस्टिस खन्ना ने पूछा कि पूरे मामले में पैसों के लेन-देन के क्या सबूत हैं?
जज ने कहा, “हो सकता है कि आबकारी नीति में बदलाव से कुछ लोगों को फायदा पहुंचा हो. यह भी संभव है कि उन्होंने नीति में बदलाव के लिए दबाव बनाया हो, लेकिन सिर्फ इससे भ्रष्टाचार साबित नहीं होता.”
ED का जवाब-
एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने कहा, “विजय नायर के व्हाट्सएप चैट समेत कई इलेक्ट्रॉनिक सबूत पैसों के आदान-प्रदान की तरफ इशारा करते हैं. जांच में कई और तथ्य मिले हैं, जो साफ तौर पर भ्रष्टाचार को दिखाते हैं. शराब के थोक व्यापारियों को फायदा पहुंचाने के लिए एक्साइज ड्यूटी को 5 से बढ़ा कर 12 फीसदी किया गया. फिर थोक व्यापार में कुछ लोगों को एकाधिकार दे दिया गया.”
एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने आगे कहा, “इससे राजस्व को नुकसान हुआ. गलत तरीके से अर्जित मुनाफे का बड़ा हिस्सा इन व्यापारियों ने अलग-अलग जगहों तक पहुंचाया. पैसों के लेन-देन से जुड़ी सारी बातचीत सिग्नल नाम के ऐप के जरिए की गई, ताकि उसे गुप्त रखा जा सके.”
26 फरवरी को हुई थी सिसोदिया की गिरफ्तारी-
आपको बता दें कि दिल्ली सरकार में डिप्टी सीएम रहे सिसोदिया के पास आबकारी विभाग भी था और उन्हें केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने 26 फरवरी को घोटाले में उनकी कथित भूमिका के लिए गिरफ्तार किया था और उस वक्त से वह अब तक हिरासत में हैं। ईडी ने तिहाड़ जेल में उनसे पूछताछ के बाद 9 मार्च को सीबीआई की प्राथमिकी से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। सिसोदिया ने 28 फरवरी को दिल्ली कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था।
हाई कोर्ट ने 30 मई को सीबीआई मामले में उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया था और कहा था कि उपमुख्यमंत्री और आबकारी मंत्री होने के नाते, वह एक हाई-प्रोफाइल व्यक्ति हैं जो गवाहों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। तीन जुलाई को, उच्च न्यायालय ने शहर सरकार की आबकारी नीति में कथित अनियमितताओं से जुड़े धन शोधन मामले में उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया था। सिसोदिया की जमानत याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।
नीतीश कुमार की सरकार ने जिस तरह जातिगत गणना के आंकड़े पेश किये उसे कई लोग मास्टर स्ट्रोक बता रहे हैं और 2024 की लड़ाई से पहले बीजेपी को होता ये बड़ा नुकसान माना जा रहा है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस गणना के सामने आने के बाद बीजेपी का हिंदुत्व का मुद्दा हाशिए पर चला जायेगा और 2024 की लड़ाई जातीय आधार पर लड़ी जाएगी,, तो क्या सच में इस गणना के बाद भाजपा को नुकसान और इंडिया गठबंधन को फायदा होगा ?
क्या कहते हैं जातिगत आंकड़े-
बिहार में जातिगत सर्वे के आंकड़े सामने आने के बाद पूरे देश में इसको लेकर बहस जारी है. जहां एक ओर राजनीतिक उठापटक देखने को मिल रही है वहीं आने वाले चुनावों में भी इसका खासा असर देखा जा सकता है. गांधी जयंती पर जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछड़ा वर्ग 27.12%, अति पिछड़ा वर्ग 36.12%, मुसलमान 17.52%, अनुसूचित जाति 19% और अनुसूचित जनजाति 1.68% हैं. इस संख्या के आधार पर ये अनुमान लगाया जा रहा है कि आंकड़ों के सामने आने के बाद पिछड़ों की राजनीति करने वाले नेताओं को तो आने वाले चुनाव में फायदा मिल ही सकता है लेकिन दूसरी पार्टियों को इसका नुकसान भी उठाना पड़ सकता है. साथ ही इस सर्वे के जारी होने के बाद देश की राजनीति ‘धर्म बनाम राजनीति’ के दो धड़ों में विभाजित हो गई है. साथ ही राजनीतिक आकलन करने वाले आम लोग ये अंदाजा लगाने में जुट गए हैं कि इन आंकड़ों के सामने आने के बाद इसका चुनावी फायदा किसे मिलने वाला है, इंडिया गठबंधन को या एनडीए को.
1990 के बाद बिहार में दलित-पिछड़ों की ही सरकार-
बिहार में आरक्षण और जाति का सवाल बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा रहा है. यह इस बात से समझा जा सकता है कि साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कैसे RSS प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा किए जाने के एक बयान पर पूरी चुनावी फिजा ही बदल गई थी. बिहार में 1990 के बाद से लगातार दलित-पिछड़ों की ही सरकार बनती आ रही है. बीच-बीच में बीजेपी भी सत्ता में आई लेकिन वो भी जनता दल यूनाइटेड के गठबंधन के साथ. आज भी बिहार में अकेले अपने दम पर बीजेपी के सत्ता में आने की उम्मीदें कम ही दिखती हैं. कांग्रेस के कमजोर पड़ते ही सवर्ण और वैश्य वोटर बीजेपी के साथ चला गया, जिसे इस पार्टी का कोर वोटर कहा जाता है. ओबीसी जातियों को भी बीजेपी तोड़ने में सफल रही. बीजेपी ने इन वोटर्स में सेंधमारी के लिए उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश साहनी, चिराग पासवान, नित्यानंद राय, रामकृपाल यादव, जीतन राम मांझी जैसे दलित-पिछड़ी जाति के नेताओं को अपनी पार्टी से जोड़ा. हालांकि पिछले चुनाव के मुकाबले अब माहौल बदल गया है.
बिहार में जातीय सर्वे को अगड़ा बनाम पिछड़ा के बीच एक सियासी जंग के रूप में भी देखा जा रहा है. हालांकि ये सियासी जंग पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के बीच भी हो सकती है. पिछले कुछ समय में बिहार में पिछड़ा वर्ग की अगुवाई में यादव पिछड़ों के नेता बनकर उभरे हैं. आरजेडी का राजनीतिक आधार यादव-मुस्लिम समीकरण रहा है. शुरूआती दौर में ‘अत्यंत पिछड़ी जातियां’ और दलित समुदाय मजबूती के साथ लालू यादव के साथ जुड़ा था, लेकिन इनमें से बहुत सारी जातियां खिसक कर बीजेपी के साथ चली गईं. इसका एक बहुत बड़ा कारण यादव जाति के लोगों का दलित-पिछड़ी जातियों पर बढ़ता जातीय वर्चस्व रहा है. ‘लव-कुश’ यानी कुर्मी-कुशवाहा पर नीतीश कुमार का दावा मजबूत रहा है, लेकिन पिछले चुनाव में धर्म की राजनीति करने वाली बीजेपी का इस समाज ने साथ दिया. हालांकि अब जब अति पिछड़ा वर्ग बिहार में ज्यादा है ऐसे में यदि ईसीटी गोलबंद होता है तो सवर्ण, ओबीसी वोट बैंक को साधने वाली पार्टियों को नुकसान हो सकता है.
209 जातियों का आंकड़ा हुआ जारी-
बिहार में पिछड़ों की राजनीति करने वाली सरकार ने बिहार की कुल 209 जातियों का डेटा जारी किया है. इससे पहले, इन जातियों के आंकड़ों का अनुमान 1931 में हुई आखिरी जाति जनगणना में किया गया था. अब उपलब्ध जाति समूहों के नए आंकड़ों के साथ, राजनीतिक दलों से उन समुदायों को लुभाने और उन्हें साधने के अपने प्रयासों को और तेज करने की उम्मीद है जो उनका बड़ा वोट बैंक बन सकते हैं. राजनीतिक विश्लेषक नवल किशोर चौधरी ने द वायर से हुई बातचीत में बताया कि, ”जाति जनगणना इसलिए कराई गई है ताकि पिछड़ी जातियों को एकजुट किया जा सके. अब इन आंकड़ों के आधार पर अलग-अलग जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां आरक्षण की मांग करेंगी. जाति गणना पूरी तरह से एक राजनीतिक कदम है.”
कितनी है मुसलमानों की आबादी-
ओबीसी समूह और ईबीसी समूह की कुल जनसंख्या 63% है, जो चुनाव की दृष्टि से काफी जरूरी है. ओबीसी में भी 14.26 प्रतिशत आबादी के साथ यादव आगे हैं. वहीं, मुसलमानों की आबादी लगभग 17.70% है. कुल मिलाकर ये आंकड़ा 31 प्रतिशत सामने आता है और दोनों ही राजद के कोर वोट बैंक माने जाते हैं, इसलिए चुनावी तौर पर राजद मजबूत स्थिति में नजर आ रही है. इसके अलावा ईबीसी जातियों के वोट छोटे-छोटे राजनीतिक दलों में बिखरे हुए हैं, इसलिए राजनीतिक दल अब इन्हें गोलबंद करने की कोशिशों में भी जुट जाएंगे. पहले नाई जाति की आबादी तय नहीं थी, लेकिन जनगणना से पता चला है कि उनकी आबादी 1.56% है. इसी तरह, दुसाध, धारी और धाराही जातियों का कोई अनुमानित आंकड़ा नहीं था, लेकिन वर्तमान आंकड़ों से पता चला कि उनकी आबादी 5.31% है जबकि चमार जाति की आबादी 5.25% है. ऐसे में अब इन जातियों के आंकड़े सामने आने के बाद आगामी चुनावों में ये भी सीटों को लेकर मोलभाव कर सकते हैं.
क्यों दोधारी तलवार बन गया है बिहार में जातीय सर्वे?
इन आंकड़ों का यदि विश्लेषण किया जाए तो 36 फीसदी यानी सबसे ज्यादा आबादी अत्यंत पिछड़ों की है, जिनमें लगभग 100 से अधिक जातियां आती हैं. इनमें से बहुत सारी जातियां ऐसी हैं, जिनका न तो किसी पार्टी के संगठनों में और न विधानसभा या विधान परिषद में प्रतिनिधित्व है. सबसे ज्यादा जातीय सर्वे कराने वाली पार्टियों के लिए ही आगामी चुनाव लिटमस टेस्ट की तरह साबित हो सकता है. जिसमें आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड का टिकट बंटवारा सभी जाति और कोटी को ध्यान में रखकर करना होगा. बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं. वहीं अत्यंत पिछड़ी जातियों की संख्या 36 प्रतिशत है. 40 सीटों पर 36 फीसदी का अनुमान लगाया जाए तो वो लगभग 14 होता है. ऐसे में क्या इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में अत्यंत पिछड़ी जातियों को 14 सीटें दे पाएगा? इसी अनुसार बिहार में यादवों की जनसंख्या 14 प्रतिशत है. ऐसे में लोकसभा चुनाव में उनकी दावेदारी सिर्फ 5 या 6 सीटों की ही बनती है. वहीं ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत व कायस्थ की कुल आबादी 10.56 प्रतिशत है. ऐसे में बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर सवर्णों की दावेदारी का आंकड़ा सिर्फ चार सीटों पर सिमट जाता है, इसका साफ अर्थ ये है कि चार सवर्णों को ही लोकसभा चुनाव में टिकट मिलने की उम्मीद है.
क्या कहते हैं वरिष्ठ पत्रकार-
इस मुद्दे पर जब वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ABP न्यूज़ को बताते हैं कि, “इसके तीन साइड इफेक्ट सामने आ रहे हैं. एक तो जिस तरह से जातियों का प्रतिनिधित्व दिखाया गया है उस हिसाब से जातीय नेतृत्व उभरेगा. संभव है कि जिन जातियों से अब तक कोई नेतृत्व नहीं है उनसे नई पार्टियां भी बन जाएं. जैसे मुसलमानों की आबादी बिहार में 17 प्रतिशत है तो तमाम जातियों पर ये भारी पड़ती है ऐसे में बिहार में उसी हिसाब से मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी की मांग भी उठ सकती है.” उन्होंने आगे कहा, “क्योंकि अभी की स्थिति में देखें तो बिहार के मंत्रिमंडल में मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा है. वहीं दूसरा खतरा ये है कि इसमें उन तत्वों को भी हाथ सेंकने का मौका मिल जाएगा जो धर्म के आधार पर समाज का विभाजन करना चाहते हैं. इसमें बीजेपी सबसे आगे है.”
आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड की तुलना करते हुए ओमप्रकाश अश्क बताते हैं, “आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड की अगर तुलना करें तो दोनों में आरजेडी की ताकत ज्यादा दिखती रही है. ये अलग बात है गठजोड़ के हिसाब से स्थितियां बदलती रहती हैं.” गोलबंदी पर अश्क बताते हैं, “इससे गैरबराबरी की भावना पनपेगी, दलित और पिछड़े एक हो जाएं तो उनकी आबादी बहुत ज्यादा हो जाएगी और अति पिछड़ी जातियों की गोलबंदी भी दिख सकती है. हालांकि आम आदमी इस पर कुछ रिएक्ट नहीं कर रहा है उन्हें कुछ नफा नुकसान नहीं दिख रहा है. इसलिए लग रहा है जातीय गोलबंदी उस तरह से नहीं हो पाएगी जो पहले देखी जाती रही है, “ये एक सिर्फ सामाजिक टूल है जो आरजेडी ये बोलकर इस्तेमाल करेगी कि हमने वो करके दिखा दिया जो अब तक कोई नहीं कर पाया.”
अब इस आंकड़े के सामने आने के बाद आकलन किया जा रहा है कि देश के कई राज्यों में अति पिछड़ा वर्ग की संख्या ज्यादा है ऐसे में अब राजनेताओं की नजर उन पर ज्यादा टिक सकती है. फिलहाल नीतीश का ये वार भाजपा के हिंदुत्व का तोड़ माना जा रहा है, भाजपा के सामने सबसे बड़ी समस्या ये है कि अब वो इस आंकड़े को नकार भी नहीं सकती,, क्योकि ऐसा करने पर विपक्ष को एक बड़ा हथियार मिल जाएगा,, ये भी हकीकत है कि अब जो भी पार्टी इन जातीय समीकरणों को देखते हुए तालमेल बढ़ाने में कामयाब होगी, वो 2024 में भी कामयाब हो सकती हैं और जो पार्टी इसमें चूक गयी तो वो निपट भी सकती है,, अब ये देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में ये जातीय समीकरण किस पार्टी को फायदा और किसको नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन फिलहाल नितीश का ये वार एक मास्टर स्ट्रोक के तौर पर ही देखा जा रहा है और जिसे समूचा विपक्ष खूब बढ़ा चढ़ा कर उठा रहा है.
महाराष्ट्र की राजनीति में फिर भूचाल आने वाला है, महाराष्ट्र की राजनीति फिर करवट लेने वाली है,लेकिन इस बार किसी और की नहीं बल्कि खुद बीजेपी की मुश्किलें बढ़ गई है, हालत क्या हैं इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि आनन-फानन में दिल्ली में महाराष्ट्र को लेकर तीन घंटे तक एक गहन मीटिंग चली, इस मीटिंग में अमित शाह, देवेंद्र फडणवीस और मुख़्यमंत्री एकनाथ शिंदे मौजूद रहे, लेकिन इस बैठक से उप मुख्यमंत्री अजित पवार गायब रहे, यही नहीं अजित पवार कैबिनेट की बैठक से भी गायब रहे.
सवाल तब उठने शुरू हुए जब अजित पवार कैबिनेट बैठक से तो गायब रहे लेकिन अपने समर्थकों और नेताओं के साथ उन्होंने एक सीक्रेट मीटिंग की उसके बाद से महाराष्ट्र में सियासी बवाल मचा हुआ है,कई सवाल उठ रहे हैं कि क्या अजित पवार एक बार फिर पलटी मारने वाले हैं, तो क्या एक बार फिर महाराष्ट्र सरकार खतरे में पड़ गयी है.
महाराष्ट्र में शिंदे-फडणवीस-पवार की ट्रिपल इंजन सरकार में खराबी की खबरें आ रही हैं। चर्चा है कि उप मुख्यमंत्री अजित पवार नाराज हैं। इन खबरों के बीच मंगलवार की शाम को इंजन में दुरुस्ती की गुहार लेकर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस अचानक दिल्ली रवाना हो गए हैं। शिंदे-फडणवीस दिल्ली में बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मिले.
अजित पवार और शिंदे के बीच खींचतान-
सत्ता के गलियारों में यह चर्चा है कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और अजित पवार के बीच पिछले कई दिनों से खींचतान चल रही है। अजित पवार बुधवार को मंत्रिमंडल की बैठक में भी नहीं गए। मंत्रिमंडल की बैठक के बाद मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने कहा कि अजित पवार की तबीयत ठीक नहीं है। हालांकि शिंदे और फडणवीस के दिल्ली रवाना होने के बाद अपने सरकारी बंगले ‘देवगिरी’ पर अपने मंत्रियों के साथ बैठक की। इससे पहले गणेश उत्सव के दौरान मुख्यमंत्री के सरकारी बंगले पर गणपति दर्शन के लिए अमित शाह, जे.पी. नड्डा समेत तमाम देसी-विदेशी लोग पहुंचे, लेकिन अजित पवार वहां नहीं गए थे।
गणेश उत्सव की समाप्ति पर पिछले शनिवार की रात को दोनों उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार अचानक मुख्यमंत्री के बंगले पर पहुंचे। करीब डेढ़ घंटे तक तीनों के बीच बंद कमरे में बातचीत होती रही। पता चला कि तीनों ‘इंजनों’ की बैठक में कई मुद्दों पर बातचीत हुई.
प्रभारी मंत्रियों की नियुक्ति और विवाद –
बैठक में सबसे अहम मुद्दा जिलों के प्रभारी मंत्रियों की नियुक्ति का था। जब से शिंदे सरकार अस्तित्व में आई है तब से ही प्रभारी मंत्रियों की नियुक्ति नहीं हो पाई हैं। अपनी-अपनी मूल पार्टियों से बगावत कर सत्ता में शामिल हुए शिंदे-गुट और अजित गुट के मंत्रियों के बीच अपने-अपने जिलों का प्रभारी मंत्री बनने की होड़ मची है। खुद अजित पवार पुणे जिले का प्रभारी मंत्री पद चाहते हैं। लेकिन इस पद पर पहले से ही बीजेपी के चंद्रकांत पाटील विराजमान हैं। ज्यादातर विवाद उन जिलों में है जहां एनसीपी और शिवसेना के बीच हमेशा से ही गलाकाट लड़ाई रही है।
शिंदे गुट शुरुआत से ही अजित पवार के सरकार में शामिल होने को लेकर नाखुश रहा है। अजित पवार सरकार में शामिल हुए और 9 मंत्री पद ले उड़े। शिंदे गुट को सत्ता की यह हिस्सेदारी रास नहीं आई। उन्हें लगता है कि उनका हिस्सा मारा गया है। अजीत गुट के सत्ता में आने के बाद मंत्रिमंडल विस्तार का इंतजार कर रहे विधायकों में भी असंतोष है।इस साल जुलाई में अजित पवार एनसीपी के 40 से अधिक विधायकों के साथ सरकार में शामिल हो गए थे, जिसके चलते एनसीपी दो गुटों (अजित पवार गुट) और (शरद पवार गुट) में विभाजित हो गई थी. इस बीच अजित पवार ने महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.
क्या है दिल्ली दौरे का मकसद-
शिंदे-फडणवीस के दिल्ली दौरे का असली मकसद अगले कुछ दिनों में सुप्रीम कोर्ट से शिवसेना बनाम चुनाव आयोग के बीच चल रहे पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह शिंदे गुट को दिए जाने के खिलाफ दायर केस का फैसला आने की संभावना है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले फैसले में जो रुख दिखाया है, उसे देखते हुए आने वाला फैसला शिंदे गुट की मुश्किलें बढ़ा सकता है। इसको लेकर सरकार के भीतर एक तरह का डर है। शिंदे-फडणवीस के दिल्ली दौरे का असली मकसद यही हो सकता है।
इस घटना के बाद विपक्ष को टारगेट करने का मौका मिल गया और विपक्ष ने उनकी अनुपस्थिति को एक ‘राजनीतिक बीमारी’ बताया है, जो सरकार को हिला सकती है.एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले ने कहा कि ‘ट्रिपल इंजन सरकार को सत्ता में आए अभी तीन महीने ही हुए है और मैंने सुना है कि एक गुट नाराज है.’ तीन महीने में अभी हनीमून खत्म नहीं हुआ और समस्याएं अभी से सामने आने लगी है. महज तीन महीने में ऐसी खबरें सामने आ रही है.
कुल मिलाकर महाराष्ट्र में राजनीतिक माहौल फिर गरमा गया है,लेकिन इस बार मुश्किल में भाजपा और शिंदे सरकार दिखाई दे रही है ये तो साफ़ है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा, सवाल उठ रहें है कि क्या अजीत एक बार फिर कोई नई चाल चल रहे हैं या फिर किसी बगावत की तैयारी महाराष्ट्र में चल रही है पर जैसे हालात अभी बने हुए हैं उससे अजीत की नाराजगी तो साफ़ दिखाई दे रही है. आगे अजीत क्या रुख अपनाएंगे इस पर सबकी नजर बनी रहेगी।
बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने जाति गणना के आंकड़े जारी कर दिए हैं. आंकड़ों के मुताबिक बिहार में सबसे ज्यादा 36 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग, 27 फीसदी पिछड़ा वर्ग, 19 फीसदी से ज्यादा अनुसूचित जाति, 15.52 फीसदी सवर्ण अनारक्षित वर्ग, और 1.68 फीसदी अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या है..
आज मुख्य सचिव समेत अन्य अधिकारियों ने इसकी रिपोर्ट जारी की. बिहार सरकार की ओर से विकास आयुक्त विवेक सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि बिहार सरकार ने जातीय जनगणना का काम पूरा कर लिया है. बिहार सरकार ने राज्य में जातिगत जनसंख्या 13 करोड़ से ज्यादा बताई है. अधिकारियों के मुताबिक जाति आधारित गणना में कुल आबादी 13 करोड़ 7 लाख 25 हजार 310 है.
रिपोर्ट के मुताबिक अत्यंत पिछड़ा वर्ग की आबादी 36 फीसदी है और पिछड़ा वर्ग की संख्या 27 परसेंट है, साफ है की सबसे बड़े सामाजिक समूह ओबीसी वर्ग का है जिनकी संख्या 63 फीसदी है, इस रिपोर्ट के जारी होने के बाद नीतीश कुमार और लालू यादव की पार्टी आरजेडी दोनों ही मिलकर इसका श्रेय ले रहे हैं वहीं भाजपा भी समर्थन की बात करके ओबीसी को सबसे ज्यादा महत्व देने वाली पार्टी का दावा कर रही है साफ है कि 2024 के आम चुनाव से पहले ओबीसी पॉलिटिक्स केंद्रीय भूमिका में आ गई है.
साफ है की ओबीसी की राजनीति को बिहार से आए 63 के आंकड़े से ताकत मिलने वाली है राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार इस रिपोर्ट को लेकर कहते हैं यह आंकड़े हैरान करने वाले नहीं है पहले ही बिहार को लेकर ऐसा ही अनुमान रहा है लेकिन अब सरकारी आंकड़ा है तो तस्वीर ज्यादा साफ है इस रिपोर्ट के बाद नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे नेता यह प्रचार करेंगे कि ओबीसी की आबादी 60% से ज्यादा है जबकि आरक्षण 27 फीसदी मिलता है इसे बढ़ाना चाहिए और सरकार अन्याय कर रही है इस तरह भाजपा को ओबीसी पर घेरने की कोशिश होगी एक तरफ से 2024 से पहले विपक्ष को एक हथियार मिल गया है.
बिहार में किस धर्म के कितने लोग?
आबादी के अनुसार आरक्षण की मांग उठने लगी-
इसका अर्थ हुआ कि आने वाले दिनों में आबादी के मुताबिक आरक्षण की डिमांड तेज हो सकती है जेडीयू के सीनियर नेता केसी त्यागी ने तो नीतीश कुमार की तुलना कर्पूरी ठाकुर और वीपी सिंह से कर दी है उन्होंने कहा कि यह मंडल पार्ट 2 है और पिछड़ों को नीतीश कुमार न्याय दिला रहे हैं वहीं जीतन राम मांझी ने तो आंकड़े आते ही नौकरियों में आबादी के अनुसार आरक्षण की मांग रख दी. लालू यादव, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव जैसे नेता लगातार यह मांग दोहराते रहे हैं अखिलेश यादव भी यूपी में जाति गणना की मांग करते रहे हैं.
बिहार से आई रिपोर्ट का उत्तर प्रदेश पर भी होगा असर ?
अब बिहार में आई रिपोर्ट के बाद वह इस पर और मुखर हो सकते हैं यही नहीं 2022 के उप चुनाव में तो स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं के जरिए उन्होंने 15 बनाम 85 का नारा दे ही दिया अब एक बार फिर से 2024 में यूपी बिहार जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में ओबीसी कार्ड तेज हो सकता है इसका असर उत्तर प्रदेश बिहार से आगे राजस्थान मध्य प्रदेश हरियाणा जैसे प्रदेश में भी दिख सकता है यानी 2024 के लिए विपक्ष को हथियार मिल चुका है देखना होगा कि वह इसका इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले कैसे कर पता है जो खुद ओबीसी चेहरे के तौर पर प्रोजेक्ट किए जाते हैं.
सीएम नीतीश ने क्या संदेश दिया?
आंकड़े जारी होने के बाद बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने ट्वीट कर जनगणना करने वाली पूरी टीम को बधाई दी है. उन्होंने कहा है,जाति आधारित गणना के लिए सर्वसम्मति से विधानमंडल में प्रस्ताव पारित किया गया था. बिहार विधानसभा के सभी 9 दलों की सहमति से निर्णय लिया गया था कि राज्य सरकार अपने संसाधनों से जाति आधारित गणना कराएगी. 02-06-2022 को मंत्रिपरिषद से इसकी स्वीकृति दी गई थी. इसके आधार पर राज्य सरकार ने अपने संसाधनों से जाति आधारित गणना कराई है. जाति आधारित गणना से न सिर्फ जातियों के बारे में पता चला है, बल्कि सभी की आर्थिक स्थिति की जानकारी भी मिली है.
2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को मध्यनजर रखते हुए भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व उत्तराखंड पर सीधी नजर बनाए हुए है।इसी को देखते हुए संगठन और सरकार से फीडबैक लेने के लिए पार्टी के राष्ट्रीय संगठक वी सतीश तीन दिवसीय दौरे पर उत्तराखंड पहुंचे हैं। शुक्रवार को उन्होंने प्रदेश भाजपा मुख्यालय में पार्टी के सभी मोर्चों के पदाधिकारियों के साथ बैठक में चुनावी दृष्टि से कई बिंदुओं पर जानकारी ली।
- 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी बीजेपी
- बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व उत्तराखंड पर बनाए हुए है सीधी नजर
- उत्तराखंड के दौरे पर हैं भाजपा के राष्ट्रीय संगठक वी सतीश
बीजेपी ने बनाई रणनीति-
लोकसभा चुनाव में चूंकि बीजेपी पिछले लगातार 2014 के बाद से उत्तराखंड में पांचों सीटें जीतती आयी है, पार्टी ने इतिहास रचने की दृष्टि से रणनीति बनाई है और वह तैयारियों में जुट चुकी है, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व फिर भी इसे किसी भी दशा में हल्के में लेने के मूड में तो बिलकुल भी नहीं है। और यही कारण है कि केंद्रीय नेतृत्व निरंतर ही चुनावी तैयारियों पर नजर रखने के साथ ही फीडबैक भी ले रहा है। इस दृष्टिकोण से बीजेपी के राष्ट्रीय संगठक वी सतीश के उत्तराखंड दौरे को महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
चुनावी रणनीतियों को लेकर तैयारियां–
शुक्रवार को देहरादून पहुंचकर वी सतीश ने प्रदेश कार्यालय में पार्टी के सभी 7 मोर्चों के प्रभारियों व अध्यक्षों के साथ बैठक की। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने चुनावी तैयारियों की जानकारी ली। साथ ही जिन क्षेत्रों में पार्टी कमजोर है, वहां पर क्या और कैसी रणनीति अपनाई जा सकती है, इस बारे में सुझाव भी लिए। इसके बाद राष्ट्रीय संगठक ने राज्य सरकार के मंत्रियों से भी प्रदेश कार्यालय में अलग-अलग भेंट की। इस दौरान उन्होंने भावी रणनीति पर चर्चा करने के साथ ही केंद्रीय नेतृत्व की अपेक्षाओं से अवगत कराया।
वी सतीश ने पार्टी के तीनों प्रदेश महामंत्रियों के साथ भी बातचीत की। देर शाम उन्होंने तिलक रोड स्थित संघ कार्यालय जाकर प्रांत प्रचारक डॉ शैलेंद्र समेत अन्य पदाधिकारियों के साथ मंथन किया। उधर, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने बताया कि राष्ट्रीय संगठक शनिवार को पार्टी के प्रांतीय पदाधिकारियों और विधायकों के साथ अलग-अलग बैठकें कर स्थानीय मुद्दों, सामाजिक व राजनीतिक घटनाक्रमों के दृष्टिगत संगठनात्मक गतिविधियों पर चर्चा करेंगे।वहीँ आज वह मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से भी मुलाकात करेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी में कुछ नेताओं को निपटाने के चक्कर में भाजपा को ही निपटा रहे हैं,,ऐसा हम नहीं मध्य प्रदेश और राजस्थान की राजनीति में आया सियासी बबाल बता रहा है,मध्य प्रदेश में जिस तरह भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की बात चल रही है उसके संकेत भी मिलने शुरू हो गए हैं.
जब देश में गुजरात मॉडल चर्चा में था तब एक बार शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि गुजरात मॉडल में क्या है,जरा मध्य प्रदेश का विकास मॉडल देखिए,और फिर वक्त ऐसा आया की इसी गुजरात मॉडल ने शिवराज को किनारे लगाने की तैयारी कर दी है,मगर शिवराज सिंह ऐसा लगता है की हार मानने वालों में से नहीं हैं,,उधर दूसरी तरफ वसुंधरा के साथ भी यही हो रहा है उनको भी धीरे धीरे किनारे करने की तैयारी चल रही है,लेकिन जिस तरह वसुंधरा अपने तेवर राजस्थान में दिखा रही है उससे ये आसान नहीं होने वाला. शिवराज और वसुंधरा दोनों ही ऐसे नेता है जो अपने अपने प्रदेश में मजबूत पकड़ रखते हैं ऐसे में कहीं इनको निपटाने के चक्कर में दोनों राज्यों में भाजपा ही न निपट जाय,,,,खैर इसके लिए थोड़ा इंतजार कर लेते हैं और फिर से राज्य राजनीति पर लौट चलते हैं.
MP में BJP में खलबली-
बात मध्य प्रदेश की करें तो यहां जिस तरह से कई सर्वे में पार्टी की हालात खराब दिखाई दे रही है,कई घोटालों के आरोप शिवराज सरकार पर लगे हैं, ऐसेे में अब मोदी के नाम पर मध्य प्रदेश को बचाने की कोशिस की जा रही है,, खुद मोदी हार के डर से शिवराज को किनारे करने लग गए हैं,, ऐसे संकेत मिलते हैं,, मोदी और भाजपा को हार का कितना डर है,इस बात का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि अब भाजपा के बड़े बड़े केंद्रीय मंत्रीयों को चुनाव मैदान में उतारा गया है,और वो भी बिना उनको पूछे, बिना उनकी मर्जी के..भाजपा में हार का इतना डर वयाप्त है कि उन्होंने अपने बड़े- बड़े नेताओं को ही चुनावी रण में उतार दिया है,,,आलाकमान के इस फैसले से केंद्न की राजनीति करने वाले नेता मंत्री हैरान हैं, परेशान हैं, सूत्र बताते हैं की इस फैसले का उन तमाम दिग्गजों को पता ही नहीं था,,,अब इन साहब को ही देख लीजिये,जिनको लगता है कि अब वो ठहरे इतने बड़े नेता, विधायक जैसा छोटा चुनाव कैसे लडेंगे उनकी माने तो वो कहते हैं की मै इतना बड़ा नेता होने के बाद अब क्या लोगों के दरवाजे पर वोट मांगूंगा,,,, अब ये ना समझ लिजिएगा की ये हम कह रहे हैं,, हम नहीं बल्कि खुद बड़े नेता,, माफ़ करें भाजपा के राष्ट्रिय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय कह रहे हैं,,,आप खुद देख लीजिये ,,,,,क्या कहा विजयवर्गीय ने-
पार्टी ने विजयवर्गीय को इंदौर-1 विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया है। कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि उन्हें अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि बीजेपी ने उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने का मौका दिया है, मेरी चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं थी. मैं अंदर से खुश नहीं हूं. अब हम बड़े नेता हो गए हैं. हाथ जोड़ने कहां जाएं. मुझे अंदाजा नहीं था कि पार्टी मुझे टिकट देगी.” इससे ये तो साफ़ हो गया कि बीजेपी में हार का डर इतना है कि वो अपने बड़े नेताओं को ये तक नहीं पूछ रही कि आप लड़ना चाहते भी हैं या नहीं,,,
परिवारवाद का विरोध करने वाली बीजेपी के खुद के नेता किस तरह परिवारवाद से घिरे हैं इसकी पोल खुद भाजपा नेता ने ही खोल दी,, कैलाश विजयवर्गीय ने ये भी कहा,कि “मैं सोचता था कि मैं चुनाव क्यों लड़ू, क्योंकि आकाश ने इंदौर शहर में अपनी एक जगह बनाई है. मेरी वजह से उसका राजनीतिक अहित नहीं होना चाहिए, ,, मतलब वो यहां से अपने बेटे का टिकट चाहते थे,,,,आकाश विजयवर्गीय उनके बेटे हैं जो अभी विधायक हैं लेकिन अब पिता को टिकट मिलने के बाद आकाश यानी कैलाश विजयवर्गीय के बेटे की टिकट कटने की संभावना प्रबलतम है,
बता दें कि आकाश विजयवर्गीय उस वक्त सुर्खियों में आए थे जब उन्होंने निगम अधिकारी पर बैट से हमला कर दिया था. इंदौर के गंजी कंपाउंड इलाके में तोड़फोड़ को लेकर बहस होने के बाद आकाश विजयवर्गीय का निगम अधिकारी पर क्रिकेट बैट से हमले का वीडियो वायरल हुआ था. इसके बाद उन्हें पुलिस ने उस वक्त गिरफ्तार कर लिया था. इसको लेकर मध्य प्रदेश में उस वक्त खूब राजनीति हुई थी. साथ ही आलोचना भी हुई थी,,
क्या इसलिए चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं विजयवर्गीय-
ये भी सवाल पैदा होते हैं कि आखिर क्यों विजयवर्गीय चुनाव नहीं लड़ना चाहते है,क्या सिर्फ अपने बेटे की वजह से या फिर वो मध्य प्रदेश की हवा भांप चुके हैं,और उनको लगता है कि इस बार तो मुश्किल है इसलिए चुनाव ही नहीं लड़ा जाय, या फिर जिस तरह कैलाश विजयवर्गीय कह रहे हैं कि वो सच में इतने बड़े नेता हो गए है कि अब वोट के लिए लोगों के सामने हाथ नहीं जोड़ सकते,,, इसका मतलब साफ है की भाजपा में मोदी से बड़े नेता और भी हैं,, यानी कैलाश,,अब कैलाश जी को ये कौन समझाए कि पीएम मोदी खुद जनता के दर पर हाथ जोड़ दिन-रात वोट की गुहार करते दिखाई देते हैं,, कैलाश को तो घर-घर जाकर वोट मांगने थे या कहें की हैं,, मगर विश्व गुरु को तो भरी दोपहर में सड़कों पर ही हाथ जोड़ वोट मांगने पड़ रहे हैं,, अब ऐसे में क्या वो उनसे भी बड़े नेता हैं,, जो घर-घर जाकर वोट नहीं मांग सकते।।
भाजपा के डर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस बार भाजपा ने तीन केंद्रीय मंत्रियों सहित सात सांसदों को विधायकी लड़ाने के लिए उतारा है, लेकिन बीजेपी को उनका ये फैसला उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है,,अब एक और सांसद रह चुके नेता जिनको लगता है कि पार्टी अब मनमानी करने लगी है,लेकिन पार्टी ने यहां उनकी बात नहीं मानी और उनकी जगह यानी रत्नाकर सिंह की जगह गणेश सिंह को सतना विधानसभा से बीजेपी का उम्मीदवार बनाया है,जिससे नाराज सांसद रत्नाकर सिंह ने बागी तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं.
टिकट न मिलने से नाराज रत्नाकर अब पार्टी पर मनमानी का आरोप लगा रहे हैं और अब निर्दलीय चुनाव लड़ने की धमकी भी दे रहे हैं,,, उनका कहना है जनता कहेगी तो निर्दलिय ही चुनाव लड़ूंगा,, अब इसका मतलब तो साफ है की बीजेपी टिकट दे या ना दे रत्नाकर सिंह चुनावी मैदान में तो ताल ठोकेंगे ही.. अब चाहे वो निर्दलीय लड़ें या किसी अन्य पार्टी के दामन को थाम कर..
दरअसल, बीजेपी इस साल मई में कर्नाटक में मिली हार और इस महीने की शुरुआत में हुए उप चुनावों में विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. के हाथों हुई 3-4 की हार से चिंतित नजर आ रही है,चुनावों में पार्टी किसी भी उम्मीदवार को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं करेगी। खासकर मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे हिंदी भाषी राज्यों में, पार्टी क्षेत्रीय नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और आपसी द्वंद को इस तरह से कम करने की कोशिश भर कर रही है, या पुराने छत्रपों को निपटाने की, बीजेपी को ये भी उम्मीद है कि बड़े नाम वाले कैंडिडेट उन सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रहेंगे जहां वह कमजोर है। भाजपा को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील से पार्टी चुनाव का एक और दौर जीतेगी, और मुख्यमंत्री पद का खुला रहना क्षेत्रीय नेताओं को कड़ी मेहनत करने के लिए प्रोत्साहित करने का काम करेगा.
आखिर क्यों नहीं है कैंडिडेट लिस्ट में शिवराज का नाम-
अब एक हैरान करने वाली बात ये भी है, की प्रदेश यानी मध्य प्रदेश की सत्ता पर विराजमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम अभी तक चुनाव लड़ने वाले कैंडिडेट की लिस्ट में नहीं है। ये संकेत 64 वर्षीय चौहान के भविष्य के लिए अच्छा तो नहीं ही कहा जा सकता है। संभावना ये भी है कि कोई भी बड़ा नेता चुनाव के बाद सीएम बन सकता है।
अब जरा राजस्थान में एक नजर-
राजस्थान में, संभावित मुख्यमंत्री चेहरों में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और अर्जुन राम मेघवाल शामिल हैं, और संभावित उम्मीदवारों में राज्यसभा सांसद डॉ. किरोड़ी लाल मीणा और लोकसभा सांसद दीया कुमारी, राज्यवर्धन राठौड़ और सुखबीर सिंह जौनपुरिया भी शामिल हैं। राज्य में दो बार सीएम रह चुकीं 70 साल की वसुंधरा राजे के लिए ये चुनाव काफी अहम रहने वाला है। राज्य में पार्टी की सबसे प्रभावशाली नेता के रूप में वसुंधरा की पहचान है। लेकिन इस बार पार्टी ने यहां भी सामूहिक नेतृत्व के रूप में उतरने का फैसला किया है। देखना रोचक होगा कि राजे पार्टी के इस दांव से कैसे निपटती है। ये भी माना जा रहा है कि वह किसी अन्य सीएम के अधीन विधानसभा में तो नहीं जाएंगी। मतलब यहां के राजनीतिक हालात भी अभी काबू से बाहर हैं.
ऐसे हालातो से ये तो साफ़ है कि भाजपा चुनावी राज्यों में हवा का कुछ हद तक अंदाजा लगा चुकी है और समझ चुकी है कि राह बेहद मुश्किल है, ऐसे में वो हर काम किया जा रहा है जिससे किसी भी डेमेज कंट्रोल को रोका जा सके,लेकिन इतने नेताओ की नारज करना बीजेपी के लिए उल्टा दावं भी साबित हो सकता है, परिणाम क्या होंगे वो आने वाला वक्त साफ़ करेगा.
2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी को एक बड़ा झटका लगा. दक्षिण भारत के राज्यों में बीजेपी अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है और उसके इरादों पर तब पानी फिर गया जब एआईएडीएमके ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से बाहर होने की घोषणा कर दी.
एनडीए से अलग होने का फैसला चेन्नई में एआईएडीएमके मुख्यालय में पार्टी प्रमुख एडप्पादी के पलानीस्वामी की अध्यक्षता में हुई बैठक में लिया गया. पिछले साल नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जेडीयू के एनडीए से अलग होने के बाद ये गठबंधन के लिए सबसे बड़ा झटका है. देश के दक्षिणी राज्य कर्नाटक में हार के बाद बीजेपी तमिलनाडु से बहुत उम्मीदें लगाकर बैठी है ऐसे में एआईएडीएमके के अलग होने से देश की सबसे बड़ी पार्टी को झटका तो जरूर लगा है.
गठबंधन टूटने का समय-
एआईएडीएमके के एनडीए से अलग होने की टाइमिंग भी ऐसी रही है जब बीजेपी तमिलनाडु में सनातन धर्म पर डीएमके नेता उदयनिधि के बयान को भुनाने में लगी हुई है. बीजेपी हाल ही में बने विपक्षी गठबंधन इंडिया पर हमला करने के लिए एक बड़ी रणनीति के तहत इसका उपयोग कर रही है. गठबंधन टूटने के बाद द्रविड़ राजनीति के बारे में भगवा पार्टी की समझ पर भी सवाल उठने लगे हैं. एआईएडीएमके का एनडीए से अलग होना तमिलनाडु में गेम चेंजर साबित हो सकता है.
अब जश्न का ये वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है, जिससे बीजेपी की काफी फजीहत हो रही है,, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीशगढ के साथ ही तमलनाडु में विधानसभा चुनाव हैं, ऐसे में बीजेपी को उम्मीद थी कि AIDMK के साथ चुनाव लड़ेगी लेकिन उन्होंने बीजेपी को जोरदार झटका दे दिया,, AIADMK ने सोमवार को एक औपचारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी NDA से बाहर निकलने की घोषणा की और कहा कि वह वह 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए एक अलग मोर्चे का नेतृत्व करेगी. गठबंधन तोड़ने का एलान करते हुए पार्टी ने कहा कि 2024 लोकसभा चुनावों में वो अपनी जैसी सोच वाली पार्टियों के साथ गठबंधन करेगी.
समस्या कहां पर है?
बीते कुछ समय से दोनों पार्टियों के बीच तनाव चल रहा था. ये कदम ऐसे समय में उठाया गया है जब कुछ दिनों पहले एआईएडीएमके के वरिष्ठ नेताओं ने नई दिल्ली में बीजेपी चीफ जेपी नड्डा से मुलाकात कर उन्हें तमिलनाडु में बीजेपी प्रमुख अन्नामलाई की राजनीति की आक्रामक शैली से उत्पन्न राज्य की जमीनी स्थिति के बारे में बताया. नेताओं ने मांग की थी कि या तो अन्नामलाई द्रविड़ियन दिग्गज सीएन अन्नादुरई पर की गई टिप्पणी के लिए माफी मांगें या फिर बीजेपी अध्यक्ष बदला जाए लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
दरअसल दोनों दलों के बीच विवाद की जड़ में अन्नामलाई का अन्नादुरई को लेकर दिया बयान बताया जा रहा है. अन्नामलाई ने कहा था- साल 1956 में अन्नादुरई ने हिंदू धर्म का अपमान किया था और फिर बाद में जब विरोध हुआ तो उन्हें माफ़ी मांगनी पड़ी और मदुरै से भागना पड़ा था
ADIMK नेतृत्व राज्य में बीजेपी नेताओं की ओर से की जा रही टिप्पणियों से नाराज़ था. इसमें बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के अन्नामलाई की टिप्पणी भी शामिल है. इन नेताओं को रोकने को लेकर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कोशिश नहीं दिखी. इससे AIDMK में नाराज़गी थी. ये गठबंधन तोड़ने का एलान ऐसे वक़्त में हुआ था, जब राज्य में पार्टी की पकड़ ढीली होती जा रही है.
जब AIADMK ने की NDA से अलग होने की घोषणा-
इसके बाद सोमवार को एआईएडीएमके ने एनडीए से अलग होने की घोषणा कर दी. हालांकि इस खटास के संबंध में किसी का नाम नहीं लिया गया और पूरा दोष बीजेपी राज्य नेतृत्व पर मढ़ दिया गया. अन्नाद्रमुक ने कहा कि बीजेपी के राज्य नेतृत्व ने जानबूझकर अन्नादुराई और पार्टी की दिवंगत मुखिया जे जयललिता और निवर्तमान प्रमुख पलानीस्वामी को बदनाम किया.
प्रस्ताव में कहा गया है कि एआईएडीएमके को निशाना बनाकर इस तरह की निंदनीय, अनियंत्रित आलोचना पिछले लगभग एक साल से चल रही है और इससे कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों में गहरी नाराजगी है. प्रवक्ता शशिरेखा ने सोमवार को कहा, “यह (हमारे लिए) सबसे खुशी का क्षण है. हम आगामी चुनावों (अपने दम पर) का सामना करके बहुत खुश हैं, चाहे वह संसदीय हो या विधानसभा.”