Category Archive : शिक्षा

Uttarakhand: शिक्षा मंत्री के खुद के ही गृह क्षेत्र में स्कूलों की हालत जर्जर, खतरे में छात्रों का भविष्य.

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“अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा”   ये एक प्रसिद्ध हिंदी कहावत है जिसका अर्थ है कि एक अयोग्य शासक के नेतृत्व में  कमी और अव्यवस्था के कारण परिस्थितियां खराब हो जाती हैं। ये कहावत  उत्तराखंड के शिक्षा मंत्री पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं एक स्कूल की छत इतनी जर्जर हो चुकी है जो कि कभी भी गिर सकती है। ये छत कहीं और की नहीं बल्कि उत्तराखंड के शिक्षा हब कहे जाने वाले और खुद शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत का गृह क्षेत्र श्रीनगर शहर के बालिका इंटर कॉलेज की है।

श्रीनगर बाजार के ऐतिहासिक बालिका इंटर कॉलेज के जर्जर भवन में बालिकाएं बिना शिक्षक के पढ़ रहीं हैं। ऐसे में सरकार के ‘पढ़ेगी बेटियां तो बढ़ेगी बेटियां’ का नारा जुमला साबित होता दिखाई दे रहा है कई क्षेत्रों से करीब 300  से अधिक  छात्राएं यहां पढ़ती हैं अन्य सरकारी विद्यालयों की अपेक्षा यहां सबसे अधिक छात्र संख्या है बावजूद इसके  80 के दशक में बना विद्यालय भवन जर्जर हो चुका है आए दिन छत का प्लास्टर गिरने से छात्राओं के लिए खतरा बना हुआ है शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत का क्षेत्र होने के कारण वो कई चक्कर यहां लगाते हैं लेकिन उनकी नजर इस पर कभी गयी नहीं।

कई वर्षो से हैं अध्यापिकाओं के कई पद खाली- 

इतना ही नहीं इसके अलावा विद्यालय में वर्षों से अध्यापिकाओं के कई पद रिक्त हैं. एक तरफ शिक्षा मंत्री अध्यापकों का वेतन बढ़ाने की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ अध्यापक ही नहीं है और बच्चे खुद ही अपने अध्यापक बन कर पढ़ाई करने को मजबूर हैं ऊपर से छत कब सर पर गिर जाए उसका अलग डर रहता है।विद्यालय में समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र के प्रवक्ता का पद 2016-17 से खाली है, 2020 से जीव विज्ञान का पद खाली है, इसके अलावा गणित विषय का पद रिक्त होने से अन्य विद्यालय से अध्यापक की व्यवस्था की गई है भूगोल के प्रवक्ता अवैतनिक अवकाश पर जाने से इस विषय में अतिथि शिक्षक तैनात है वहीं अंग्रेजी विषय भी व्यवस्था के सहारे संचालित हो रहा है।

अभी हाल ही में उत्तराखंड के शिक्षा मंत्री डॉ. धन सिंह रावत ने वैश्विक निवेशक सम्मेलन में निवेशकों को संबोधित करते हुए कहा कि उत्तराखंड में 10 नए निजी विश्वविद्यालय और तीन नए मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे ये एक अच्छा कदम भी है लेकिन बुनियादी शिक्षा का क्या जब बुनियाद ही सही नहीं पड़ेगी तो इन महाविद्यालयों और मेडिकल कालेज का क्या फायदा। उन्होंने बताया कि राज्य सरकार का लक्ष्य है कि उत्तराखंड में 2024 तक पाँच लाख बच्चे अन्य राज्यों से पढ़ने आए, जबकि एक लाख विदेशी बच्चे यहाँ आकर पढ़ें, लेकिन खुद के बच्चे जब अध्यापकों और एक अच्छे भवन के लिए तरस रहे हो तो फिर इस तरह की आशा करना बेमानी है

Uttarakhand Board Exam 2024: उत्तराखंड बोर्ड ने जारी की 10वीं और 12वीं की डेटशीट, जानिए क्या है शेड्यूल.

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Uttarakhand Board Exam 2024: उत्तराखंड बोर्ड की परीक्षाएं 27 फरवरी से शुरू होकर16 मार्च तक आयोजित की जाएंगी।

उत्तराखंड बोर्ड ने कक्षा 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं का कार्यक्रम जारी कर दिया है। जारी शेड्यूल के अनुसार, उत्तराखंड बोर्ड परीक्षाएं 27 फरवरी से शुरू होकर 16 मार्च तक आयोजित की जाएंगी।

दरअसल, माध्यमिक शिक्षा निदेशालय उत्तराखंड के सभागार में सभापति, उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा परिषद रामनगर की अध्यक्षता में साल 2024 के हाईस्कूल और इंटरमीडिएट परीक्षा कार्यक्रम के निर्धारण के लिए परीक्षा समिति की बैठक हुई। बैठक में परीक्षा समिति की ओर से निर्णय लिया गया कि उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा परिषद रामनगर, नैनीताल की ओर से संचालित हाईस्कूल और इंटरमीडिएट परीक्षा दिनांक 27 फरवरी 2024 से शुरू होगी, जो 16 मार्च 2024 तक चलेगी।

 

हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा 27 फरवरी से शुरू होंगी-

हाईस्कूल और इंटरमीडिएट परीक्षा 27 फरवरी से शुरू होंगी, जो 16 मार्च तक चलेगी। वहीं, प्रैक्टिकल 16 जनवरी 2024 से शुरू होंगे, जो 15 फरवरी के बीच चलेंगे। परीक्षा पूरी तरह शांतिपूर्वक कराने के निर्देश अधिकारियों को दिए गए हैं। बैठक में परिषद के सभापति सीमा जौनसारी, सचिव डॉ नीता तिवारी, अपर निदेशक (माध्यमिक शिक्षा) महावीर सिंह बिष्ट  और परीक्षा समिति के सदस्य उपस्थित रहे। 

Uttarakhand: 88 छात्रों को कराया फर्जी पैरामेडिकल कोर्स, कई लोगों को बांटी डिग्री, लाखों में वसूली फीस.

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पैरामेडिकल और मैनेजमेंट का फर्जी डिप्लोमा देने के आरोपी डीपीएमआई काठगोदाम के प्रबंध निदेशक को काठगोदाम पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उसने 88 छात्र-छात्राओं से 88 लाख रुपये फीस वसूली थी जिनमें 58 को डिप्लोमा दिया गया जो फर्जी था।

पुलिस बहुउद्देश्यीय भवन हल्द्वानी में एसएसपी प्रहलाद नारायण मीणा ने फर्जीवाड़े का खुलासा किया। बताया कि 11 अक्टूबर को मुखानी निवासी हिमांशु नेगी पुत्र गोपाल सिंह नेगी ने दिल्ली पैरामेडिकल एंड मेडिकल इंस्टीट्यूट काठगोदाम के एमडी डॉ. प्रकाश सिंह मेहरा और प्रधानाचार्य डा. पल्लवी मेहरा के खिलाफ काठगोदाम थाने में तहरीर दी थी।

कहा था कि 2018 में इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया था तब प्रबंधक ने कहा था कि यह संस्थान दिल्ली पैरामेडिकल एंड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट की शाखा है। दो साल के कोर्स की फीस एक लाख रुपये ली गई थी। संस्थान में उनके साथ 38 छात्र-छात्राओं ने प्रवेश लिया। कोर्स के बाद सभी मार्कशीट और डिप्लोमा दिया गया। जब एक छात्र ने अल्मोड़ा मेडिकल कॉलेज में नौकरी के लिए आवेदन किया तो डिप्लोमा फर्जी बताते हुए आवेदन निरस्त कर दिया गया।
जांच में डीपीएमआई काठगोदाम के संचालक ने बताया कि 2018 में डीपीएमआई दिल्ली से फ्रेंचाइजी ली थी और पूर्वी खेड़ा गौलापार में संस्थान खोला था। 2018 में आठ, 2019 में 37 और 2020 में 21 छात्र-छात्राओं को पैरामेडिकल कोर्स का डिप्लोमा दिया गया था जबकि 2021 के 30 छात्रों को अभी डिप्लोमा नहीं मिला है। उनसे भी फीस वसूल ली गई है।

जब डीपीएमआई दिल्ली जाकर जानकारी मांगी गई तो पता चला कि 2018 में 8 छात्रों को डिप्लोमा दिया गया और 2019 में 37 छात्र-छात्राओं की प्रथम वर्ष की परीक्षा कर मार्कशीट दी गई थी। उसके बाद डीपीएमआई काठगोदाम के संचालक प्रकाश मेहरा ने फीस जमा नहीं की तो डीपीएमआई दिल्ली ने काठगोदाम शाखा को फीस डिफॉल्टर घोषित कर कार्यक्रम बंद कर दिया था। मगर इसके बावजूद 2019 में कोर्स बंद होने पर भी आरोपी छात्र-छात्राओं से लाखों रुपये फीस लेता रहा। मुकदमा दर्ज कर प्रकाश मेहरा को गिरफ्तार कर लिया गया है। मामले में उससे पूछताछ की जा रही है।
हर विद्यार्थी से वसूले 1 लाख रुपये-


पुलिस जांच में कुल 58 छात्र-छात्राओं को फर्जी डिप्लोमा कराने का मामला सामने आया। डिप्लोमा कोर्स के लिए हर छात्र से एक लाख रुपये फीस ली गई। जांच में साल 2019 के 37 और 2020 के 21 छात्र-छात्राओं को फर्जी डिप्लोमा दिए गए थे जिनसे कुल 58 लाख रुपये आरोपी ने वसूले। 2021 के 30 विद्यार्थियों से भी फीस वसूल ली गई।

 

UKPSC: ग्रेजुएट युवाओं के लिए आयोग ने 2 साल में निकाली केवल तीन भर्तियां, नौकरी के लिए युवा परेशान.

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प्रदेश में बीए, बीएससी, बीकॉम जैसे परंपरागत ग्रेजुएशन कोर्स करने वाले युवाओं के लिए भर्तियों की भारी कमी हो गई है। हालात ये हैं कि पिछले साल राज्य लोक सेवा आयोग ने केवल एक भर्ती निकाली थी और इस साल दो। हर साल 15 हजार से ज्यादा सामान्य ग्रेजुएट पासआउट होते हैं और इन तीन भर्तियों में केवल 785 पद थे।

युवाओं का कहना है कि दूसरे राज्यों के मुकाबले उत्तराखंड का राज्य लोक सेवा आयोग इस मामले में काफी पीछे चल रहा है। इंतजार में उनकी उम्र निकलती जा रही है। आयोग ने पिछले दो साल में वैसे तो बहुत भर्तियां निकाली हैं, जिनमें समूह-ख व समूह-ग के भर्तियां शामिल हैं। सेनिटरी इंस्पेक्टर, एई भर्ती, जेईभर्ती, आईटीआई प्रिंसिपल, लेक्चरर, जियोलॉजिकल माइनिंग, मैनेजमेंट ऑफिसर, वेटरनरी ऑफिसर आदि भर्तियां ऐसी निकाली, जिनमें केवल संबंधित विषय में विशेष योग्यता वाले युवा ही शामिल हो सकते थे।

इसी प्रकार आयोग ने फॉरेस्ट गार्ड, कनिष्ठ सहायक की जो भर्ती निकाली वह 12वीं के स्तर की है। यह सामान्य ग्रेजुएशन पास युवाओं के लिए नहीं है। राज्य के इन युवाओं के लिए न तो पीसीएस, लोअर पीसीएस जैसी भर्तियां निकल पाईं और न ही फॉरेस्ट रेंज ऑफिसर, सब इंस्पेक्टर, अपर निजी सचिव भर्ती का इंतजार खत्म हो पाया है। 

युवाओं का कहना है कि इसी इंतजार में वह आयु सीमा से बाहर होते जा रहे हैं। वहीं, आयोग का तर्क है कि जो भी अधियाचन (प्रस्ताव) संबंधित विभागों से आ रहे हैं, उनकी भर्तियां सही समय पर निकाली जा रही हैं। जो अधियाचन किसी कमी की वजह से लौटाए गए थे, वह अभी तक वापस नहीं आए हैं।

कहा, अब नए साल में इन ग्रेजुएट युवाओं के लिए कुछ भर्तियां निकलने की उम्मीद जग रही है। खास बात ये भी है कि आयोग ने सालभर में पांच बार एग्जाम कैलेंडर जारी किया है। हर कैलेंडर में कई नई भर्तियों का वादा हुआ तो कई पुरानी गायब हो गईं।

ये 3 भर्तियां निकली-

पटवारी लेखपाल भर्ती : 563 पदों के लिए पिछले साल 14 अक्तूबर को भर्ती का विज्ञापन जारी किया गया था।
अधिशासी अधिकारी एवं कर व राजस्व निरीक्षक भर्ती : 85 पदों के लिए आयोग ने इस साल 28 अगस्त को विज्ञापन जारी किया था। प्रक्रिया चल रही है।

समीक्षा अधिकारी-सहायक समीक्षा अधिकारी परीक्षा : 137 पदों के लिए आयोग ने ये भर्ती इस साल आठ सितंबर को निकाली थी। इसकी प्रक्रिया भी गतिमान है।

Uttarakhand: 23 साल बाद भी 75 स्कूलों और 12 कॉलेजों को नहीं मिली अपनी छत, बुनियादी सुविधाओं को तरसे छात्र.

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उत्तराखंड राज्य गठन के 23 साल बीत चुके हैं लेकिन इसके बाद भी प्रदेश के विद्यालयों और महाविद्यालयों के हजारों छात्र बुनियादी सुविधाओं को तरस रहे हैं। आज भी ऐसे कई स्कूल- कॉलेज हैं जहाँ पर पढ़ने वाले छात्रों के पास अपनी छत नहीं है. 1056 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में बिजली नहीं है। पेयजल, भवन और फर्नीचर की भी पिछले कई वर्षों से समस्या बनी हुई है। 75 विद्यालयों और 12 कॉलेजों के पास तो अभी तक अपनी छत भी नहीं है।

इन सुविधाओं के लिए छात्र-छात्राओं को अभी 2025-26 तक इंतजार करना होगा। शिक्षा मंत्री डाॅ. धन सिंह रावत के मुताबिक, अगले दो वर्षों के भीतर शत प्रतिशत सुविधाएं उपलब्ध करा दी जाएंगी। प्रदेश के विद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षा गुणवत्ता में सुधार के दावों के बीच 114 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय में पेयजल सुविधा नहीं है।

1 स्कूल को लेकर न्यायालय में चल रहा वाद-

 21,528 छात्र-छात्राओं के लिए फर्नीचर नहीं है। 1,693 के पास कंप्यूटर और 75 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों के पास अपना भवन नहीं है। शिक्षा विभाग के अधिकारियों के मुताबिक, जिन विद्यालयों के पास अपना भवन नहीं हैं, उसमें 69 स्कूल वन भूमि क्षेत्र में हैं। एक स्कूल को लेकर न्यायालय में वाद चल रहा है। 

तीन स्कूलों की भूमि को लेकर विवाद है।एक स्कूल डूब क्षेत्र में है, जबकि एक स्कूल छात्र संख्या शून्य होने से उसका निर्माण नहीं हो पा रहा है। शिक्षा निदेशक आरके उनियाल के मुताबिक, राज्य के कुछ स्कूल भूमि मुहैया न होने से किराये के भवन में चल रहे हैं। खासकर हरिद्वार एवं कुछ अन्य जिलों में यह स्थिति है। इसके अलावा पेयजल स्रोत दूर होने से पेयजल और बिजली की लाइन न होने से बिजली की भी समस्या बनी है। धीरे-धीरे समस्याओं को दूर किया जा रहा है।

इन सभी कॉलेजों के पास नहीं है अपना भवन-

प्रदेश के 12 राजकीय महाविद्यालयों के पास अपना भवन नहीं है। इनमें राजकीय महाविद्यालय शीतलाखेत जिला अल्मोड़ा, मासी अल्मोड़ा, रामगढ़ नैनीताल, हल्द्वानी नैनीताल, नानकमत्ता उधम सिंह नगर, गदरपुर उधम सिंह नगर, मोरी उत्तरकाशी, खाड़ी टिहरी, पावकी देवी नई टिहरी, भूपतवाला हरिद्वार व सुद्धोवाला देहरादून के पास अपना भवन नहीं है।

इतने छात्रों के लिए नहीं है फर्नीचर-

प्रदेश में अल्मोड़ा जिले के 2,135, बागेश्वर के 848, चमोली के 2,891, चंपावत के 788, देहरादून के 2,432, हरिद्वार के 730, नैनीताल के 1,805, पौड़ी के 1,382, पिथौरागढ़ के 1,937, रुद्रप्रयाग के 1,236, टिहरी के 2,349, ऊधमसिंह नगर के 1,341 एवं उत्तरकाशी के 1,654 छात्र-छात्राओं के लिए फर्नीचर नहीं हैं।वहीँ शिक्षा मंत्री डाॅ. धन सिंह रावत का कहना है कि प्रदेश के शत प्रतिशत विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं के लिए 2025-26 तक का लक्ष्य रखा गया है। धीरे-धीरे सभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी।

 

Uttarakhand- उत्तराखंड में अब स्कूलों में केवल चार बार होंगी परीक्षाएं, जानिए पूरा शेड्यूल.

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उत्तराखंड के सभी सरकारी स्कूलों में कक्षा 3 से 12वीं तक के छात्र-छात्राओं की अब हर महीने मासिक परीक्षा के स्थान पर साल में चार परीक्षाएं होंगी। दो परीक्षाएं अर्द्धवार्षिक परीक्षा से पहले और दो इसके बाद होंगी। शिक्षा निदेशक ने इस संबंध में सभी मुख्य शिक्षा अधिकारियों को निर्देश जारी किया है।

प्रदेश में सरकारी विद्यालयों में कक्षा तीन से 12वीं तक के छात्र-छात्राओं की अब हर महीने मासिक परीक्षा के स्थान पर साल में चार परीक्षाएं होंगी।

शिक्षा निदेशक ने इस संबंध में सभी मुख्य शिक्षा अधिकारियों को निर्देश जारी किया है। शिक्षा निदेशक ने परीक्षा कार्यक्रम जारी करते हुए कहा, कक्षा तीन से पांचवीं तक के छात्रों की पहली परीक्षा मई माह में मासिक परीक्षा के स्थान पर पहली इकाई परीक्षा होगी। इसके बाद अगस्त में दूसरी इकाई परीक्षा होगी।

अर्द्धवार्षिक परीक्षा के बाद तीसरी चौथी परीक्षा-

अक्टूबर में अर्द्धवार्षिक परीक्षा के बाद नवंबर व दिसंबर में तीसरी और चौथी परीक्षा होगी। इसी तरह कक्षा छह से 10वीं तक के छात्र-छात्राओं की अक्तूबर में अर्द्धवार्षिक परीक्षा से पहले मई व अगस्त में परीक्षा होगी, जबकि दो अन्य परीक्षाएं नवंबर व दिसंबर में होगी।

वहीं, कक्षा 11वीं एवं 12 वीं के छात्रों की पहली परीक्षा जुलाई और दूसरी परीक्षा अगस्त में होगी। अक्टूबर में अर्द्धवार्षिक परीक्षा के बाद तीसरी परीक्षा नवंबर और चौथी दिसंबर में होगी। निर्देश में अधिकारियों को कहा गया कि मासिक, अर्द्धवार्षिक व वार्षिक परीक्षाएं तय समय में कराई जाएं।

न्यायिक सेवा की परीक्षा में एक सवाल पर विवाद पहुंचा कोर्ट,मामला देख जज भी हैरान !

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अगर आपसे सवाल पूछा जाय कि बम धमाके से मारना हत्या है या कुछ और ? तो आपका जवाब क्या होगा ? शायद अधिकतर लोग इसको हत्या ही कहेंगे,लेकिन अगर इस सवाल को थोड़ा और घुमा कर कुछ इस तरह पूछा जाय जैसे जैसे की  “‘A ‘ एक मेडिकल स्टोर में बम रख देता है और विस्फोट से पहले लोगों को बाहर निकलने के लिए 3 मिनट का समय देता है। ‘B ‘ जो गठिया का मरीज है, वह भागने में विफल रहता है और मारा जाता है। ऐसे में ‘A ‘ के खिलाफ आईपीसी की किस धारा के तहत केस दर्ज किया जा सकता है?”  इस सवाल पर अब आपका जवाब क्या होगा ? निश्चित रूप से आप का सर घूम जायेगा और आप सोच रहे होंगे ये कैसा सवाल है ? तो आप बिलकुल सही सोच रहे हैं,,, ये कोई कल्पना या सिर्फ बोलने भर की बात नहीं है बल्कि ये सवाल सच में एक परीक्षा के दौरान पूछा गया,,कई छात्र इस सवाल से इतने परेशान हो गए कि उनकी समझ में कुछ आया ही नहीं,कि इसका जवाब क्या हो सकता है,,,इस सवाल से हैरान और असंतुष्ट छात्र कोर्ट पहुंच गए,कोर्ट में मामला सुनकर जज भी हैरान रह गए,आगे जो हुआ वो आपको चौंका देगा,,,

 

 

सवाल पर विवाद पहुंचा हाईकोर्ट 

दरअसल , उत्तराखंड न्यायिक सेवा सिविल जज प्रारंभिक परीक्षा में तीन सवालों को लेकर असफल आवेदकों ने आपत्ति जताई और  इससे संबंधित याचिका भी नैनीताल हाई कोर्ट में दायर की है। इस पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ के समक्ष विकट समस्या खड़ी हो गई, कि आखिर इस पर क्या फैसला दिया जाय,,,जिस सवाल पर आपत्ति जताई गई थी, उसने हाई कोर्ट के जजों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया।

हुआ कुछ यूँ कि उत्तराखंड न्यायिक सेवा की परीक्षा में एक सवाल पर विवाद सामने आया है। परीक्षा में पूछा गया था कि एक मेडिकल स्टोर में बम रखने वाले और विस्फोट से पहले लोगों को बाहर निकलने के लिए 3 मिनट का समय देने वाले एक व्यक्ति के खिलाफ आईपीसी की किस धारा के तहत केस दर्ज किया जा सकता है? सवाल उत्तराखंड की न्यायिक सेवा की परीक्षा में पूछा गया था, जिसे लेकर विवाद अदालत की चौखट तक पहुंच गया । परीक्षा में असफल रहने वाले छात्रों ने विषय-विशेषज्ञों द्वारा बताए गए इस सवाल के जवाब पर असंतोष जताया है और दो अन्य सवालों पर आपत्ति के साथ कोर्ट में याचिका दाखिल कर दी। कोर्ट ने आयोग को दो सवालों पर फिर से विचार करने का सुझाव भी दे दिया है।

ऐसा सवाल जिस पर जज भी हो गए कन्फ्यूज 

जिस तीसरे सवाल को लेकर जज भी दुविधा में आ गए वो सवाल हम एक बार फिर हूबहू दोहराते हैं जो शायद आपको भी पूरी तरफ कन्फूज कर देगा, दरसल सवाल ये था कि अगर   ‘A ‘ एक मेडिकल स्टोर में बम रख देता है और विस्फोट से पहले लोगों को बाहर निकलने के लिए 3 मिनट का समय देता है। ऐसे में ‘बी’ जो गठिया का मरीज है, वह भागने में विफल रहता है और मारा जाता है। ऐसे में ‘ए’ के खिलाफ आईपीसी की किस धारा के तहत केस दर्ज किया जा सकता है?  जवाब के लिए जो विकल्प दिए गए थे, उनमें से एक ये था  कि आरोपी के खिलाफ धारा 302 के तहत केस दर्ज किया जाना चाहिए जो हत्या के आरोपियों पर लगायी जाती है।

याचिकाकर्ताओं ने उत्तर के रूप में इसी विकल्प को चुना था लेकिन आयोग की ओर से जो उत्तर उपलब्ध कराया गया था, उसमें इस विकल्प को सही नहीं माना गया था। आयोग के अनुसार सही जवाब धारा 304 था, जो हत्या की श्रेणी में नहीं बल्कि गैर-इरादतन हत्या के मामलों में लगाया जाता है। आयोग का तर्क है कि उपर्युक्त मामला आईपीसी की धारा 302 से संबंधित नहीं है बल्कि यह इरादे के अभाव में या फिर लापरवाही के कारण मौत से संबंधित है।  मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि हमारे लिए यह कहना पर्याप्त है कि विषय विशेषज्ञ ने मोहम्मद रफीक के मामले में 2021 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया है। यह अदालत द्वारा दी गई राय के संबंध में कोई भी विचार देने से बचती है।

बता दें कि मोहम्मद रफीक मामले में मध्य प्रदेश में एक पुलिस अधिकारी को एक तेज रफ्तार ट्रक ने कुचल दिया था, जब उन्होंने वाहन पर चढ़ने की कोशिश की थी। ड्राइवर रफीक ने अधिकारी को धक्का देकर गिरा दिया था।
इस बीच याचिका ने कानूनी हलकों में इस बात पर बहस छेड़ दी है कि क्या किसी आतंकवादी कृत्य को ‘हत्या’ की बजाय ‘लापरवाही के कारण मौत’ के रूप में देखा जा सकता है। हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील  बताते हैं  कि यह स्पष्ट रूप से लापरवाही का मामला नहीं है क्योंकि अधिनियम स्वयं इरादे को दर्शाता है। ‘ए’ द्वारा किया गया  काम ऐक्ट के परिणामों को जानता था। ऐसे में बिना किसी संदेह के यह मामला आईपीसी की धारा 302 यानी हत्या के दायरे में आता है।

 

आयोग के जवाब पर इस तरह उठे सवाल 

आयोग द्वारा उपलब्ध कराए गए जवाब जिसे आयोग की ओर से सही जवाब बताया गया है. उसको 
हाईकोर्ट के वकील की दलील गलत साबित करती दिखाई देती है. हाई कोर्ट ने आयोग को दोनों सवालों पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया है। जबकि तीसरे प्रश्न के संबंध में कोर्ट ने कहा कि इसे पूरी तरह से संवेदनहीन तरीके से तैयार किया गया था। अदालत ने कहा कि हमें यह देखकर दुख होता है कि प्रश्न को पूरी तरह से कैजुअल अप्रोच के साथ तैयार किया गया है। अदालत ने कहा कि पूरी प्रक्रिया चार सप्ताह के भीतर पूरी की जानी चाहिए और एक नई मेरिट सूची तैयार की जानी चाहिए जिसके आधार पर चयन प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए।

अब इस सवाल के बाद एक नई बहस कानून के नियमों को लेकर भी शुरू हो गयी है तो दूसरी तरफ आयोग की काम करने सहित प्रश्नपत्र बनाने को लेकर उनकी गंभीरता पर भी सवाल खड़े हो गए हैं,,,कोर्ट ने भी आयोग की सवेंदनहीनता को माना है,,,आयोगों पर उत्तराखंड में सवाल उठना कोई नई बात नहीं है बल्कि उत्तराखंड में परीक्षा आयोजित करने वाले आयोग पिछले काफी समय से सवालों के घेरे में हैं, चाहे वो uksssc रहा हो या अब ukpsc हो, इन आयोगों की विश्वसनीयता पिछले काफी समय से  सवालों के घेरे में रही है, हाल ही में सामने आये भर्ती घोटालों ने तो वैसे भी उत्तराखंड का नाम पूरे देश में प्रसिद्ध कर  दिया है, इन भर्ती घोटालों के खिलाफ बेरोजगार छात्र कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं,और आज भी उनका प्रदर्शन जारी है, बेरोजगारों की सिर्फ यही मांग है कि इन भर्ती घोटालों की  निष्पक्ष जांच सीबीआई से करवाई जाय,पर आज तक उत्तराखंड की सरकार उनकी मांगों को मानना तो दूर आंदोलन कर रहे बेरोजगारों से मिलने तक नहीं गयी,,,आयोगों की घटती निष्ठा इस प्रदेश के बेरोजगार छात्रों के भविष्य के लिए एक बड़ी चिंता है और प्रदेश सरकार पर लगता एक बड़ा प्रश्न चिन्ह,,,जो परीक्षाये एक पारदर्शी तरिके से कराने में नाकमयाब साबित हुई है,,, बाकी रही सही कसर इस तरह के सवाल पूरे कर रहे  है,,,    

सुसाइड शहर बनता कोटा, आखिर क्यों नही रुक रहे कोटा में सुसाइड केस…

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आखिर क्या है कोटा की कहानी-

कोरोना महामारी जब चरम पर थी तब देश में नेशनल एजुकेशन पॉलिसी आयी… इस पॉलिसी में कोचिंग कल्चर की आलोचना की गई थी. कोचिंग संस्थानों में सबसे आगे माने जाने वाले शहर राजस्थान के कोटा में कोचिंग कल्चर,,  स्टूडेंट्स की जान ले रहा है. अकेले कोटा में इस साल अगस्त तक 23 बच्चों ने खुद को मौत के हवाले कर दिया. ये छात्र वहां रहकर कोचिंग संस्थानों में विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे। आखिर वहां छात्रों द्वारा आत्महत्या का दौर खत्म क्यों नहीं हो रहा है?  क्या कारण है कि सुनहरे भविष्य की राह पर चलने वाले छात्र अपना जीवन खत्म करने को मजबूर हो रहे हैं? छात्रों में ऐसा नकारात्मक दृष्टिकोण क्यों आ रहा है? अब सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर क्यों बच्चे ऐसा कदम उठा रहे हैं. इसके पीछे आखिर क्या कारण है.

 

क्यों बच्चों पर बढ़ रहा है बोझ-

ये एक तरह की ज़िम्मेदारी बच्चों के कंधों पर तब डाल दी जाती है, जब उनका कंधा पहले से ही 10 किलो के स्कूली बैग से झुका होता है। ऐसे बच्चे कुछ और बनने का सपना नहीं देख पाते, उनकी आंख खुलने से पहले ही उन्हें एक सपना दिखा दिया जाता है IIT या NEET क्वालीफाई करके देश के किसी बड़े मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने का, बिना ये जाने कि उनमें वो सपना हासिल करने की क्षमता है भी या नहीं।  इन छोटे-छोटे रंगीन गुब्बारों में इतनी ज्यादा आईआईटी और नीट के सपने की हवा भर दी जाती है कि वो आसमान में उड़ने की बजाय कोटा में पहुंच कर फट जाते हैं. बीते दिनों तीन छात्रों के साथ भी ऐसा ही हुआ। प्रणव , उज्ज्वल , और अंकुश  ये 17 -18 साल के तीन  छात्र उस उम्र में दुनिया को अलविदा कर के चले गए. अब तक के जांच में जो बात सामने निकल कर आई है वो ये है कि ये तीनों छात्र पढ़ाई के दबाव की वजह से डिप्रेस थे और कई दिनों से अपनी कोचिंग और क्लासेज भी मिस कर रहे थे।

आज व्यक्ति का मूल्यांकन उसके मूल्यों और सही आचरण से नहीं होता, बल्कि उसके द्वारा कमाए धन से माना जाता है। दूसरा कारण माता-पिता की महत्वाकांक्षा है। आज हर माता-पिता अपने बच्चों को डॉक्टर और इंजीनियर के अतिरिक्त और कुछ नहीं बनाना चाहता। आईआईटी और एम्स से नीचे किसी इंस्टीट्यूट में वे अपने बच्चों का एडमिशन नहीं करवाना चाहते। अभिभावकों के जीवन में बच्चों की रुचियों, उनकी महत्वाकांक्षाओं का कोई महत्व नहीं होता। माता-पिता अपने दृष्टिकोण के अनुसार उनके लिए दिशा निर्धारित करते हैं। उन्हें क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, इसका निर्धारण माता-पिता बच्चों पर न छोड़कर स्वयं करते हैं।

 

आखिर बच्चे क्यों उठा रहे हैं ये कदम?

कोचिंग संस्थानों की इस मानसिकता से कहीं न कहीं वह छात्र भी प्रभावित होता है, जो इनसे जुड़ा है। कोचिंग संस्थान जितने बच्चों का दाखिला करते हैं, उन पर उन्हें बराबर ध्यान देना चाहिए और उनकी क्षमतानुसार उन्हें शिक्षा देने के साथ उनकी प्रतिभा का विकास करना चाहिए, पर वे सभी को एक डंडे से हांकते हैं। पाठ्यक्रम पूरा करने की होड़ में कोचिंग इंस्टीट्यूट यह भूल जाते हैं कि कुछ बच्चे सबके साथ दौड़ नहीं सकते। ऐसे ही छात्रों के मन में हीनता बोध का जन्म होता है, जो उन पर इस कदर हावी हो जाता कि उन्हें लगने लगता है कि वे अब कुछ नहीं कर सकते। उन्हें ग्लानि होती है कि उन्होंने अपने माता-पिता का पैसा बर्बाद कर दिया। जब ये ग्लानि अपने चरम पर पहुंच जाती है तो वे आत्महत्या की ओर कदम बढ़ा लेते हैं,

कोटा में अब तक इतने छात्रों ने किया सुसाइड-

कोटा में इस वर्ष अब तक 23 छात्रों की मौत सुसाइड करने से हुई है. यह घटना सिर्फ इस बार की नहीं है. पिछले साल भी कोटा में 17 छात्रों की मौत आत्महत्या करने से हुई थी. 2022 के पहले भी यह होता रहा रहा है.. 27 अगस्त को टेस्ट में कम नंबर आने पर नीट की तैयारी कर रहे दो छात्रों ने आत्महत्या कर ली… आखिरी कैसे और कब कोटा में रुकेगा छात्रों की आत्महत्या का सिलसिला…  आपको इसके बारे में आगे बताये पहले एक नजर कोटा शहर में हुई उन छात्रों की मौत के आंकड़ों पर डालते हैं जो आपको सोचने को मजबूर कर देंगे,, कोटा में साल 2015 में  17 छात्रों की  मौतें  जबकि  2016 में  16 छात्रों की मौतें..  2017 में  7 छात्रों की मौतें , 2018 में  8 छात्रों की मौतें,  2020 में  4 की मौतें वहीं 2022 में  15 और इस साल यानी 2023 में अब तक 23 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं,,


क्या कहते हैं NCRB के आंकड़े-

NCRB के आंकड़ों पर नज़र डालें तो हर साल देश में हजारों छात्र आत्महत्या करते हैं.. पिछले पांच साल के आंकड़ों पर नज़र डालें तो 2017 में जहां कुल 9 हजार 905 छात्रों ने आत्महत्या की थी, वहीं साल 2018 में 10 हजार 159 छात्रों ने आत्महत्या की थी… 2019 में ये आंकड़ा 10 हजार 335 था और 2020 में ये 12 हजार 526 तक पहुंच गया..  जबकि, 2021 में देश में कुल 13 हजार 89 छात्रों ने आत्महत्या की… आपको बता दें 2020 से 2021, जब सबसे ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की उस वक्त कोरोना काल चल रहा था और ज्यादातर छात्र अपने घरों से पढ़ाई कर रहे थे.. ये सोचने वाली बात है कि हॉस्टल में रहने की बजाय जब छात्रों को घर पर रह कर पढ़ाई करनी पड़ी तो उनमें आत्महत्या की दर ज्यादा थी। NCRB के आंकड़े में एक और बात सामने आई की आत्महत्या करने वाले छात्रों में लड़कों की संख्या लड़कियों की अपेक्षा ज्यादा थी।

ये राज्य आत्महत्या के मामले में सबसे ऊपर-

छात्रों के आत्महत्या के मामले में देश के जो पांच राज्य सबसे ऊपर हैं, उनमें महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और ओडिशा हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, साल 2021 में महाराष्ट्र के 1 हजार 834 छात्रों ने आत्महत्या की , वहीं मध्य प्रदेश के 1 हजार 308 छात्रों ने आत्महत्या की। जबकि, तमिलनाडु के 1 हजार 246 छात्रों ने आत्महत्या को चुना। वहीं कर्नाटक के 855 और ओडिशा के 834 छात्रों ने आत्महत्या कर ली… हालांकि, एनसीआरबी की रिपोर्ट में इस बात का जिक्र नहीं है कि छात्रों के आत्महत्या के पीछे की वजह क्या है, लेकिन ये जरूर बताया गया है कि साल 2021 में जिन 13 हजार 89 छात्रों ने आत्महत्या की थी, उनमें 10 हजार 732 की उम्र 18 साल से कम थी।

साल 2020 के मिड में आई नेशनल एजुकेशन पॉलिसी में कहा गया था कि कोचिंग कल्चर पर लगाम लगाने के लिए करिकुलम और एग्जाम सिस्टम में व्यापक सुधार किए जाएंगे, लेकिन कोटा के हाल से साफ है कि इस ओर कोई खास कदम नहीं उठाए गए. आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं. अगर इंजीनियरिंग और मेडिकल के करिकुलम और एक्जाम सिस्टम में बदलाव होते तो उसका असर कोटा की कोचिंग फैक्ट्रीज पर देखने को मिलता, लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहते हैं.

इस साल सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले-

एक रिपोर्ट के मुताबिक कोटा में 4 हजार होस्टल्स और 40 हजार पेइंग गेस्ट हैं. इन ठिकानों में देशभर से आए 2 लाख से ज़्यादा बच्चे रहते हैं. ये बच्चे जॉइंट एंट्रेंस एग्जाम यानी JEE और NEET की रेस का हिस्सा होते हैं. पढ़ाई की रेस में लगे युवा उम्मीदवारों में से 23 ने इस साल अगस्त तक जान दे दी. छात्रों की आत्महत्या के मामले में ये पिछले 8 सालों का सबसे बड़ा आंकड़ा है. किसी कदम का कैसा असर होता है उसको समझने का सबसे लेटेस्ट एग्जांपल है CUET  यानी कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट… मामला डीयू जैसी यूनिवर्सिटी का है. डीयू में पहले मेरिट बेसिस पर एडमिशन मिलता था. ऐसे एडमिशन के मामले में CBSE  बोर्ड वाले आगे निकल जाते थे और स्टेट बोर्ड वाले मार खा जाता थे. माना यही जाता है कि CBSE की तुलना में स्टेट बोर्ड काफी कम नंबर देते हैं.

 

एग्जाम पर दो महीने की पाबंदी-

एक बच्चे का आधे से ज्यादा समय केवल स्कूल में निकल जाता है. इसके बाद वह ट्यूशन या कोचिंग में पिसता है. फिर स्कूल और ट्यूशन में मिली एक्टिवीटीज में लग जाता है. ऐसे में अगर कोई सी भी चीज थोड़ी भी इधर-उधर हो जाए तो न जाने उसके मेंटल हेल्थ पर क्या असर पड़ता होगा…  वो भी उस दौर में जब अचीवमेंट्स को सोशल मीडिया पर सेलिब्रेट किया जाता है… लाइक्स और कमेंट्स वाले सेलिब्रेशन का भी बच्चों के दिमाग पर जो असर पड़ता है, शायद ही उसकी कोई मैपिंग हुई हो. हालांकि एक बात तय है कि मौजूदा कोचिंग सिस्टम का स्टूडेंट्स के दिमाग पर तगड़ा असर है. शायद इसी वजह से 23 बच्चों की मौतों की वजह से कोटा के कोचिंग सेंटर में होने वाले टेस्ट और एग्जाम पर दो महीने के लिए पाबंदी लगा दी गई है. ये पाबंदी DISTRICT ADMINISTRATION ने लगाई है… इस तरह का बैन जरूरी भी है. बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर बनाने के प्रेशर में घर वाले 13 से 14 साल की उम्र में ही अपने से दूर करके कोटा की कोचिंग फैक्ट्री में मजदूरी करने भेज देते हैं,..  जबकि जेईई-नीट की परीक्षाएं 12वीं के बाद होती हैं,,, लेकिन स्कूलिंग छुड़वाकर, अटेंडेंस के मामले में तिकड़म लगाकर बच्चों को कोटा फैक्ट्री का मजदूर बना दिया जाता है. छोटी उम्र में परिवार से दूर एक नीरस से शहर में ये बच्चे जब कोचिंग सेंटर्स में एडमिशन लेते हैं तब इन्हें कंपार्टमेंट लाइज कर दिया जाता है.

2021 में 13 हजार से अधिक की मृत्यु आत्महत्या से-

कुछ हफ्ते पहले, राजस्थान के ‘कोचिंग हब’ कोटा में एक अनोखा ‘आत्महत्या-विरोधी’ उपाय लागू किया गया था. इस उपाय के तहत पंखे में स्प्रिंग लगाने की बात की गयी. ऐसे में अगर कोई छात्र लटककर आत्महत्या करने की कोशिश करता है, तो स्प्रिंग फैलेगा और छात्र की मौत नहीं होगी. कोचिंग हब ‘कोटा’ की स्थिति वास्तव में बेहद गंभीर है… लेकिन छात्रों में बड़े पैमाने पर हो रही आत्महत्या की घटना केवल कोटा तक ही सीमित नहीं है. NEET परीक्षा विवाद को लेकर तमिलनाडु में कम से कम 16 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी… कोलकाता के जादव पुर विश्वविद्यालय में, इसी महीने अगस्त की शुरुआत में कथित तौर पर रैगिंग और यौन उत्पीड़न के बाद एक 17 वर्षीय किशोर ने आत्महत्या कर ली. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2021 की रिपोर्ट के अनुसार 2021 में करीब 13 हजार से अधिक छात्रों की मृत्यु आत्महत्या करने से हुई थी.

युवा भारतीयों को परेशान करने वाले सभी मुद्दों के बीच, केवल आत्महत्या पर बात करना कोई समाधान नहीं है. इससे संबंधित अन्य कई कारक है जिन पर बात होनी चाहिए. कोटा माता-पिता के सपनों की फैक्ट्री के रूप में जाना जाता है. यहां मेडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स भारी संख्या में कोचिंग करने आते हैं. उन स्टूडेंट्स पर अपने और माता-पिता के सपनों को पूरा करने की पूरी जिम्मेदारी होती है. इस दौरान छात्र अपनी इच्छाओं और क्षमता की परवाह किए बगैर अपना लक्ष्य पूरा करने की पूरी कोशिश करते हैं. और जब नतीजा सामने नहीं आता, तो वो आत्महत्या करना ही उचित समझते हैं…

किसी भी फैक्टर पर ध्यान नहीं दिया जाता-

यह सच है कि नेशनल सोसाइटी ऑफ प्रोफेशनल सर्वेयर्स (NSPS) के साथ-साथ अन्य रिपोर्ट्स में भी आत्महत्या के तरीकों तक पहुंच को कम करने की सिफारिश की गई है. लेकिन मूल कारणों पर बात किए बिना, आत्महत्या के तरीकों पर बात करना न केवल असंवेदनशील है, बल्कि अपने उद्देश्य में नाकाम होना भी है. दरअसल मेंटल हेल्थ को आजकल बायो साइको सोशल लेंस से देखा जा रहा है. जहां आत्महत्या की प्रवृत्ति बायोलॉजिकल, साइकोलॉजिकल और सोशल फैक्टर से प्रभावित होती है. लेकिन जब हम इन मामलों का आकलन करते हैं, तो बस बायोलॉजिकल और साइकोलॉजिकल फैक्टर पर ही ध्यान दिया जाता है. सोशल फैक्टर पर बात तक नहीं होती है. कई संस्थानों के मामले में तो इन दोनों फैक्टर पर भी ध्यान नहीं दिया जाता,,,यह सोचना गलत है कि विद्यार्थियों पर केवल सफल होने का दबाव होता है.


कई कारणों की वजह से होती है ये दिक्कतें- 

आत्महत्या की प्रवृत्ति अक्सर कई कारणों की वजह से यानी मल्टी फैक्टोरियल होती है. कोचिंग संस्थानों में छात्र कभी अपना तो कभी अपने परिवार का सपना पूरा करने आते हैं. जब वो अपने परिवार से दूर नए-नए बाहर आते हैं तो बहुत कुछ ऐसा होता है, जिसके बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा होता. पारिवारिक समस्या, बेरोजगारी, मानसिक बीमारियों से लेकर भेदभाव और दुर्व्यवहार तक. ये कई कारक होते हैं, जो मिलकर आत्महत्या की प्रवृत्ति में योगदान करते हैं.यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी स्टूडेंट्स सामाजिक और आर्थिक रूप से समान नहीं होते हैं.

वित्तीय रूप से कमजोर वर्ग से आने वाले छात्रों पर जल्दी से कुछ बनकर, अपने परिवार का भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी अधिक होती है. नौकरी न मिलने, प्लेसमेंट न होने की संभावना हर संस्थान में ज्यादा होती है. लेकिन कोई भी संस्थान इस पर बात करना जरूरी नहीं समझता… न्यूमेरिकल questionऔर हाई स्कोरिंग इक्वेशन के शॉर्टकट याद करते-करते स्टूडेंट्स का मेंटल हेल्थ बुरी तरह से खत्म हो जाता है.. आंकड़ों की बात करें, तो NCRB डेटा केवल उन्हीं नंबरों की गिनती करता है, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु होती है. जो आत्महत्या करने में सफल हो गए होते हैं.. लेकिन उनका क्या, जो इस परिस्थिति से गुजरे तो सही लेकिन आत्महत्या करने में सफल नहीं हो पाएं…

 

कोई भी व्यक्ति इसका शिकार हो सकता है-


आत्महत्याओं के प्रति दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है,,,एक ऐसा देश जहां एंग्जायटी जैसे मेंटल कंडीशन तक पर बात नहीं होती. इसे एक टैबू की तरह लिया जाता है और इससे पीड़ित लोगों को जज किया जाता है. वहां आत्महत्या के मुद्दे पर चर्चा करना बेहद मुश्किल है. ऐसा नहीं है कि जो लोग मानसिक तौर पर कमजोर होते हैं, केवल वो ही आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं. कभी-कभी हमारे ईर्द-गिर्द की परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि मजबूत से मजबूत हृदय वाला व्यक्ति भी इसका शिकार हो जाता है. व्यक्ति के चारों ओर ऐसी तनावपूर्ण स्थितियां होती हैं जो उसे इस ओर ले जाती हैं. उदाहरण के लिए जब एक छात्र किसी तरह के बदमाशी, यौन या शारीरिक शोषण, पढ़ाई में खराब प्रदर्शन से लेकर लिंग, धर्म या जाति के आधार पर शोषित होता है, तो वह ऐसा कर बैठता है.

अगर हम में से कोई भी एक बार इस परिस्थिति का डटकर सामना करने की कोशिश करें, तो शायद हम खुद को बचा सकें. केवल हमें एक बार साहस करके अपनी बात रखने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए संस्थान के दृष्टिकोण में भी बदलाव की आवश्यकता है. स्कूल-कॉलेज, कोचिंग संस्थानों में आत्महत्या से संबंधित हिंसा को रोकने पर बात होनी चाहिए. हर शिक्षा संस्थान में भेदभाव पर चर्चा करनी चाहिए. टीचर्स व प्रोफेसर स्टूडेंट्स के आवश्यकता के अनुसार उनकी मदद करें ये सुनिश्चित करना चाहिए… इसके अलावा, सभी छात्रों के लिए संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य सहायता सहित स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए. फिलहाल फोकस सिर्फ आत्महत्या से होने वाली मौतों को कम करने पर है….

छात्रों के जीवन पर विचार करने की है आवश्यकता-
अब ये भी सवाल उठता है कि संस्थाएं आत्महत्याओं को कैसे रोक सकती हैं ? इसके लिए हमें प्राथमिक स्तर पर इस स्थिति को रोकने के तरीकों पर विचार करने की जरूरत है. अगर हम स्टूडेंट्स के पर्सनल लेवल पर जाकर बात करें, तो सबसे पहले हमें उन्हें उस जगह से निकालना चाहिए,, जहां वो किसी कारण से परेशानी का सामना कर रहे हैं. या फिर किसी तरह की हिंसा का शिकार हो रहे हैं. न कि उनके कमरे से पंखा निकाल लेना चाहिए कि वो सुसाइड न करे. हमें यह सोचना चाहिए कि उक्त छात्र अपना जीवन समाप्त करने का प्रयास क्यों कर रहा है ? निश्चित तौर पर, सभी कारण टालने योग्य तो नहीं ही होंगे. यहां तक कि परिवारों को भी छात्रों के जीवन में उनकी भूमिका पर विचार करने की जरूरत है. सब लोग डॉक्टर और इंजीनियर बन जाएं, ये जरूरी नहीं. कई लोग तो ऐसी डिग्री लेने के बाद अपना रास्ता बदल देते हैं.

 

आत्महत्या की रोकथाम जरूरी-

क्या एक युवा किशोर से ये उम्मीद करना कि वो उस कंपटीशन में भाग ले और टॉप करे. वो भी ऐसे में  जो उसने कभी खुद के लिए चुना ही नहीं. क्या ये उचित है? भारत में युवाओं की आबादी बहुत अधिक है और 15 से 29 वर्ष आयु वर्ग में मृत्यु का प्रमुख कारण आत्महत्या है. इनको रोकने के लिए कई प्रयास जरूरी हैं, जैसे मानसिक स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच में सुधार और  इसमें गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना, स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों को संबोधित करना, इसमें नौकरी के अवसर प्रदान करना, वित्तीय सहायता, भेदभाव और हिंसा को रोकना व इन विषयों पर चर्चा करना और सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देना शामिल है…आत्महत्या की रोकथाम के बारे में जागरूकता बढ़ाना और  इसमें लोगों को आत्महत्या के खतरनाक कारकों और सहायता कैसे प्राप्त करें इसके बारे में शिक्षित करना,आत्महत्या जैसी मानसिकता से जूझ रहे लोगों की मदद करना, इसमें भावनात्मक सहायता, व्यावहारिक मदद और संसाधनों के लिए तंत्र बनाना शामिल है…साथ ही सबसे महत्वपूर्ण सभी शैक्षणिक संस्थानों को आत्महत्या से निपटने के लिए अपने तंत्र पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.

2024 लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी सरकार को परेशानी में डाल सकते हैं ये सभी मुद्दे…

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बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार. ‘हम मोदी जी को लाने वाले हैं, अच्छे दिन आने वाले हैं..  2014 के लोकसभा चुनाव में जब ऐसे नारे सामने आए तो कांग्रेस सरकार से नाखुश जनता को एक उम्मीद दिखी. उम्मीद कि मोदी सरकार आने के बाद वाकई उनके ‘अच्छे दिन’ आ जाएंगे. इसी उम्मीद से 17 करोड़ से ज्यादा लोगों ने बीजेपी को वोट दे दिया. बीजेपी ने 282 सीटें जीतीं. ये पहली बार था जब किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी ने बहुमत हासिल किया था. 26 मई 2014 को नरेंद्र मोदी ने पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली.  2019 में दूसरी बार 23 करोड़ से ज्यादा लोगों ने बीजेपी को वोट दिया और  बीजेपी ने 303 सीटें जीतीं. नरेंद्र मोदी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने.   प्रधानमंत्री मोदी ने 2025 तक भारत की GDP 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने का टारगेट रखा है. हालांकि, अभी के हालात को देखते हुए ये टारगेट 2025  तक तो पूरा होना बहुत मुश्किल लगता है ।   

 
मोदी सरकार की नीतियों पर कई सवाल- 

मोदी सरकार कुछ समय बाद फिर देश के आम चुनाव में उतरने वाली है तो तीसरी बार सत्ता तक पहुंचने से पहले उनको जनता के कई सवालों के जवाब भी देने होंगे ? मोदी सरकार के इन 9 सालों के कार्यकाल पर नजर डालें तो कई ऐसे तथ्य  सामने आते  है, जो मोदी सरकार की नीतियों पर कई सवाल करती हैं,,, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनावों में  डॉलर की गिरती कीमत को लेकर कांग्रेस सरकार को खूब घेरा था, कि आखिर भारत का रुपया डॉलर के मुकाबले को लेकर इतना क्यों गिर रहा है, लेकिन 2014 में 72 पर चल रहा डालर मोदी सरकार में आज 82 पर पहुंच गया है।

 
अर्थव्यवस्था का क्या हुआ ? 

मोदी सरकार इन 9 सालों में कई मोर्चों पर विफल नजर आती है, मोदी सरकार में विदेशी कर्ज भी देश पर खूब  बढ़ा है. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल औसतन 25 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज भारत पर बढ़ा है. मोदी सरकार से पहले देश पर करीब 409 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज था, जो अब बढ़कर डेढ़ गुना यानी करीब 613 अरब डॉलर पहुंच गया है ।   

 
मोदी सरकार में बेरोजगारी का आंकड़ा- 

मोदी सरकार में सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा रोजगार को लेकर सामने आता है, मोदी सरकार में बेरोजगारी दर जमकर बढ़ी है. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक  बेरोजगारी के आंकड़ों पर नजर रखने वाली निजी संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी CMIE के मुताबिक, अभी देश में करीब 41 करोड़ लोगों के पास रोजगार है. जबकि  मोदी सरकार के आने से पहले 43 करोड़ लोगों के पास रोजगार था. यानी हर साल 2 करोड़ रोजगार देने का वादा करने वाली मोदी सरकार में रोजगार मिलने के बजाय उल्टा २ करोड़ रोजगार कम हो गए।

 
नौकरियों का क्या हुआ ? 

CMIE ने पिछले साल एक रिपोर्ट जारी की थी. इसमें दावा किया गया था कि भारत में अभी 90 करोड़ लोग नौकरी के लिए योग्य हैं. इनमें से 45 करोड़ लोगों ने तो अब  नौकरी की तलाश करना ही छोड़ दिया है. यानी कि इस देश के 45 करोड़ युवा इतने निराश हैं कि वो मान चुके हैं कि अब उनको नौकरी नहीं मिल पायेगी,, ये आंकड़ा निश्चित रूप से इस देश के भविष्य उन युवाओं की हताशा को दर्शाता है,,, 2019 के चुनाव के बाद सरकार के ही एक सर्वे में सामने आया था कि देश में बेरोजगारी दर 6.1% है. ये आंकड़ा 45 साल में सबसे ज्यादा था. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मोदी सरकार के आने से पहले देश में बेरोजगारी दर 3.4% थी, जो इस समय बढ़कर 8.1% हो गई है. ये आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार किस तरह रोजगार के मुद्दे पर पूरी तरह विफल साबित हुई और आने वाले चुनावों में देश के युवा सरकार से इस पर जवाब मांगेंगे जो की सरकार की परेशानियां जरुर बढ़ाएगी।

शिक्षा पर मोदी सरकार के आंकड़े-

किसी भी देश के विकास के लिए अच्छी शिक्षा बहुत जरूरी है. मोदी सरकार में शिक्षा का बजट बढ़ा है,  9 साल में शिक्षा पर खर्च का बजट 30 हजार करोड़ रुपये  बढ़ा है. लेकिन देश में स्कूल भी कम हो गए हैं, शिक्षक भी बढ़े हैं लेकिन छात्र नहीं . मोदी सरकार के आने से पहले देश में 15.18 लाख स्कूल थे, जो अब घटकर 14.89 लाख हो गए हैं. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के मुताबिक, देश में अभी भी करीब 30 फीसदी महिलाएं और 15 फीसदी पुरुष अनपढ़ हैं. 10 में से 6 लड़कियां 10वीं से ज्यादा नहीं पढ़ पा रही हैं. वहीं, 10 में से 5 पुरुष ऐसे हैं जो 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ रहे हैं।

 
मोदी सरकार में बेतहाशा बढ़ती महंगाई-

अब बात आती है देश के सबसे बड़े मुद्दे की,,जिस मुद्दे ने मोदी  को सत्ता के सबसे ऊँचे मुकाम पर पहुंचाया और भारतीय जनता पार्टी को अब तक का सबसे प्रचंड जनादेश दिलवाया,,, जी हाँ  ‘बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का ये नारा था. जिसे पूरी भाजपा ने खूब जोर शोर से देश की जनता को सुनाया था लेकिन इसी मुद्दे पर सरकार सबसे ज्यादा मात खा रही है,,,  मोदी सरकार में महंगाई बेतहाशा बढ़ी है, पेट्रोल-डीजल की कीमतों में तो आग लग गई है. 9 साल में पेट्रोल की कीमत 24 रुपये और डीजल की कीमत 34 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा बढ़ी है. पेट्रोल-डीजल के अलावा गैस सिलेंडर की कीमत भी तेजी से बढ़ी है. मोदी सरकार से पहले सब्सिडी वाला सिलेंडर 414 रुपये में मिलता था. लेकिन अब सिलेंडर पर नाममात्र की सब्सिडी मिलती है. अभी रसोई गैस सिलेंडर की कीमत 11 सौ रुपये तक पहुंच गई है. इतना ही नहीं, 9 साल में एक किलो आटे की कीमत 52%, एक किलो चावल की कीमत 43%, एक लीटर दूध की कीमत 56% और एक किलो नमक की कीमत 53% तक बढ़ गई है ।   

सभी चीजों पर बढ़ती महंगाई के आंकड़े- 

कुछ समय  पहले टमाटर के साथ सब्जियों के बढ़े दाम ने परेशानी बढ़ाई तो उसके बाद मसालों में आई तेजी ने खाने का स्वाद बिगाड़ दिया। वहीं अब दालों में भी महंगाई ने किचन का पूरा बजट ही गड़बड़ा दिया है। दालों के दाम में 10 से 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। बीते तीन महीने में दाल-चावल और आटे के दामों में काफी वृद्धि हुई है। इससे लोग खासे परेशान हैं। किराना स्टोर से मिले दामों को अगर मिलाया जाए तो बीते तीन महीने में दाल-चावल और आटे के दामों में काफी वृद्धि हुई है। तीन माह पूर्व 140 से 150 रुपये में बिकने वाली अरहर की दाल  180 रुपये तक पहुंच गई है। चना दाल भी 150 से 190 रुपये किलो के भाव पर बिक रही है। दालों के साथ-साथ आटा और चावल का रेट भी तीन महीने में करीब 10 से 20 प्रतिशत बढ़ा है। पांच किलो आटे के बैग की कीमत 225 रुपये है।  कुछ ऐसी स्थिति मसालों की भी है। मसालों में जीरे के दाम में सबसे ज्यादा 40 फीसदी वृद्धि हुई है। तीन महीने पहले 100 ग्राम जीरा जहां 45 रुपये का था। वहीं अब ये 360 रुपये प्रति किलो  तक पहुंच गया है।  गैस सिलेंडर पहले से महंगा है। वहीं, तेल, सब्जियों, मसालों के बाद अब दाल भी और महंगी हो गयी है। ऐसे में घर चलाने के लिए हर चीज में बजट कटौती नहीं की जा सकती। जिसका असर मसालों व दालों में भी देखने को मिल रहा है। आटा चावल में भी वृद्धि हुई है। टमाटर, अदरक समेत अन्य हरी सब्जियां महंगी थीं तो लोग दाल व मसालों से काम चला लेते थे, लेकिन अब ये भी महंगे हो गए हैं। ऐसे में आम और गरीब लोगों पर सबसे अधिक असर पड रहा है।

 

वादों और दावों का उत्तराखंड, जमीनी हकीकत से मुंह छुपाती सरकारें…

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हर देश में रहने वाले लोग पहले अपना राजा चुनते हैं,,, ताकि उसे किसी भी समस्या से जूझना ना पड़े, और राजा का भी यही कर्तव्य होता है  कि वो अपनी  प्रजा को  होने वाली हर समस्या और परेशानियों से  बाहर निकाले. लेकिन जब उसी जनता की जरूरत और बढ़ती परेशानियों को उसे खुद ही झेलना पड़े तो राजा का कर्तव्य और उसकी प्रजा के लिए उसके मायने वहीं पर खत्म हो जाते हैं


उत्तराखंड प्रदेश में दम तोड़ती सभी सेवाएं-

सभी जानते हैं कि वादों और दावों में गठन के समय से ही उत्तराखंड में विकास तेजी से भाग रहा है. भले ही वो कागजों तक ही हुआ हो, क्योकि धरातल पर जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी को बयां करती है. और ये सिर्फ आज ही नहीं बल्कि हमेशा से होता आया है. उत्तराखंड जैसा राज्य आज किसी भी चीज में पीछे नहीं रह गया  है,,, फिर चाहे वो अपराध हो, पलायन को मजबूर वो लोग हों जो ना चाहते हुए भी सब कुछ त्याग कर चले गए… ‘एक नई जगह अपनी दुनिया बसाने,  फिर चाहे वो बेरोजगारी हो, या फिर दम तोड़ती हुई स्वास्थ्य सेवाएं हो, चाहे वो बेहतर शिक्षा का विषय ही क्यो न हो.  ये सभी चीजें धरातल पर दावों और वादों की हकीकत को पूरी बदलकर रख देती है और सोचने को मजबूर करती है उन सभी लोगों को. जो अब तब बड़ी  संख्या में पलायन कर चुके हैं, बेरोजगारी के नारे लगा रहे हैं, और आज भी कई जगह सड़कों के ना होने के चलते लोगों को डंडी और कंडी का सहारा देना पड़ रहा है, कई लोग आज भी खराब सड़कों के कारण रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं,,तो वहीं अस्पताल में कभी लिफ्ट के पास तो कभी फर्श पर महिलाओं का प्रसव हो रहा है

 

सबसे पहले बात उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था की- 

एक बच्चे के लिए स्कूल, घर और दुनिया को जोड़ने वाले पुल की तरह काम करता है,,, जिसे अब हर कोई पार करना चाहता है. लेकिन दावों और वादों की पहली हकीकत यही सामने आ जाती हैं.  प्रदेश में 12 जुलाई 2022 को नई शिक्षा नीति  लागू की गयी  थी, उत्तराखंड नई शिक्षा नीति लागू करने वाला देश का पहला राज्य तो  बन गया. लेकिन आज कई उच्च प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में कठिन विषयों के शिक्षक नहीं हैं। विशेषकर दूरस्थ और ग्रामीण क्षेत्रों के प्राथमिक से लेकर माध्यमिक विद्यालयों को छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए भी वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। तंत्र की इस लापरवाही का परिणाम ये हुआ है कि दूरस्थ क्षेत्रों में शिक्षा की रोशनी पहुंचाने के लिए खोले गए विद्यालयों में भी छात्र संख्या घट रही है। और यदि कहीं छात्र है भी तो वहां शिक्षक ही नहीं हैं. हाल ये हैं कि बेटी पढ़ाओ अभियान का नारा दे रही  सरकार के ये नारे दम तोड़ रहे हैं। 

10 हजार से अधिक बेटियों का भविष्य संकट में-

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात में शिक्षा के महत्व को बताते हैं तो मानो लगता है कि ये सिर्फ उन पर लागू होता है जो उसे सुन रहे हैं. क्योकि उस पर अमल करने और उसे पूरा करने में शायद सत्ता में बैठे मंत्री और मुख्यमंत्री फेल हो गए हैं. इसका एक उदाहरण अल्मोड़ा जिले में देखने को मिलता है, जहां बेटियों के लिए संचालित 21 जीजीआईसी में शिक्षिकाओं के 117 पद लंबे समय से खाली हैं। शिक्षिकाएं न होने से इन विद्यालयों में पढ़ने वाली 10 हजार से अधिक बेटियों का भविष्य संकट में हैं। अभिभावक काफी समय से शिक्षिकाओं के रिक्त पदों को भरने की मांग कर रहे हैं पर कोई सुनवाई नहीं हुई। बेटियों को बेहतर शिक्षा देकर उन्हें सफल और आत्मनिर्भर बनाने के दावों के बीच उन्हें पढ़ाने के लिए विद्यालयों में शिक्षिकाएं ही नहीं हैं।


एक ही शिक्षक कई विषयों को पढाने को मजबूर- 

अल्मोड़ा जिले में बेटियों के लिए खोले गए विद्यालय इसकी बानगी हैं। जिले में 21 जीजीआईसी संचालित हैं जिनमें 10 हजार से अधिक बेटियां पढ़ रही हैं। इन विद्यालयों में प्रवक्ताओं के 193 और एलटी संवर्ग में शिक्षिकाओं के 289 (नवासी) पद सृजित हैं। आश्चर्य की बात ये है कि इनमें प्रवक्ताओं के 68 और एलटी संवर्ग में शिक्षिकाओं के 49 पद सालों से रिक्त हैं। ऐसे में बेटियां बगैर शिक्षकों के पढ़ने के लिए मजबूर हैं और उनके भविष्य को लेकर अभिभावक चिंतित हैं। अब इस पर कई टॉपर्स बच्चों ने भी उत्तराखंड  सीएम के सामने  ये मांग उठायी है. ये कोई एकलौता मामला नहीं है,, उत्तराखंड के कई जूनियर हाईस्कूलों ऐसे है जहां पर सामाजिक विषय के शिक्षक बच्चों को हिंदी, अंग्रेजी और गणित पढ़ा रहे हैं। खासकर एकल शिक्षक वाले जूनियर स्कूलों में ये हालात  है। इस तरह के राज्य में इक्का दुक्का नहीं बल्कि 170 स्कूल हैं।  तीन हजार प्राथमिक विद्यालयों में एक से पांचवीं कक्षा तक के बच्चे एक ही क्लास  में पढ़ रहे हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि 1 से 5 तक के बच्चे कैसे एक ही क्लास में पढ़ रहे हैं.. क्या ये  शिक्षा विभाग का कोई मिक्स लर्निंग का अभिनव प्रयोग तो नहीं ?  ऐसा नहीं है बल्कि स्कूलों में घट रही छात्र संख्या और शिक्षकों की कमी की वजह से ऐसा किया जा रहा है। बता दें कि राज्य सेक्टर के जूनियर हाईस्कूलों में मानक के अनुसार चार सहायक अध्यापक और एक प्रधानाध्यापक होना चाहिए। जबकि सर्व शिक्षा के जूनियर हाई स्कूलों में तीन सहायक अध्यापक के पद हैं, लेकिन स्कूलों में मानक के अनुसार शिक्षक न होने से 170 एकल शिक्षकों वाले इन स्कूलों में एक शिक्षक को 21 विषयों को पढ़ाना पड़ रहा है।  इसमें कुछ स्कूल देहरादून जिले के हैं। जहां पूरी सरकार रहती है , जिले के जूनियर हाईस्कूल रावना विकासखंड चकराता में पिछले तीन साल से मात्र एक शिक्षक है। सामाजिक विषय के शिक्षक  को हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, संस्कृत व कला सभी विषय पढ़ाने पड़ रहे हैं। यही स्थिति इसी ब्लॉक के जूनियर हाईस्कूल बिसऊ घणता की है। स्कूल एकल शिक्षक के भरोसे है, स्कूल के एकल शिक्षक  का भी वर्ष 2016 में चकराता ब्लॉक से विकासनगर ब्लॉक के मदरसा स्कूल में तबादले का आदेश हुआ था, लेकिन रिलीवर न मिलने की वजह से शिक्षक नई तैनाती पर नहीं जा सके।

एक ही कक्षा में पढ़ने को मजबूर हैं कई कक्षाओं के छात्र-छात्राएं-  

राजकीय प्राथमिक विद्यालय मन टाड के शिक्षक  के मुताबिक स्कूल में मात्र सात छात्र-छात्राएं हैं। कम छात्र होने की वजह से कक्षा एक से पांचवीं तक के सभी छात्र-छात्राएं एक कक्षा में पढ़ते हैं। विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक देहरादून जिले में इस तरह के 72 स्कूल हैं। इतने स्कूलों में छात्र एक ही कक्षा में पढ़ते हैं,  प्रदेश का पिथौरागढ़ ऐसा जिला है, जिसमें एकल शिक्षक वाले सबसे अधिक प्राथमिक विद्यालय हैं। स्कूल में कम छात्र संख्या की वजह से एक से पांचवीं तक के छात्र एक ही कक्षा में पढ़ते हैं। जिले में इस तरह के 486 स्कूल हैं। जबकि अल्मोड़ा में 442, बागेश्वर में 293, चमोली में 396, चंपावत में 135, हरिद्वार में 36, नैनीताल में 228, पौड़ी में 273, रुद्रप्रयाग में 221, टिहरी में 302, ऊधमसिंह नगर में 98 एवं प्राथमिक विद्यालय उत्तरकाशी में 208 स्कूल हैं।


बच्चों ने मुख्यमंत्री को गिनाई पहाड़ की कई समस्याएं- 

अभी एक कार्यक्रम में  उत्तराखंड सरकार ने 10वीं और 12वीं के टॉपर बच्चों के प्रोत्साहन के लिए उन्हें सम्मानित किया.. वहां  पर भी कई बच्चों ने मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री को अपनी कई परेशानियां गिनाई बच्चों ने मुख्यमंत्री से संवाद करते हुए ये भी कहा कि 12वीं के बाद फिर से वही समस्या होती है। छात्रों ने कहा कि सिविल सेवा या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों के लिए मैदानी जनपदों में जाना उनकी मजबूरी बन जाता है। इसलिए ऐसा कुछ इंतजाम किए जाए की शिक्षा पाने के लिए पहाड़ की प्रतिभाओं को घर न छोड़ना पडे। अभी कई मेधावी मैदानी जनपदों में आने में सक्षम नहीं होते और पिछड़ जाते हैं। ये पीड़ा पहाड़ी क्षेत्रों के बच्चों ने शिक्षा मंत्री डाॅ. धन सिंह रावत से कही।

अब बात स्वास्थ्य सेवाओं की- 

गांव-गांव तक सड़कों का जाल बिछाने के दावों के बीच कई गांव ऐसे हैं जहां मोटर मार्ग तो दूर. ठीक से चलने के लिए पैदल मार्ग तक नहीं है। उत्तराखंड में सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर लगातार सरकारों पर सवाल उठते रहे हैं. इसके बाद भी आज तक सभी सेवाओं का हाल बेहाल है. सरकारें लगातार सड़कों का जाल गांव-गांव तक पहुंचाने की बातें कहती हैं और अपने दावों को मजबूत भी करती हैं. लेकिन इस बीच दावे और हकीकत में लगातार अंतर सामने आते रहते है. ऐसा ही एक मामला बागेश्वर जिले के गांव लीती डांगती से सामने आता है. यहां गांव के एक बीमार व्यक्ति को ग्रामीण डोली में लेकर अस्पताल जाते हैं। पुरुषों की संख्या कम होने पर महिलाओं ने बारी-बारी से डोली को कंधा दिया। इसके बाद मरीज को अस्पताल पहुंचाया. डांगती से लीती गांव की पैदल दूरी सात किमी है। गांव में किसी के बीमार होने पर उसे डोली के सहारे सड़क तक लाना मजबूरी है। यहां से 108 की मदद से मरीज को अस्पताल पहुंचाया जाता है। हालात ये है कि युवाओं के रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर जाने से गांव में पुरुषों की संख्या कम है। वहीं इस पर गांव के पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष हरीश ऐठानी ने कहा कि सरकार को इन जमीनी मुद्दों को समझना बहुत जरूरी है. उन्होंने कहा कि जिस तरीके से गांव की महिलाओं को मरीजों को ले जाने के लिए आगे आना पड़ रहा है, इससे साफ पता चलता है कि रोजगार, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य के दावे पूरी तरह से झूठे हैं, जनप्रतिनिधियों को उन्हें पूरा करने के लिए आगे आना होगा. लिहाजा, महिलाओं को डोली को कांधा देना पड़ता है। 

 
 
राजधानी देहरादून के सबसे बड़े अस्पताल का भी यही हाल-

देहरादून के सबसे बड़े अस्पताल दून अस्पताल का भी यही हाल है,जहां दूर दराज से लोग इस आस में आते हैं कि वहां अच्छी व्यवस्था उनको मिलेगी और उनका इजाल अच्छे से होगा। अभी हाल ही में एक ऐसा नजारा यहां देखने को मिला जब दून अस्पताल के महिला वार्ड में एक ही बेड पर दो- दो प्रसूताएं भर्ती दिखाई दी। उसी पर नवजात को भी लिटाना पड़ रहा है . इस मामले का वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ. कांग्रेस  ने स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठाते हुए कहा, मंत्री और नेता दिल्ली दरबार में हाजिरी लगाने में व्यस्त हैं. यहां स्वास्थ्य सेवा पटरी से उतर गई है। दून मेडिकल कॉलेज अस्पताल में कभी लिफ्ट के पास तो कभी फर्श पर महिलाओं का प्रसव हो रहा है। जच्चा-बच्चा वार्ड में एक ही बेड पर दो महिलाएं और दो नवजात भर्ती हो रहे हैं। ऋषिकेश एम्स में स्ट्रेचर नहीं मिलने पर गाड़ी में ही प्रसव कराना पड़ रहा है। 



प्रदेश सरकार पर कई सवाल- 

अब सवाल ये उठता है कि राज्य में फिर कौन सा विकास हो रहा है जिसका दावा हमारी सरकारें करती आ रही हैं,, दावों और वादों की हकीकत जब ऐसे दिखाई देती है तो हमारे प्रदेश की सरकारों पर कई सवाल खड़े उठते हैं, कि आखिर राज्य बनने के इतने साल बाद भी हम आज उन चीजों की मांग कर रहे हैं जो सभी की रोजमर्रा जिंदगी के लिए बेहद जरूरी है।