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2024 का रण, भाजपा का डर!उत्तराखंड भाजपा के तीन सांसद अपनी स्तिथि को लेकर आश्वस्त नहीं !

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तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्माई चेहरे का असर फीका पड़ना शुरू हो गया है,? क्या अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा मुश्किल में पड़ गयी  है ? उत्तराखंड में भाजपा के तीन सांसद क्यों डेंजर जोन में खुद को पा रहे हैं? 

 

2014और 2019  में भाजपा ने मोदी के करिश्में से देश में प्रचंड बहुमत की सरकार केंद्र में बनाई,खुद भाजपा अपने दम पर बहुमत को पार कर अपने इतिहास की सबसे बड़ी जीत दर्ज करने में कामयाब हुई,मोदी के चेहरे पर ही भरोसा करते हुए उत्तराखंड की जनता ने लगातार दो बार विधानसभा और लोकसभा में भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया था, लेकिन 2024 आते आते अब भाजपा के लिए पहले जैसी स्तिथि नहीं रही हैं,,,
कई सर्वे और राजनैतिक विश्लेषक  ये बताते हैं कि आगामी चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं होने वाला है,और सिर्फ मोदी के नाम पर भाजपा हर चुनाव नहीं जीत सकती,अभी हाल ही में  वायरल हुए RSS का मध्य्प्रदेश को लेकर किये सर्वे में ये बात सामने आयी है,,,कांग्रेस ने इसका  जिक्र कर  मध्य्प्रदेश में वापसी की बात कह रही है, सर्वे में ये भी आरएसएस ने जिक्र किया है कि हर चुनाव मोदी के चहरे पर नहीं जीता जा सकता है,,  विपक्ष का लगातार एकजुट होना भी भाजपा के लिए खतरा बन रहा है,उसके ऊपर हिमांचल और कर्नाटक में बीजेपी की हार से ये साबित हो गया है कि मोदी का चेहरा भी भाजपा को हर राज्य में जीत नहीं दिला सकता।।।
उत्तराखंड में प्रचंड बहुमत की सरकार और पांचो लोकसभा सीट पर भाजपा  का कब्जा होने के बावजूद भी भाजपा के तीन सांसद अपनी स्तिथि को लेकर आश्वस्त नहीं है,और खुद को डेंजर जोन में पा रहे हैं, हाल ही में छपी एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है… रिपोर्ट के अनुसार  उत्तराखंड में भाजपा के तीन लोकसभा सांसद डेंजर जोन में बताए जा रहे हैं।   सासंदों को अपनी स्थिति पार्टी की अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। पार्टी के आंतरिक सर्वे में यह फीडबैक सामने आया है। जिसके  बाद पार्टी शीर्ष नेतृत्व की ओर से सांसदों को आगाह किया गया है।आंतरिक सर्वे में पार्टी के कुछ सांसदों की स्थिति ठीक नहीं पाई गई है। ऐसे में 2024 के चुनाव के लिए राज्य में कुछ चेहरे बदले जाने की चर्चा शुरू हो गई है। इस रिपोर्ट से साफ़ है कि उत्तराखंड में भी भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में खतरे में है,जिससे बचने के लिए इस बार प्रत्याशियों को बदला जा सकता है,,,
उत्तराखंड में भाजपा के लिए सबसे मुफीद सीट मानी जाती है पौड़ी लोकसभा सीट,जहां से इस समय पूर्व मुख़्यमंत्री तीरथ सिंह रावत सांसद हैं,पौड़ी सीट भाजपा की सबसे मजबूत सीट मानी जाती है,सैनिक बाहुल सीट होने के साथ यहां से कई मुख़्यमंत्री भी यहां से रहे हैं लेकिन इस बार इस सीट पर भी भाजपा को कड़ी चुनौती कांग्रेस से मिल सकती है,अंकिता हत्याकांड के बाद यहां  के लोगों में सरकार के प्रति काफी गुस्सा दिखाई दिया,जिसका असर भी आने वाले चुनाव में देखने को मिल सकता है,ख़ासतौर पर महिला वोटर इस घटना से बेहद आक्रोशित है,,, 
हरिद्वार सीट में जिस तरह से विधान सभा में भाजपा को अपेक्षा के अनुरूप जीत नहीं मिली उससे हरिद्वार लोकसभा सीट भी भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है, यहां भी भाजपा के पूर्व मुख़्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक वर्तमान में सांसद है,लेकिन जिस तरह से हरिद्वार सीट पर धड़ेबाजी भाजपा में दिखाई देती है वो भी पार्टी  के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है,,,  कुल मिलाकर आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तराखंड में काफी संघर्ष करना पड़ सकता है, ये भी हो सकता है भाजपा कई नए प्रत्याशियों को मौका दे दे,लेकिन इस सब से भी क्या भाजपा की राह आसान हो पाएगी ये तो आने वाला वक्त बतायेगा ?

उत्तराखंड के पलायन और बेरोजगारी को लेकर मील का पत्थर साबित हो रही ये योजना 

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उत्तराखंड में होता पलायन जिसकी सबसे बड़ी वजह है बेरोजगारी, उत्तराखंड में कई योजनाओं को लागू कर पहाड़ों में रोजगार पैदा करने की कोशिश की जा रही है, जिससे पलायन को रोका जा सके, आज के वीडियो में बात एक ऐसी ही योजना की करेंगे जो उत्तराखंड के कई बेरोजगार युवाओं के लिए वरदान साबित हुई, इस योजना के कारण कई युवाओं ने न केवल रिवर्स पलायन किया बल्कि आज खुद के साथ कई अन्य के रोजगार का माध्यम बने हैं,,,, उत्तराखंड के खाली होते गावों और छोटे शहरों में रहने वाली युवा पीढ़ी रोजगार की चाह में लगातार महानगरों की तरफ रुख करने को मजबूर हैं, जिस कारण पहाड़ और छोटे शहरों में लगातार पलायन होता जा रहा है,खासतौर पर युवाओं का प्रदेश छोड़कर जाना एक अच्छा संकेत नहीं है,,,

 

उत्तराखंड की सरकारों ने समय-समय पर कई योजनाओ को लागू किया है जिससे युवाओं को प्रदेश में ही रोजगार मिल पाए और पलायन थम सके, इन योजनाओ में सबसे कामयाब योजना रही होम स्टे योजना, जिसका असर आज धरातल पर दिख रहा है, इस योजना से जुड़े कई युवा न केवल वापस अपने गांव या शहर लौटे बल्कि आज खुद के रोजगार के साथ अन्य को भी रोजगार दे रहे हैं साथ ही उत्तराखंड पर्यटन उद्योग को भी खूब पंख लगा रहे हैं, उत्तराखंड में होमस्टे योजना का श्रेय पूर्व की त्रिवेंद्र रावत सरकार को जाता है,

उत्तराखंड में होमस्टे योजना की शुरुआत 20 अप्रैल 2018 को सीमावर्ती जनपद पिथौरागढ़ से पूर्व मुख़्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने की थी, इस योजना का मुख्य मकसद युवाओं को रोजगार देना और पलायन को रोकना था लेकिन देश में कोरोना काल के बाद अपने घर वापस लौटे बेरोजगार युवाओं के लिए ये रोजगार का एक अहम कदम साबित हुआ,कई युवाओं ने इस योजना के जरिये रोजगार शुरू किया,और अब तो ये योजना प्रदेश के युवाओं के लिए एक वरदान साबित हो रही है,इस योजना के लिए हर साल बड़ी संख्या में आवेदन हो रहे हैं,जबकि अब तक प्रदेश में हजारों होमस्टे संचालित हो रहे हैं,,,

पर्वतीय जिलों में होम स्टे से जुड़कर यहां के स्थानीय युवा स्वरोजगार को अपनाने के साथ ही पर्यटकों को उचित सेवा भी दे रहे हैं, जिससे उत्तराखंड के दुर्गम इलाकों के लोगों की आजीविका पर सुधार आया है और सीजन में स्थानीय लोग अच्छा रोजगार कमा रहे हैं. युवाओं को स्वरोजगार से जोड़ने और पहाड़ के गांवों से हो रहे पलायन को थामने के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा होम स्टे योजना की शुरुआत की गयी थी, जिसमें पर्यटक स्थलों में स्थानीय लोग अपने ही घरों में देश-विदेश के पर्यटकों के लिए ग्रामीण परिवेश में साफ व किफायती आवास की सुविधा उपलब्ध करा सकते हैं. यहां पर पर्यटकों को स्थानीय व्यंजन परोसने के साथ ही उन्हें यहां की सभ्यता व संस्कृति से भी परिचित कराया जा रहा है, जो पर्यटक खूब पसंद कर रहे हैं.

 

होम स्टे योजना की अब तक की तस्वीर देखें, तो वित्तीय वर्ष 2018-19 में प्रदेश के सभी जिलों में 965 होम स्टे पंजीकृत हुए. आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2021-22 में यह आंकड़ा बढ़कर 3 हजार 964 पहुंच गया. पर्वतीय जिलों में भी ये आंकड़ा बढ़ा है, बात अगर पिथौरागढ़ जिले की करें जहां इस योजना की शुरुआत हुई थी , तो 2021-22 में 608 लोगों ने और 2022-23 में 103 लोगों ने अपने घरों को होम स्टे में बदलने के लिए पर्यटन विभाग में पंजीकृत किया, जिसमें सबसे ज्यादा धारचूला में 423 लोग अपना पंजीकरण करा चुके हैं. धारचूला सीमांत जिले का उच्च हिमालयी क्षेत्र भी है, जहां की खूबसूरती का दीदार करने पर्यटक पहुंच रहे हैं. उनके रुकने की सुविधा यहां के गांवों में होम स्टे के रूप में विकसित हो रही है. इस योजना के माध्यम से सिर्फ साल 2020 में ही 5 हजार होमस्टे विकसित किए गए थे। इससे प्रदेश में रोजगार के अवसर को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है और लोगों को कामकाज या कारोबार के लिए दूसरे राज्य में पलायन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

 

कश्मीर में फिर लागू होगा ‘अनुच्छेद 370’ !

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क्या जम्मू कश्मीर में फिर से लागू होगा अनुच्छेद-370, तीन साल बाद आखिर ऐसा क्या हुआ जो फिर से इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो गयी है ? आपको इसकी पूरी कहानी बताएंगे और इस पर कानून के जानकारों की क्या राय है वो भी आपके सामने रखेंगे,,,नमस्कार आपके साथ  मै हूँ मनीषा …  2019 में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया गया था। तीन साल बाद इस अनुच्छेद की चर्चा फिर से शुरू हो गई है। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। कोर्ट में अनुच्छेद-370 हटाने को चुनौती दी गई है। इससे जुड़ी 20 से ज्यादा याचिकाएं कोर्ट में हैं और सभी पर 11 जुलाई को सुनवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रेस रिलीज जारी करके बताया कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई में पांच जजों की बेंच इस मामले को सुनेगी। इस बेंच में जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत होंगे।
 
 

 

कोर्ट में मामला पहुंचते ही  अनुच्छेद-370 को लेकर बयानबाजी तेज हो गई है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या फिर से जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 लागू हो सकता है? आपको बता दें कि पांच अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया था। यह कानून जम्मू-कश्मीर में बीते करीब सात दशक से चला आ रहा था।  दरअसल, अक्तूबर 1947 में, कश्मीर के तत्कालीन महाराजा, हरि सिंह ने भारत के साथ एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसमें कहा गया कि तीन विषयों के आधार पर यानी विदेश मामले, रक्षा और संचार पर जम्मू और कश्मीर भारत सरकार को अपनी शक्ति हस्तांतरित करेगा।

 
खबर का पूरा वीडियो देखने के लिए दिए लिंक पर क्लिक करें-
https://youtu.be/WlqEYoYh7Lk
 

इतिहासकार के मुताबिक , ‘मार्च 1948 में, महाराजा ने शेख अब्दुल्ला के साथ प्रधानमंत्री के रूप में राज्य में एक अंतरिम सरकार नियुक्त की। जुलाई 1949 में, शेख अब्दुल्ला और तीन अन्य सहयोगी भारतीय संविधान सभा में शामिल हुए और जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति पर बातचीत की गई , जिसके बाद अनुच्छेद-370 को अपनाया गया।’इस अनुच्छेद में प्रावधान किया गया कि रक्षा, विदेश, वित्त और संचार मामलों को छोड़कर भारतीय संसद को राज्य में किसी भी कानून को  लागू करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होगी।  इसके चलते जम्मू और कश्मीर के निवासियों की नागरिकता, संपत्ति के स्वामित्व और मौलिक अधिकारों का कानून शेष भारत में रहने वाले निवासियों से अलग था। अनुच्छेद-370 के तहत, अन्य राज्यों के नागरिक जम्मू-कश्मीर में संपत्ति नहीं खरीद सकते थे। अनुच्छेद-370 के तहत, केंद्र को राज्य में वित्तीय आपातकाल घोषित करने की शक्ति नहीं थी।  अनुच्छेद-370 (1) (सी) में उल्लेख किया गया था कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1   अनुच्छेद-370 के माध्यम से कश्मीर पर लागू होता है। अनुच्छेद 1 संघ के राज्यों को सूचीबद्ध करता है। इसका मतलब है कि यह अनुच्छेद-370 है जो जम्मू-कश्मीर राज्य को भारतीय संघ से जोड़ता है।  
 

जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 3 में कहा गया था कि जम्मू और कश्मीर राज्य भारत संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा। अनुच्छेद 5 में कहा गया कि राज्य की कार्यपालिका और विधायी शक्ति उन सभी मामलों तक फैली हुई है, जिनके संबंध में संसद को भारत के संविधान के प्रावधानों के तहत राज्य के लिए कानून बनाने की शक्ति है।
जम्मू-कश्मीर का संविधान 17 नवंबर 1956 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1957 को लागू हुआ था। पांच अगस्त 2019 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी जम्मू और कश्मीर के लिए आवेदन आदेश, 2019 (सीओ 272) द्वारा जम्मू और कश्मीर के संविधान को निष्प्रभावी बना दिया गया था।
 
 
 
2019 में जब अनुच्छेद-370 खत्म किया गया था, तब पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने कुछ हद तक स्थिति बिगाड़ने की कोशिश की थी। घुसपैठ के जरिए हिंसा कराने की खूब कोशिश हुई, लेकिन सुरक्षाबलों ने सभी को नाकाम कर दिया गया। केंद्र सरकार ने विशेष तौर पर जम्मू कश्मीर के विकास पर फोकस करना शुरू कर दिया। अब हर बजट में जम्मू कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान किए जाते हैं, ताकि यहां के लोगों को मुख्य धारा से जोड़ा जा सके। अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब जम्मू-कश्मीर संयुक्त राष्ट्र के दागी लिस्ट से बाहर हुआ। 
 
 

अब सवाल ये उठता है कि क्या कोर्ट इस फैसले को पलट सकता है, और अनुच्छेद-370 दोबारा वापस लागू हो सकता है ? 
इसे समझने के लिए हम आपको कानून के जानकारों का मत बताते हैं,,,  कानून के जानकार कहते हैं  कि  ‘अनुच्छेद-370 पूरी तरह से कानूनी तौर पर हटाया गया है। संसद की दोनों सदनों से इस प्रस्ताव को पास किया जा चुका है। राष्ट्रपति भी इसे मंजूरी दे चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट कानूनी पहलुओं पर जरूर चर्चा कर सकती है, लेकिन इसे फिर से लागू करना मुश्किल है। संसद का काम कानून बनाना होता है और न्यापालिका का काम उस कानून का पालन करते हुए न्याय दिलाना है।

15 रुपये लीटर मिलेगा ! पेट्रोल के पीछे का पूरा सच…

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आज की तारीख में एक से बढ़कर एक बढ़िया माइलेज वाले वाहन आने के बावजूद जेब पर सबसे ज्यादा बोझ पेट्रोल-डीजल के रेट का ही पड़ता है. पेट्रोल-डीजल के रेट में कुछ पैसे की बढ़ोतरी भी सोशल मीडिया पर बड़ी चर्चा का सबब बन जाती है. पेट्रोल के रेट 100 रुपये प्रति लीटर के भी पार हैं, लेकिन यदि आपसे कहा जाए कि जल्द ही यह कीमत 15 रुपये प्रति लीटर हो जाएगी तो शायद आप यकीन भी नहीं करेंगे. कम से कम केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का तो यही दावा है कि जल्द ही पेट्रोल की लागत 15 रुपये प्रति लीटर के बराबर की होगी. हालांकि गडकरी का इस बात से मतलब असली पेट्रोल के दाम से नहीं था बल्कि वह कार या किसी अन्य वाहन को चलाने वाले ईंधन की लागत की बात कर रहे थे. गडकरी ने यह दावा राजस्थान के प्रतापगढ़ में एक कार्यक्रम के दौरान किया है.

 

 

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गडकरी ने कार्यक्रम में कहा, हमारी सरकार चाहती है कि किसान को अन्नदाता ही नहीं बल्कि ऊर्जादाता भी बनाया जाए. किसानों के तैयार एथेनॉल से गाड़ियां चलाने की तैयारी की जा रही है. हम चाहते हैं कि 60 फीसदी गाड़ियां एथेनॉल से चलें और 40 फीसदी बिजली से. इसकी लागत का औसत यदि देखेंगे तो यह पेट्रोल के 15 रुपये प्रति लीटर के भाव के बराबर बैठेगा.
 
 
 
गडकरी ने यह भी कहा कि किसान के ऊर्जादाता बनकर एथेनॉल उत्पादन करने से देश की जनता का भी भला होगा. पेट्रोल की कम कीमत से जनता का भला होगा. साथ ही इस ईंधन से गाड़ियों से निकलने वाला प्रदूषण भी कम होगा. देश में प्रदूषण घटेगा तो भी जनता का भला होगा. पेट्रोल का आयात कम होगा. अभी 16 लाख करोड़ रुपये का आयात हो रहा है. यह पैसा दूसरे देशों में जाने के बजाय किसानों की जेब में जाएगा. इससे किसानों के घर समृद्ध होंगे और रोजगार के मौके बढ़ेंगे.
 
 
 
बता दें कि एथेनॉल एक खास तरह का ईंधन है, जो गन्ने के रस समेत कई जैविक उत्पादों से तैयार किया जा सकता है. अभी सरकार गन्ने के रस और मक्का से एथेनॉल तैयार करा रही है. एथेनॉल ईंधन से प्रदूषण कम होता है. इस कारण सरकार धीरे-धीरे मौजूदा पेट्रोल में एथेनॉल मिक्स करने की मात्रा बढ़ा रही है. नितिन गडकरी पहले ही कह चुके हैं कि जल्द ही पूरी तरह एथेनॉल ईंधन से चलने वाली कार व अन्य वाहन बाजार में लाने का लक्ष्य वाहन निर्माता कंपनियों को दिया गया है. केंद्र सरकार ने साल 2022 में विश्व जैव ईंधन दिवस के मौके पर एक बड़ा एथेनॉल प्लांट चालू कराया था. यह प्लांट हरियाणा के पानीपत में बना है. इस 2G एथेनॉल प्लांट से हर साल तीन करोड़ लीटर एथेनॉल उत्पादन करने का लक्ष्य है.  

6 पार्टियों में बंटा महाराष्ट्र,अजित-शिंदे की बगावत क्या BJP को फायदा पहुंचाएगी ?पढ़े विस्तृत रिपोर्ट..

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उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा 48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र में रविवार को बड़ा सियासी दांव चला गया। देश के सबसे चतुर नेताओं में से एक शरद पवार को भतीजे अजित पवार ने आखिरकार गच्चा दे ही दिया।भतीजे का दावा है कि वो अब NCP को भी छीन लेंगे, ठीक वैसे ही जैसे शिंदे ने उद्धव से तीर कमान वाली शिवसेना झपट ली। मगर यह तो तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू BJP के पाले में है।आगे आपको बताएंगे कि कैसे BJP ने महाराष्ट्र की सियासी जमीन को खंड-खंड कर 6 टुकड़ों में बांट दिया और खुद सबसे बड़ा हिस्सा लेने की तैयारी में है.. पढ़े विस्तृत रिपोर्ट….
 
 
 
 
 
अजीत पंवार का इस तरह बगावती हो जाना अचानक नहीं हुआ इसके पहले से कयास लगाए जा रहे थे कि वो कभी भी पाला बदल सकते हैं हलाकि ये अंदाजा शायद किसी को भी नहीं था कि इस तरह पूरी NCP  को वो तोड़ कर ऐसा करेंगे,पिछले साल 10-11 सितंबर को दिल्ली में NCP की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी। शरद पवार को पार्टी का अध्यक्ष चुना गया था। 11 सितंबर को बैठक के बीच शरद पवार के सामने से ही अजित पवार उठकर चले गए थे। तभी उनकी नाराजगी सबके सामने आ गई थी ।इसके बाद कई वाकिये ऐसे सामने आये जब अजीत पंवार के बगावती तेवर दिखाई दिए,    10 जून 2023 की दोपहर शरद पवार ने पार्टी के 25वें स्थापना दिवस पर चौंकाने वाला ऐलान किया। उन्होंने अपनी बेटी और सांसद सुप्रिया सुले और पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रफुल्ल पटेल को NCP का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। ये फैसला अजित की बगावत का आखिरी कील साबित हुआ। इसके बाद से ही अजित का बगावत करना लगभग तय माना जा रहा था।
 
 
 
 
राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि BJP लोकसभा चुनाव को लेकर अगर-मगर की स्थिति में नहीं रहना चाहती है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार और पश्चिम बंगाल में BJP को अपनी राजनीतिक स्थिति डावांडोल नजर आ रही है। महाराष्ट्र में 2019 के लोकसभा चुनाव में NDA ने 42 सीटें जीती थीं। पवार बगावत नहीं करते तो इन सीटों में कमी तय मानी जा रही थी। वहीं बिहार में 40 में 39 सीटें NDA को मिली थीं। वहां पर नए गठबंधन के सामने NDA के लिए 39 सीटें लाना आसान नहीं है। पश्चिम बंगाल में BJP ने 18 सीटें जीती थीं। यहां पर अगर लेफ्ट, कांग्रेस और तृणमूल साथ आ गए तो BJP को सिंगल डिजिट से आगे बढ़ने में भी दिक्कत होगी।

कर्नाटक में भी बीजेपी ने  25 सीटें जीती थीं, लेकिन विधानसभा चुनावकी हार के  बाद कहा जा रहा है कि बीजेपी 14-15 तक में सिमट सकती है। यानी BJP को इन राज्यों से 50-60 सीटों की जो कमी होगी उसे मध्यप्रदेश, राजस्थान, UP, हिमाचल, गुजरात और उत्तराखंड से पूरा करना संभव नहीं है। क्योंकि यहां पर BJP पहले से ही 90% सीटें जीत चुकी है। यहां वह दोबारा 90% सीटें जीत भी जाती  है, तो भी उसकी संख्या नहीं बढ़ेगी। इसलिए BJP इस तरह की कवायद कर रही है।

 

 

 

कुछ विश्लेषक मानते हैं कि BJP का मानना है कि विपक्ष टूटता है तो इसका फायदा पार्टी को मिलता है। वहीं वोटर्स भी भ्रमित हो जाते हैं कि किसके साथ जाएं। BJP को लगता है कि लोग विचारधारा से ज्यादा बड़े नेताओं से जुड़ते हैं। अजित पवार के साथ 35 से 40 विधायक बताए जा रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो BJP के सामने से NCP की चुनौती तकरीबन खत्म हो जाएगी और पार्टी की बड़ी जीत होगी।महाराष्ट्र में सबसे बड़ा और मजबूत वोट बैंक मराठा है। BJP के पास प्रदेश में कोई स्ट्रॉन्ग मराठा चेहरा नहीं है। प्रदेश में पार्टी के सबसे बड़े नेता देवेंद्र फडणवीस ब्राह्मण हैं। अजित पवार एक मजबूत मराठा चेहरा हैं। मराठा समाज में उनकी वैल्यू एकनाथ शिंदे से भी ज्यादा है।

 

 

 

अभी तक BJP की तरफ मराठा मतदाता का पूर्ण रूप से झुकाव नहीं दिखाई देता है। NCP प्रमुख शरद पवार का BJP के साथ गठबंधन नहीं करने की एक बड़ी वजह भी यही है।दरअसल शरद पवार अपने मराठा कोर वोट बैंक को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि उनके BJP खेमे में जाने पर यह वोट उन्हें मिलेगा या नहीं। अजित पवार ने यह रिस्क लिया है। BJP को शिंदे के बाद पवार का साथ मिलने से मराठाओं के बीच इनकी पकड़ काफी मजबूत हो जाएगी।

 

 

BJP का पहला टारगेट लोकसभा चुनाव है। अजित पवार पहले ही नाराज चल रहे थे। उस पर शरद पवार ने एक गलती कर दी। उन्होंने अपनी बेटी को पोस्ट देकर आगे कर दिया और अजित पवार को कोई पोस्ट नहीं दी।यह रातों रात नहीं हुआ है। अजित पवार PM मोदी की तारीफ कर रहे थे। डिग्री को लेकर उन्होंने मोदी के पक्ष में कहा कि डिग्री महत्वपूर्ण नहीं होती। वो लगातार ये भी  बोल रहे थे कि वो डिप्टी CM बनना चाहते हैं।दरअसल, अजित के लिए शिवसेना वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला वरदान साबित हुआ है। शिवसेना टूटने वाले केस में सुप्रीम कोर्ट ने जो बातें गैर कानूनी बताई थीं, अजित उन खामियों को दूर करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। यही वजह है कि शरद पवार अभी तक किसी तरह की कानूनी लड़ाई या लीगल ऑप्शन की बात नहीं कर रहे हैं।

 

 

कुछ राजनीती के जानकार ये मानते हैं कि इतनी बड़ी संख्या में नेताओं के NCP छोड़ने का मतलब है कि सुप्रिया सुले अपने पिता या चाचा जैसी मजबूत नेता नहीं हैं। प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे नेता शरद के वफादार रहे हैं, लेकिन वे सुप्रिया सुले के सामने लाइन में खड़े नहीं रहना चाहते।

 

 

बीजेपी अजीत पंवार को इसलिए भी साथ रखना चाहती है क्योकि महाराष्ट्र में सहकारिता यानी कोऑपरेटिव का सियासत में बहुत महत्व है। चीनी मिल हों या स्पिनिंग मिल या सहकारी बैंक। महाराष्ट्र में इस समय करीब 2.3 लाख कोऑपरेटिव सोसाइटी और उनके 5 करोड़ से ज्यादा सदस्य हैं।इस पूरे ढांचे पर फिलहाल NCP की मजबूत पकड़ है। इस मामले में शरद पवार के बाद अजित पवार का नंबर आता है। BJP अजित के जरिए इस ढांचे और उससे जुड़े वोटरों पर काबिज होना चाहती है।

 

 

एक दूसरा कारण ये भी रहा कि एकनाथ शिंदे BJP की उम्मीद से काफी कम शिवसेना के वोटर तोड़ पाए हैं। BJP पिछले एक साल के दौरान महाराष्ट्र में हुए तकरीबन सभी उपचुनाव में हार गई। विधानपरिषद के दो चुनाव में BJP बुरी तरह हारी। विधानसभा में भी कसवापेट, पुणे, कोल्हापुर जैसी सीटों पर BJP को उम्मीद के हिसाब से वोट नहीं मिले।पार्टी को लगता है कि अकेले शिंदे के बूते महाराष्ट्र में पैर जमाना मुमकिन नहीं। इसलिए वह बार-बार ऐसे प्रयोग कर रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में BJP और यूनाइटेड शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा और उसे 48 में 42 सीट मिली थीं। BJP अभी की स्थिति में महाराष्ट्र में अपने आप को कमजोर पा रही थी। इसकी वजह है कि महाविकास अघाड़ी 60% वोटों को प्रभावित कर सकता था।

 

महाराष्ट्र के बाद यूपी, बिहार में टूट का खतरा,क्या विपक्षी एकता को तोड़ने की चल रही कोशिशें

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महाराष्ट्र में सियासी भूचाल आया हुआ है। शिवसेना के बाद NCP में फूट पड़ गई है। पार्टी के मुखिया शरद पवार से उनके भतीजे अजित पवार ने बगावत कर दी है। अजित ने 40 विधायकों के समर्थन का दावा करते हुए एनडीए का दामन थाम लिया है।  महाराष्ट्र में हुए इस सियासी घटना के बाद यूपी-बिहार समेत कई राज्यों में हलचल तेज हो गई है। दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि जल्द ही यूपी और बिहार से कई विपक्षी दल एनडीए में शामिल हो सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष को बड़ा झटका लगेगा।  

 

  

 
कहते हैं सियासत में न कोई स्थाई दोस्त होता है और न कोई स्थाई दुश्मन,,, जिसका नजारा आजकल आप महाराष्ट्र की राजनीती में देख सकते हैं,,महाराष्ट्र की राजनीती में हुए इस उठापटक से एक बात तो साबित हो गयी है,कि 2024 के चुनावी रण से पहले ऐसे जोड़ तोड़ कई राज्यों में देखने को मिलेंगें,, महाराष्ट्र का उलटफेर न केवल विपक्षी एकता को एक झटका है बल्कि अब अन्य राज्यों में भी टूट की सुगबुगाहट तेज होने लगी है… 
 
 
 
महाराष्ट्र में हुई उथलपुथल के बाद जिस राज्य में इस तरह की टूट की बातें सबसे ज्यादा हो रही हैं वह बिहार है। सोमवार को ही  लोक जनशक्ति पार्टी  सुप्रीमो चिराग पासवान ने दावा किया कि जल्द ही महागठबंधन की सरकार टूट सकती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के कई विधायक और सांसद NDA के संपर्क में है। चिराग पासवान ने कहा कि जिस तरह से मुख्यमंत्री अपने विधायक और सांसदों से मुलाकात कर रहे हैं, उससे यह स्पष्ट है कि उन्हें उनकी पार्टी टूटने का डर है। वहीं, भाजपा नेता सुशील मोदी ने भी कुछ इसी तरह की बात कही।   
 
 
 
बीते दिनों ही पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बेटे संतोष सुमन ने अचानक बिहार सरकार के मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। संतोष सुमन अपनी पार्टी हम (HAM) के अध्यक्ष भी हैं। इसके बाद जीतन राम मांझी ने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात करके एनडीए में शामिल होने का एलान कर दिया। पूरे बिहार की बात करें तो अभी एनडीए के साथ लोक जनशक्ति पार्टी के पशुपति पारस वाला गुट और जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम’ है। इसके अलावा आरएलजेडी के उपेंद्र कुशवाहा, चिराग पासवान की लोजपा (आर) और विकासशील इंसान पार्टी का साथ भी एनडीए को मिल सकता है। 2014 में भी कुशवाहा-मांझी और लोजपा एनडीए के साथ थे। तब लोजपा ने छह, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने तीन और भाजपा ने 22 सीटें जीती थीं। इस बार भी कुछ ऐसा ही सीट बंटवारा हो सकता है। इसमें हम के मांझी और वीआईपी के मुकेश सहनी को एक-दो सीटें मिल सकती हैं।
 
 
 

उत्तर प्रदेश में भी तेजी से सियासी समीकरण बदलते हुए दिख रहे हैं। सपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने वाली ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की नजदीकियां एक बार फिर से भाजपा के साथ बढ़ती दिख रहीं हैं। अटकलें हैं कि लोकसभा चुनाव से पहले ओम प्रकाश राजभर फिर से एनडीए में शामिल हो सकते हैं। महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद राजभर ने दावा किया कि सपा में भी ऐसी ही टूट हो सकती है। उन्होंने कहा कि सपा के विधायकों पार्टी में कोई भविष्य नहीं दिख रहा है। जल्द ही कई विधायक पार्टी से अलग होकर सरकार में शामिल हो सकते हैं।

 

इसके अलावा पश्चिमी यूपी में सपा को मजबूत बनाने वाले जयंत चौधरी के भी एनडीए में शामिल होने के कयास लगाए जाने लगे हैं। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले भी इसका दावा तक कर चुके हैं।  जयंत को 23 जून को पटना में हुई विपक्ष की बैठक में भी शामिल नहीं हुए थे। दावा किया जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों में जयंत की पार्टी का प्रदर्शन भी काफी अच्छा नहीं रहा है। ऐसे में जयंत अपनी पार्टी के भविष्य की संभावनाएं तलाश रहे हैं। 
 
 
 
यूपी में एनडीए गठबंधन में पहले से ही अपना दल  और निषाद पार्टी हैं। लोकसभा चुनाव से पहले जनसत्ता लोकतांत्रिक पार्टी का भी साथ मिल सकता है। बसपा पर भी बीते कुछ वर्षों से अंदरखाने भाजपा से समझौते के आरोप लगते रहे हैं। अखिलेश की पार्टी अक्सर बसपा को भाजपा की बी टीम बताती रही है। हालांकि, बसपा भी यही आरोप सपा पर लगाती है।
 

हिमाचल ने कर दी शुरुआत,उत्तराखंड में कब ?

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उत्तराखंड राज्य 68 हजार करोड़ के कर्ज में डूब चुका है, पर शायद ही यहां के राजनेताओं को आपने इस  पर कभी कोई बात करते देखा या सुना होगा,प्रदेश के ऊपर कर्ज लगातार बढ़ रहा है लेकिन इसको कम कैसे किया जाय इसको लेकर किसी भी सरकार के पास आज तक कोई ठोस निति नहीं रही है,  अकेले विधायकों और मंत्रियों के वेतन और भत्तों पर अब तक 100 करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके हैं, कर्ज तले दबे इस प्रदेश पर लगातार बोझ बढ़ता ही जा रहा है, ये कम कैसे होगा इसका जवाब किसी  सरकार के पास नहीं है,,,
 
 पड़ोसी  राज्य ‘हिमाचल’  जो भौगोलिक दृष्टि से लगभग  उत्तराखंड  प्रदेश से मिलता जुलता है,यहां भी आर्थिक हालात कुछ अच्छे नहीं हैं,अभी हाल ही में कांग्रेस ने यहां सत्ता संभाली है,और यहां की कमान संभाल रहे हैं सुखविंदर सिंह सुक्खू,,,,
 

पिछले एक दशक में हिमाचल की बिगड़ी आर्थिक सेहत को सुधारने के लिए खुद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने  एक बहुत ही अच्छी पहल की है।जिसकी पूरे हिमाचल प्रदेश में तारीफ हो रही है..  

 

 

सुखविंदर सिंह सुक्खू ने  हिमाचल को कर्ज मुक्त और ग्रीन स्टेट बनाने के लिए हेलीकॉप्टर छोड़कर सामान्य यात्रियों की तरह विमान में सफर करना और छोटी ई-कार से यात्रा करना शुरू कर दिया है। वह बिना काफिले के जरूरी चार सामान्य कारों और सामान्य सुरक्षा के साथ चल रहे हैं। उन्होंने अपने मंत्रियों को भी इसी तरह बचत करने का सुझाव दिया है।  मुख़्यमंत्री की इस पहल की पूरे हिमांचल में सराहना की जा रही है,और अब अधिकारीयों से लेकर मंत्रियों पर भी खर्च कम करने को लेकर दबाव बढ़ गया है, इससे राज्य में हर माह 3 करोड़ की बचत होती है।

 

 
हिमाचल सरकार द्वारा सरकारी विभागों और पथ परिवहन निगम के बेड़े में इलेक्ट्रिक वाहनों को शामिल किया जा रहा है। सीएम ने विभिन्न मंचों से जलविद्युत परियोजनाओं में राज्य के अधिकारों की वकालत शुरू की है,ताकि वहां से भी राजस्व हासिल हो सके। दिल्ली का दौरा कर रॉयल्टी में वृद्धि व विभिन्न केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के स्वामित्व वाली बिजली परियोजनाओं में राज्य की हिस्सेदारी की मांग को सुक्खू ने उठाया है। सीएम के प्रयासों से शोंगटोंग जलविद्युत परियोजना के कार्यों में तेजी आई है, जिसके अब जुलाई 2025 तक पूरा होने की उम्मीद है। इस परियोजना के समय से पूरा होने से करीब 250 करोड़ रुपये की बचत होगी व 156 करोड़ का राजस्व व्याज हासिल होगा।
 
उत्तराखंड को भी कर्ज से निकालने की कुछ ऐसी पहल सरकार कर सकती है,जलविधुत परियोजनाओं से भी प्रदेश को खास फायदा होता नहीं  दिखाई देता,जरूरत है राज्य सरकार यहां बन रही विधुत परियोजनाओं में अपना एक मजबूत हिस्सा सुनिश्चित करे जिससे प्रदेश के आर्थिक हालात मजबूत किये जा सकें,क्योकि उत्तराखंड प्रदेश में प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है बीएस जरूरत है तो उनके सही इस्तेमाल की और एक ठोस निति की जिससे पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी इस प्रदेश के काम आ सके। …

यूनिफॉर्म सिविल कोड,असल मुद्दा या चुनावी चिंता

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता  पर टिप्पणी की है। पीएम मोदी के इस टिप्पणी के बाद राजनीतिक बहस फिर से शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री मोदी ने मंगलवार को कहा कि भारत दो कानूनों पर नहीं चल सकता और समान नागरिक संहिता संविधान का हिस्सा है। पीएम के बयान से देश भर में बहस छिड़ गई है क्योंकि कई विपक्षी नेताओं ने पीएम मोदी पर कई राज्यों में चुनाव नजदीक आने पर राजनीतिक लाभ के लिए यूसीसी मुद्दा उठाने का आरोप लगाया है।

प्रधानमंत्री का यह बयान 22वें विधि आयोग द्वारा 30 दिनों के भीतर यूसीसी पर जनता और “मान्यता प्राप्त” धार्मिक संगठनों के विचार आमंत्रित करने के एक सप्ताह बाद आया है। कांग्रेस नेताओं ने पीएम मोदी पर महंगाई, बेरोजगारी और मणिपुर की स्थिति जैसी वास्तविक समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए यूसीसी मुद्दे का इस्तेमाल करने का आरोप भी लगाया।
   AIMIM  के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने मंगलवार को प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए कहा, “भारत के प्रधानमंत्री भारत की विविधता और इसके बहुलवाद को एक समस्या मानते हैं। इसलिए, वह ऐसी बातें कहते हैं…कई पार्टियों के अलावा 30 से अधिक आदिवासी संगठनों ने भी आशंका व्यक्त की है कि समान नागरिक संहिता आदिवासी प्रथागत कानूनों को कमजोर कर देगी।कई मुस्लिम संगठन UCC को लेकर आशंकित हैं जिसको लेकर उनकी बैठकों का दौर भी चल रहा है.
अब आपको ये समझना होगा कि  UCC में आखिर ऐसा है क्या जो इसको लेकर इतना विवाद हो रहा है,,,,,, यूसीसी सभी धर्मों के लोगों के लिए व्यक्तिगत कानूनों की एक समान संहिता रखने का विचार है। व्यक्तिगत कानून में विरासत, विवाह, तलाक, चाइल्ड कस्टडी और गुजारा भत्ता जैसे कई पहलू शामिल हैं। हालांकि, वर्तमान में भारत के व्यक्तिगत कानून काफी जटिल और विविध हैं, प्रत्येक धर्म अपने विशिष्ट नियमों का पालन करता है।
भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का विचार था कि यूसीसी वांछनीय है, लेकिन संविधान सभा में महत्वपूर्ण विभाजन के बाद उन्होंने इसे फिलहाल स्वैच्छिक बने रहने का प्रस्ताव दिया। अंबेडकर ने कहा था कि , “शुरुआत करने के तरीके के रूप में, भविष्य की संसद यह प्रावधान कर सकती है कि संहिता केवल उन लोगों पर लागू होगी जो घोषणा करते हैं कि वे इसका पालन करने के इच्छुक हैं। दूसरे शब्दों में, प्रारंभ में, “संहिता का अनुप्रयोग विशुद्ध रूप से स्वैच्छिक हो सकता है।” अंबेडकर का  मानना था कि, यूसीसी को शुरू में एक स्वैच्छिक संहिता के रूप में पेश किया जा सकता है, और संसद निश्चित रूप से नागरिकों को इसका पालन करने के लिए बाध्य नहीं करेगी।
इसके पक्ष में दलील दी जाती है कि धार्मिक आधार पर पर्सनल लॉ होने की वजह से संविधान के पंथनिरपेक्ष की भावना का उल्लंघन होता है। संहिता के हिमायती यह मानते हैं कि हर नागरिक को अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार,अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार मिला हुआ है।इसके पक्षकारों की दलील है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के अभाव में महिलाओं के मूल अधिकार का हनन हो रहा है। शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर एक समान कानून नहीं होने से महिलाओं के प्रति भेदभाव किया जा रहा है। पक्षकारों का तर्क है कि लैंगिक समानता और सामाजिक समानता के लिए समान नागरिक संहिता होनी ही चाहिए।
अल्पसंख्यक समुदाय के लोग यूनिफॉर्म सिविल कोड का खुलकर विरोध करते आए हैं। विरोध में तर्क देने वाले लोगों का कहना है कि संविधान के मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद 25 से 28 के बीच हर शख्स को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। इसलिए हर धर्म के लोगों पर एक समान पर्सनल लॉ थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करना है।मुस्लिम इसे उनके धार्मिक मामलों में दखल मानते हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड  हमेशा से यूनिफॉर्म सिविल कोड को असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी बताता रहा है। ये बोर्ड दलील देता है कि संविधान हर नागरिक को अपने धर्म के मुताबिक जीने की अनुमति देता है। इसी अधिकार की वजह से अल्पसंख्यकों और आदिवासी वर्गों को अपने रीति-रिवाज, आस्था और परंपरा के मुताबिक अलग पर्सनल लॉ के पालन करने की छूट है।
समान नागरिक कानून का जिक्र 1835 में ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट में भी किया गया था. इसमें कहा गया था कि अपराधों, सबूतों और ठेके जैसे मुद्दों पर समान कानून लागू करने की जरूरत है. इस रिपोर्ट में हिंदू-मुसलमानों के धार्मिक कानूनों से छेड़छाड़ की बात नहीं की गई है. हालांकि, 1941 में हिंदू कानून पर संहिता बनाने के लिए बीएन राव समिति का गठन किया गया. राव समिति की सिफारिश पर 1956 में हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के उत्तराधिकार मामलों को सुलझाने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम विधेयक को अपनाया गया. हालांकि, मुस्लिम, ईसाई और पारसियों लोगों के लिये अलग कानून रखे गए थे.
भारतीय अनुबंध अधिनियम-1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम-1882, भागीदारी अधिनियम-1932, साक्ष्य अधिनियम-1872 में सभी नागरिकों के लिए समान नियम लागू हैं. वहीं, धार्मिक मामलों में सभी के लिए कानून अलग हैं. इनमें बहुत ज्‍यादा अंतर है. हालांकि, भारत जैसे विविधता वाले देश में इसको लागू करना इतना आसान नहीं है. देश का संविधान सभी को अपने-अपने धर्म के मुताबिक जीने की पूरी आजादी देता है. संविधान के अनुच्छेद-25 में कहा गया है कि कोई भी अपने हिसाब धर्म मानने और उसके प्रचार की स्वतंत्रता रखता है.
भारत का सामाजिक ढांचा विविधता से भरा हुआ है. हालात ये हैं कि एक ही घर के सदस्‍य अलग-अलग रीति-रिवाजों को मानते हैं. अगर आबादी के आधार पर देखें तो देश में हिंदू बहुसंख्‍यक हैं. लेकिन, अलग राज्‍यों के हिंदुओं में ही धार्मिक मान्‍यताएं और रीति-रिवाजों में काफी अंतर देखने को मिल जाएगा. इसी तरह मुसलमानों में शिया, सुन्‍नी, वहावी, अहमदिया समाज में रीति रिवाज और नियम अलग हैं. ईसाइयों के भी अलग धार्मिक कानून हैं. वहीं, किसी समुदाय में पुरुष कई शादी कर सकते हैं. कहीं विवाहित महिला को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिल सकता तो कहीं बेटियों को भी संपत्ति में बराबर का अधिकार दिया गया है. समान नागरिक संहिता लागू होते ही ये सभी नियम खत्म हो जाएंगे. हालांकि, संविधान में नगालैंड, मेघालय और मिजोरम के स्‍थानीय रीति-रिवाजों को मान्यता व सुरक्षा देने की बात कही गई है.
कोर्ट भी समय समय पर इस पर कई बार अपनी बात कह चुका है,ट्रिपल तलाक से जुड़े 1985 के चर्चित शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 44 एक ‘मृत पत्र’ जैसा हो गया है. साथ ही कोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जरूरत पर जोर दिया था. गोवा के लोगों से जुड़े 2019 के उत्तराधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की चर्चा करने वाले भाग चार के अनुच्छेद-44 में संविधान के संस्थापकों ने अपेक्षा की थी कि राज्य भारत के सभी क्षेत्रों में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करेगा. लेकिन, आज तक इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया.
समान नागरिक संहिता के मामले में गोवा अपवाद है. गोवा में यूसीसी पहले से ही लागू है. बता दें कि संविधान में गोवा को विशेष राज्‍य का दर्जा दिया गया है. वहीं, गोवा को पुर्तगाली सिविल कोड लागू करने का अधिकार भी मिला हुआ है. राज्‍य में सभी धर्म और जातियों के लिए फैमिली लॉ लागू है. इसके मुताबिक, सभी धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग से जुड़े लोगों के लिए शादी, तलाक, उत्‍तराधिकार के कानून समान हैं. गोवा में कोई भी ट्रिपल तलाक नहीं दे सकता है. रजिस्‍ट्रेशन कराए बिना शादी कानूनी तौर पर मान्‍य नहीं मानी जाती . संपत्ति पर पति-पत्‍नी का समान अधिकार है. हालांकि, यहां भी एक अपवाद है. जहां मुस्लिमों को गोवा में चार शादी का अधिकार नहीं है. वहीं, हिंदुओं को दो शादी करने की छूट है. हालांकि, इसकी कुछ शर्तें भी हैं.
दुनिया के कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है. इनमें हमारे पड़ोसी देश पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश भी शामिल हैं. इन दोनों देशों में सभी धर्म और संप्रदाय के लोगों पर शरिया पर आधारित एक समान कानून लागू होता है. इनके अलावा इजरायल, जापान, फ्रांस और रूस में भी समान नागरिक संहिता लागू है. हालांकि, कुछ मामलों के लिए समान दीवानी या आपराधिक कानून भी लागू हैं. यूरोपीय देशों और अमेरिका में धर्मनिरपेक्ष कानून है, जो सभी धर्म के लोगों पर समान रूप से लागू होता है. दुनिया के ज्‍यादातर इस्लामिक देशों में शरिया पर आधारित एक समान कानून है, जो वहां रहने वाले सभी धर्म के लोगों को समान रूप से लागू होता है.

भारत में अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होता है तो लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ा दी जाएगी. इससे वे कम से कम ग्रेजुएट तक की पढ़ाई पूरी कर सकेंगी. वहीं, गांव स्‍तर तक शादी के पंजीकरण की सुविधा पहुंचाई जाएगी. अगर किसी की शादी पंजीकृत नहीं होगी तो दंपति को सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिलेगा. पति और पत्‍नी को तलाक के समान अधिकार मिलेंगे. एक से ज्‍यादा शादी करने पर पूरी तरह से रोक लग जाएगी. नौकरी पेशा बेटे की मौत होने पर पत्‍नी को मिले मुआवजे में माता-पिता के भरण पोषण की जिम्‍मेदारी भी शामिल होगी. उत्‍तराधिकार में बेटा और बेटी को बराबर का हक होगा.

 

पत्नी की मौत के बाद उसके अकेले माता-पिता की देखभाल की जिम्‍मेदारी पति की होगी. वहीं, मुस्लिम महिलाओं को बच्‍चे गोद लेने का अधिकार मिल जाएगा. उन्‍हें हलाला और इद्दत से पूरी तरह से छुटकारा मिल जाएगा. लिव-इन रिलेशन में रहने वाले सभी लोगों को डिक्लेरेशन देना पड़ेगा. पति और पत्‍नी में अनबन होने पर उनके बच्‍चे की कस्‍टडी दादा-दादी या नाना-नानी में से किसी को दी जाएगी. बच्‍चे के अनाथ होने पर अभिभावक बनने की प्रक्रिया आसान हो जाएगी.इस तरह के कई प्रावधान इसमें हो सकते हैं….