Loksabha Election 2024: लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल खास होता जा रहा है। केंद्रीय मंत्रियों का दौरा लगातार हो रहा है। इस बीच जानकारी मिली है कि इसी महीने 29 तारीख को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह बंगाल के दौरे पर आ सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी 24 दिसंबर को कोलकाता में आ रहे हैं। इसे लेकर आगामी दिनों में एक बार फिर से काफी हलचल देखने को मिल सकती है।
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार दिल्ली में हैं और उनकी बातचीत केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से हुई है। सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो 29 को भाजपा की धर्मतल्ला के ब्रिगेड परेड मैदान में होने वाली जनसभा में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह आएंगे।
पांच चुनावी राज्यों में एक राजस्थान में जंग बेहद दिलचस्प मोड़ की तरफ बढ़ रही है यहां भाजपा और कांग्रेस दोनों की बेचैनी बढ़ गयी है क्योंकि राजस्थान की सियासत में दलितों और पिछड़ों की सबसे बड़ी पार्टी माने जाने वाली बहुजन समाज पार्टी यानी BSP की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती की एंट्री होने जा रही है. राजस्थान का इतिहास गवाह है कि जब भी मायावती यहां किसी सीट पर प्रचार के लिए गयी हैं उनमे अधिकतर सीट बसपा जीती है, ऐसे में भाजपा और कांग्रेस के खेमे में सेंध लगने की उम्मीद है, इसका सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हो सकता है क्योंकि दलित वोटर राजस्थान में कांग्रेस का मुख्य वोटर भी माना जाता है ऐसे में जिनके दम पर कांग्रेस को सत्ता में वापसी की उम्मीद है,वो वोटर उनसे छिटक सकता है.
ऐसा पहले भी कई बार हुआ है,,ऐसे में जब मुकाबला कांटे का दिखाई दे रहा है तो एक एक सीट दोनों पार्टियों के लिए बड़ा महत्व रखती है,,,पिछली बार के चुनाव में भी बसपा 6 सीटें जीती थी,जबकि एक दर्जन सीटों पर उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे थे,,राजस्थान में 39 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं ऐसे में मायावती का फोकस इन सीटों पर है ऊपर से जिन नेताओं को टिकट नहीं मिल रहे वो बसपा में शामिल हो रहे हैं. इनमें सबसे अधिक कांग्रेस के विधायक हैं मायावती और अशोक गहलोत के बीच की अदावत जग जाहिर है,,सियासी जानकार मानते हैं कि मायावती गहलोत से बहुत नाराज है क्योकि उन्होंने दो बार उनके जीते विधायकों को कांग्रेस में शामिल कराया,ऐसे में इस बार मायावती ने खुद मोर्चा संभाला है.
मायावती इस बार 40 सीटों पर खुद प्रचार करेंगी,,,इनमें पूर्वी राजस्थान में बसपा का सबसे बड़ा असर है,,यहां बसपा के टिकट पर लड़ने वाला कोई भी उम्मीदवार आसानी से 10 से 15 हजार वोट हासिल कर लेता है, सियासी जानकार ये भी मानते हैं कि बसपा सबसे अधिक डैमेज कांग्रेस को पहुंचाती है,,कुल मिलाकर ये भी कहा जा सकता है कि मायावती अशोक गहलोत की सत्ता वापसी के सपने को तोड़ भी सकती हैं मायावती 5 साल बाद भरतपुर शहर के नदबई कस्बे में आ रही हैं और उनका मकसद 7 विधानसभा सीटों पर 4 लाख एससी वोटो को साधना है. मायावती ने 2018 के विधानसभा चुनावों में नदबई कस्बे में बसपा प्रत्याशी जोगिंदर सिंह अवाना के समर्थन में जनसभा को संबोधित किया था और जोगिंदर सिंह अवाना विजय हुए थे. बसपा पार्टी से विजय होने के बाद जोगिंदर सिंह अवाना कांग्रेस में शामिल हो गए. इस बार 2023 के चुनाव में नदबई विधानसभा से खेमकरण तौली को उम्मीदवार बनाया है. इस जनसभा में जिले की सात विधानसभा क्षेत्रों से बहुजन समाज के कार्यकर्ता व समर्थक बड़ी संख्या में शामिल हुए .
राष्ट्रीय अध्यक्ष सुप्रीमो मायावती की भरतपुर जिले में प्रत्येक विधानसभा चुनाव में जनसभा आयोजित करवाई जाती है, क्योंकि यहां बीएसपी पार्टी को काफी फायदा मिलता है और सात विधानसभा क्षेत्र में से दो या तीन सीटों पर इन्हें विजय हासिल होती है. 2018 के चुनाव में नगर और नदबई विधानसभा क्षेत्र से बसपा को विजय हासिल हुई थी.भरतपुर की सातों विधानसभा सीटों पर एससी वोट बड़ी संख्या में हैं. यही वजह है कि सुप्रीमो मायावती भरतपुर में जनसभा को संबोधित करने जा रही हैं. जनसभा आयोजित होने से जिले की कई विधानसभा सीटों का गणित बदलेगा.
क्या राजस्थान में किंग मेकर की भूमिका में आ सकती हैं मायावती-
बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती 17 से 20 नवंबर तक राजस्थान के दौरे पर रहेंगी, जहां वे बसपा प्रत्याशियों के समर्थन में आम सभाएं और रैलियां करेंगी. मायावती अपने चार दिवसीय राजस्थान दौरे के दौरान 20 नवंबर को लाडनूं आएंगी. वे यहां बसपा प्रत्याशी नियाज मोहम्मद खान के समर्थन में जनसभा को संबोधित करेंगी. बहुजन समाज पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष भगवान सिंह बाबा के अनुसार, राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती राज्य में 17 से 20 नवम्बर तक बसपा प्रत्याशियों के समर्थन में 8 जनसभाओं को सम्बोधित करेंगी.
यूपी के आगरा से राजस्थान के भरतपुर व धौलपुर के 50 से अधिक गांवों की सीमाएं जुड़ीं हैं. इसलिए आगरा के कई बसपा नेता राजस्थान चुनाव में विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव प्रबंधन में शामिल हैं. इसका भी फायदा उनको मिल सकता है, बता दें कि राजस्थान में 25 नवंबर को 200 सीटों के लिए मतदान होगा, ऐसे में जब बसपा पहले ही ऐलान कर चुकी है कि इस बार वो सरकार में शामिल होगी तो मतलब साफ़ है अगर बसपा राजस्थान में कुछ सीट जीत जाती है और किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो ऐसे में मायावती किंग मेकर की भूमिका में आ सकती हैं और अगर ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर 2024 चुनाव में भी मायावती अहम भूमिका में आ सकती हैं क्योंकि उन्होंने अभी तक अपने पत्ते साफ़ नहीं किये हैं कि 2024 में उनका रुख किस ओर होगा। बहरहाल आने वाला समय साफ़ कर देगा कि मायावती राजस्थान में किसको डेंट मारने जा रही है.
क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बढ़ती हुई उम्र उनके और उनकी कुर्सी के बीच में आ रही है क्या बढ़ती उम्र में रिटायरमेंट लेकर घर बैठने का पीएम मोदी का दिया फार्मूला अब उन्हीं के गले की फांस बन गया है. और इसलिए क्या मोदी आगे के लिए अपना रास्ता साफ कर रहे हैं, यह सवाल उठने शुरू हुए मध्य प्रदेश चुनाव में बीजेपी प्रत्याशियों की सूची सामने आने के बाद क्योंकि इस सूची में करीब 15 ऐसे लोगों को टिकट दिया गया है जिनकी उम्र 70 साल से ज्यादा है बल्कि ये भी कहा जा सकता है कि थोड़ी बहुत नहीं बहुत ज्यादा है, क्योंकि ये सूची बता रही है कि भाजपा अपने ही संकल्प से पीछे हट रही है इसलिए ही सूची कई सवाल खड़े कर रही है और सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर, लोग कह रहे हैं कि कहीं इस बदलाव की बढ़ती वजह पीएम मोदी की बढ़ती हुई उम्र तो नहीं,, वो 73 के हो चुके हैं और जब अगला लोकसभा चुनाव लड़ेंगे तब तक 74 के हो जाएंगे मतलब उन्हीं के जन्म प्रमाण पत्र के हिसाब से मोदी अगर 2024 में जीते भी 5 साल के शासन के अंत में 80 साल के हो चुके होंगे,, इस उम्र का आदमी भारत जैसे बड़े देश को चलाने के लिए शारीरिक और मानसिक तौर पर कितना फिट होता है यह सवाल संघ, भाजपा और देश की जनता के सामने है. क्योंकि ये तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही बता चुके थे कि इतनी ज्यादा उम्र राजनीति के लिए सही नहीं होती.
इस सवाल के बाद दो और सवाल खड़े होते हैं,, की क्या ये बदलाव मोदी के लिए खुशी से किया जा रहा है,, सहमति से किया जा रहा है,, या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह बदलाव खुद करवा रहे हैं यानी कि दबाव में करवाया जा रहा है.. अब पहले यह जान लेते हैं की सूची पर सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं,, मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और भाजपा राज्य में जीतने के लिए सभी तरीके अपना रही है लेकिन पार्टी के प्रत्याशियों की सूची शुरुआत से ही वादों में घिरी हुई है पहले तो सूची सामने आने के बाद बीजेपी की अंतर्कलह खुलकर सामने आ गई खुद अमित शाह को नाराज नेताओं को मनाने के लिए मध्य प्रदेश में आना पड़ा,, ऐसे में अब पार्टी अपने प्रत्याशियों की उम्र को लेकर सवालों में घिर गई है.
दरअसल पार्टी ने तीन केंद्रीय मंत्रियों और एक महासचिव समेत 7 सांसदों को मैदान में उतारा है,, बीजेपी ने इस बार 70 से ज्यादा उम्र के 14 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है जिनमें सबसे उम्र दराज 80 साल है,, इसके बाद से हर तरफ से इसी सूची की चर्चाएं हैं. सवाल उठ रहे हैं कि आखिर भाजपा अपने ही संकल्प से पीछे क्यों हट रही है,, क्या यह पार्टी की मजबूरी है या उसकी जरूरत,, सवाल उठने की सबसे बड़ी वजह पार्टी का अपना ही संकल्प है. दरअसल पार्टी ने तय किया था कि 70 से ज्यादा उम्र के होने पर नेता सक्रिय राजनीति से हटकर नई पीढ़ी को आगे बढ़ाएंगे, इस से युवाओं को मौका मिलेगा जिससे नई सोच, नए विचारों के साथ पार्टी आगे बढ़ेगी लेकिन अब जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहा है पार्टी तो उलटी गंगा बहा रही है. देखने को मिल रहा है कि पार्टी उन्ही पुराने चेहरों पर दाव लगा रही है.
इसको लेकर तमाम तरह के कयास लग रहे हैं लेकिन ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह सब मोदी की वजह से हो रहा है इसे ऐसे समझिए कि पार्टी ने कह तो दिया था कि 70 से ऊपर के लोगों को टिकट नहीं दिया जाएगा लेकिन मोदी की ही उम्र अब 73 हो चुकी है उस हिसाब से अब 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं मिलना चाहिए, लेकिन मोदी तो तीसरे टर्म का सपना सजा रहे हैं बाकायदा लाल किले से उन्होंने इसका ऐलान किया था ऐसे में अगर बढ़ती उम्र की वजह से उन्हें टिकट ही नहीं मिलेगा तो उनका सपना कैसे पूरा होगा. यही वजह है कि पार्टी अभी से मोदी का रास्ता क्लियर करने में लग गई है या ये भी कह सकते हैं कि पीएम मोदी खुद ही ऐसा करवा रहे हैं,, हालांकि इसके कयास तभी से लगने लगे थे जब कर्नाटक चुनाव में येदियुरप्पा को भाजपा ने अपना पोस्टर बॉय बनाया था जबकि उनकी उम्र 80 साल थी मजाक की बात तो यह है कि उन्हें सीएम की कुर्सी से हटाया गया था बढ़ती उम्र का हवाला देकर. लेकिन जैसे ही चुनाव आए और कर्नाटक में बिना येदुरप्पा के नाव डूबती दिखाई दी तो भाजपा ने उन्हें माथे पर बैठा लिया हालांकि तब तक बहुत देर हो चुकी थी और कांग्रेस ने भाजपा के छक्के छुड़ा दिए लेकिन अब तो बीजेपी 70 पार को आउट करने के खुद मोदी के ही संकल्प से पीछे हटती हुई नजर आ रही है.
इस पर राजनीति के जानकारों के कान खड़े हो गए हैं क्योंकि भाजपा ने केवल कुछ विधायकों की जीत के लिए मोदी का बनाया हुआ संकल्प नहीं तोड़ा है खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बढ़ती हुई उम्र के उठने वाले सवालों को किनारे करने के लिए तोड़ा है क्योंकि यदुरप्पा से पहले भी ऐसे कई नाम है जिन्हे पार्टी ने उम्र का हवाला देकर भाजपा की सक्रिय राजनीति से आउट कर दिया था. लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. 2014 के बाद पार्टी बार-बार यह संदेश देती रही कि वो किसी विरासत,, परंपरागत राजनीति और तौर तरीकों को ढोने की बजाय लगातार बदलाव,, युवाओं और नए चेहरों को वरीयता देने में विश्वास रखती है, और इसी के तहत पार्टी ने पहले अपने राष्ट्र कार्यकारिणी से अपने मुखर राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी और सख्त तेवर वाली नेता मेनका गांधी और राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले विनय कटिहार को बाहर कर दिया, इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में उम्र का ख्याल रखा गया पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी को मार्गदर्शक मंडल में बैठा दिया उनके मंत्रिमंडल के कई चेहरों को 75 साल के होने की वजह से अपना पद खोना पड़ा, कलराज मिश्रा के अलावा कई मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा.
दूसरा बड़ा उदाहरण 2019 में टिकट बंटवारे का था, वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और डॉ मुरली मनोहर जोशी को भी टिकट नहीं मिला.. पार्टी ने वजह बताई थी कि जब पुराने लोग अपनी सीट छोड़ेंगे नहीं तो युवाओं को कैसे मौका मिलेगा लेकिन मध्य प्रदेश के लिए प्रत्याशियों की लिस्ट आने के बाद लोग तंज कस रहे हैं कि मोदी है तो मुमकिन है. पीएम मोदी के लिए अपने ही बनाए नियमों और संकल्पों का कोई मतलब नहीं है.
2024 आने से पहले ही फिल्डिंग शुरू हो गयी है, जिससे जब 2024 में मोदी को टिकट मिले तो कोई बीजेपी नेता और विपक्ष के नेता उंगली ना उठा सके. हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि कर्नाटक चुनाव में हार के बाद से पार्टी ने थोड़ा सबक लिया है कर्नाटक में उसने पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार जिनकी उम्र 67 और पूर्व उपमुख्यमंत्री केसी सुरप्पा जिनकी उम्र 74 थी उन जैसे दिग्गज और पुराने नेताओं के बजाय युवा उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी थी इससे पार्टी को नुकसान हुआ,, इसलिए पुराने चेहरों पर दाव लगाना पार्टी की मजबूरी भी है लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी कुर्सी,, अपनी जगह छोड़ना नहीं चाहते इसलिए अभी से माहौल बनना शुरू हो गया है. खैर जो भी हो पार्टी को इससे फायदा होगा या नहीं ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन इस लिस्ट ने बीजेपी की चारों तरफ फजीहत जरुर करवा दी है की ये पार्टी सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें और दावे करना जानती हैं उस पर टिकना नहीं जानती.
कट ऑफ डेट क्यों बढ़ाई गयी –
‘पेंशन एवं पेंशनभोगी कल्याण विभाग के पास संबंधित अथॉरिटी या नियुक्ति अथॉरिटी द्वारा इस संबंध में तय अंतिम तिथि को बढ़ाने का आग्रह किया गया था। विभिन्न विभागों की तरफ से मिले आग्रह पत्रों पर विचार करने के बाद ‘पेंशन एवं पेंशनभोगी कल्याण विभाग’ द्वारा अब इस संबंध में फाइनल निर्णय लेने की कट ऑफ डेट को बढ़ाकर 30 नवंबर कर दिया गया है। केंद्र सरकार ने केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियम, 1972 (अब 2021) के तहत ऐसे कर्मचारियों को एनपीएस से ओपीएस में आने का विकल्प प्रदान किया था, जो 22 दिसंबर, 2003 से पहले विज्ञापित या अधिसूचित पदों के लिए केंद्र सरकार की सेवाओं में शामिल हुए थे। ऐसे कर्मियों को 31 अगस्त तक किसी एक विकल्प का चयन करने की मोहलत दी गई थी। ये आदेश मार्च 2023 में जारी किए गए थे। कुछ कर्मचारी ऐसे भी थे जो उक्त आदेश से पहले रिटायर हो गए। पिछले दिनों उन्होंने पूछा था कि क्या उन्हें भी अपनी सेवानिवृत्ति के पश्चात एनपीएस से ओपीएस में शामिल होने का विकल्प मिलेगा। सरकार ने कहा, वे भी ओपीएस में आ सकते हैं। बशर्ते उन्हें कुछ शर्तें पूरी करनी होंगी।
2003 से पहले पूरी हुई थी भर्ती प्रक्रिया-
केंद्र सरकार के उन कर्मियों को, जो एक जनवरी 2004 को या उसके बाद सरकारी सेवा में आए थे, लेकिन उनकी भर्ती प्रक्रिया उक्त तिथि से पहले ही पूरी हो चुकी थी। इसमें पदों के विज्ञापन से लेकर भर्ती की सभी औपचारिकताएं शामिल थी। किन्हीं कारणों से ऐसे कर्मचारी, जनवरी 2004 के बाद सेवा में आए थे। 22 दिसंबर 2003 को एनपीएस लागू होने से पहले उन कर्मियों का फाइनल रिजल्ट आ चुका था, लेकिन उन्हें ज्वाइनिंग पहली जनवरी 2004 के बाद मिली थी। ऐसे में उन्हें पुरानी पेंशन का लाभ नहीं मिल सका। उन्हें एनपीएस में शामिल कर दिया गया। केंद्रीय कर्मचारियों से बड़ी संख्या में, केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियम, 1972 (अब 2021) के तहत पेंशन योजना के लाभ का विस्तार करने के अनुरोध प्राप्त हुए। कर्मियों ने उच्च न्यायालयों और केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरणों की शरण ली। वहां से जब उनके पक्ष में फैसले हुए तो केंद्र सरकार ने 3 मार्च 2023 को उन सभी कर्मियों को ओपीएस में शामिल होने का विकल्प प्रदान किया था। इसके लिए कर्मचारियों को 31 अगस्त तक अपना विकल्प देना था।
Nitish Kumar Viral Statement- बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मंगलवार को विधानसभा में जाति आधारित गणना की रिपोर्ट पेश की। जब जाति आधारित गणना पर चर्चा चल रही थी तो सीएम नीतीश कुमार ने ऐसा बयान दे दिया, जिसे सुन हर कोई हैरान है। इस दौरान उन्होंने प्रजनन दर पर भी चर्चा की। चर्चा के दौरान सीएम नीतीश कुमार ने पति-पत्नी के बीच बनने वाले शारीरिक संबंधों पर टिप्पणी की। उनके बयान सुन पूरे सदन का माहौल एकाएक बदल गया। पुरुष विधायक हंसने लगे तो महिलाएं झेंप गईं।
मध्य प्रदेश की राजनीति में एक वीडियो के आने के बाद बवाल मचा है। दरअसल, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र प्रताप सिंह तोमर (रामू तोमर) का एक वीडियो काफी वायरल हो रहा है। इस कथित वीडियो को लेकर कांग्रेस भी भाजपा पर हमलावर हो गई है।
ऐसा लगता है कि ED पर जो आरोप लगते हैं उसको सिर्फ और सिर्फ विपक्ष के लोग दिखाई देते हैं वो कहीं न कहीं सही साबित हो रहे हैं,,जांच एजंसियों की कारवाही को लेकर सवाल तो हमेशा उठते ही रहते हैं लेकिन अब इनकी विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में हैं तो क्या जाँच एजंसियां अब सिर्फ सरकार के हाथ की कटपुतली बनकर रह गयी है, हाल ही में केंद्रीय मंत्री और प्रधानमंत्री के सबसे ख़ास मंत्रियों में शुमार नरेंद्र तोमर के बेटे का एक वीडियो वायरल हो रहा है.
कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा कि एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र सिंह तोमर घूस की मांग करते हुए प्रतीत होते हैं. उन्होंने कहा कि सबसे पहले चुनाव आयोग को संज्ञान में लेकर वीडियो देखनी चाहिए. सुप्रिया श्रीनेत ने कहा, ”मामले में त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए. 100 करोड़ की, 39 करोड़ की डील हो रही है. कोई त्यागी नाम के खनन के लोगों की बात हो रही है. कृष्ण मेनन के घर के पते की बात हो रही है.’उन्होंने कहा, ”सच ये है कि नरेंद्र सिंह तोमर खनन मंत्री रह चुके हैं. कृष्ण मेनन मार्ग पर अमित शाह के पड़ोसी भी हैं. असलियत ये है कि इन सब मामलों में ईडी-सीबीआई को सांप क्यों सूंघ गया है ?
सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल होने के बाद नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र सिंह तोमर ने एमपी के मुरैना जिले के सिविल लाइंस थाने में एफआईआर दर्ज कराई है. उन्होंने अपनी शिकायत में कहा है कि एक वीडियो में मुझे करोड़ों का लेन-देन करते हुए गलत तरीके से दिखाया गया है. इस फेक वीडियो के सहारे मेरी छवि को नुकसान पहुंचाने की साजिश रची जा रही है.
कांग्रेस ने कहा,कि ”एक आरोप लगा है, वो रसूख वाले हैं. ऐसे में अगर वो बर्खास्त नहीं होंगे, इस्तीफा नहीं होगा तो जांच कैसे होगी. न्यायिक जांच होनी चाहिए. देवेंद्र तोमर को गिरफ्तार किया जाना चाहिए.’ उन्होंने कहा कि पीएम मोदी के नाक के नीचे ये हो रहा है. जांच होगी, तभी तो पता चलेगा कि ये वीडियो फेक है या ओरिजनल.
पुरानी पेंशन बहाली की मांग को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकारी कर्मियों की दो रैलियां हो चुकी हैं। अब 3 नवंबर को तीसरी बड़ी रैली होने जा रही है। इस रैली में सात सूत्री एजेंडे पर हुंकार भरी जाएगी, जिसमें पहले नंबर पर एनपीएस की समाप्ति और ओपीएस की बहाली है। इसके बाद केंद्र सरकार में रिक्त पदों को नियमित भर्ती के जरिए भरना, निजीकरण पर रोक, आठवें वेतन आयोग का गठन और कोरोनाकाल में रोके गए 18 महीने के डीए का एरियर जारी करना, ये बातें भी कर्मचारियों की मुख्य मांगों में शामिल हैं। यह रैली कॉन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाइज एंड वर्कर्स के बैनर तले होगी। इसमें ऑल इंडिया स्टेट गवर्नमेंट एम्प्लाइज फेडरेशन सहित करीब 50 कर्मी संगठन हिस्सा लेंगे।
कॉन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाइज एंड वर्कर्स के महासचिव एसबी यादव ने बताया कि केंद्र सरकार में रिक्त पदों को नियमित भर्ती के जरिए भरना, निजीकरण पर रोक लगाना, आठवें वेतन आयोग का गठन करना और कोरोना काल में रोके गए 18 महीने के डीए का एरियर जारी करना, ये बातें भी कर्मचारियों की मुख्य मांगों में शामिल हैं। सरकारी कर्मचारियों की लंबित मांगों को लेकर पिछले साल से ही चरणबद्ध तरीके से प्रदर्शन किए जा रहे हैं। दिसंबर 2022 को दिल्ली के तालकटोरा इंडोर स्टेडियम में कर्मियों के ज्वाइंट नेशनल कन्वेंशन के घोषणा पत्र के मुताबिक, कर्मचारियों की मुहिम आगे बढ़ाई जा रही है। राज्यों में भी कर्मियों की मांगों के लिए सम्मेलन/सेमिनार और प्रदर्शन आयोजित किए गए हैं। अब इस कड़ी में तीन नवंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली आयोजित की जाएगी।
इस बयान में पीएम मोदी बड़े ही जोश से देश की जनता को पाई-पाई का हिसाब जानने की बात कर रहे हैं, कह रहे हैं कि इसलिए ही तो हम विकास की यात्रा को तेज चला रहे हैं लेकिन ये विकास की यात्रा इतनी तेज चल पड़ी है कि अब जनता से ही जनता के पैसों का हिसाब छुपाया जा रहा है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार के द्वारा लाये गए इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुनवाई कर रहा है.
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड –
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है. यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकता है.भारत सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी. इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को कानून लागू कर दिया था. इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बांड जारी कर सकता है. इन्हें कोई भी दाता ख़रीद सकता है, जिसके पास एक ऐसा बैंक खाता है, जिसकी KYC की जानकारियां उपलब्ध हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड में भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता है.योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1 हजार रुपये, 10 हजार रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा सकते हैं.चुनावी बॉन्ड की अवधि केवल 15 दिनों की होती है, जिसके दौरान इसका इस्तेमाल सिर्फ़ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता है.केवल उन्हीं राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा दिया जा सकता है, जिन्होंने लोकसभा या विधान सभा के लिए पिछले आम चुनाव में डाले गए वोटों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो.योजना के तहत चुनावी बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों में 10 दिनों की अवधि के लिए खरीद के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं. इन्हें लोकसभा चुनाव के वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि के दौरान भी जारी किया जा सकता है.https://youtu.be/kllhVYNM_8A
कई लोगों ने किये ट्वीट-
दरअसल पिछले कुछ सालों में ये सवाल बार-बार उठा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी गई है. इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है. एक आलोचना यह भी है कि यह योजना बड़े कॉरपोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी.इस योजना को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दायर की गई है. पहली याचिका साल 2017 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और ग़ैर-लाभकारी संगठन कॉमन कॉज़ द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई थी और दूसरी याचिका साल 2018 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने दायर की थी. सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि इस योजना की वजह से भारतीय और विदेशी कंपनियों द्वारा असीमित राजनीतिक दल और राजनीतिक दलों के गुमनाम फ़ंडिंग के द्वार” खुल जाते हैं, जिससे बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बना दिया जाता है. याचिकाओं में ये भी कहा गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की गुमनामी एक नागरिक को ‘जानने के अधिकार’ का उल्लंघन करती है, उस अधिकार का जिसे सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों ने संविधान के अनुच्छेद 19- (ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक पहलू माना है.सबसे अधिक हिस्सेदारी बीजेपी की-
चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में कुल सात राष्ट्रीय दलों और 24 क्षेत्रीय दलों को चुनावी बॉण्ड से कुल 9,188 करोड़ रुपये मिले. इस 9,188 करोड़ रुपये में से अकेले भारतीय जनता पार्टी की हिस्सेदारी लगभग 5 हजार 272 करोड़ रुपये थी. यानी कुल इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए दिए गए चंदे का करीब 58 फीसदी बीजेपी को मिला. इसी अवधि में कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड से क़रीब 952 करोड़ रुपये मिले, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ रुपये मिले.
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 और वित्त वर्ष 2021-22 के बीच राष्ट्रीय पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये मिलने वाले चंदे में 743 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. एडीआर ने अपने विश्लेषण में पाया कि इन पांच सालों में से वर्ष 2019-20 जो लोकसभा चुनाव का वर्ष था उसमें सबसे ज़्यादा 3 हजार 439 करोड़ रुपये का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये आया. इसी तरह वर्ष 2021-22 में जिसमें 11 विधानसभा चुनाव हुए उसमें भी राजनीतिक पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये क़रीब 2 हजार 664 करोड़ रुपये का चंदा मिला.
क्या कहा था चुनाव आयोग ने-
साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर एक हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता को ख़त्म कर देंगे और इसका इस्तेमाल भारतीय राजनीति को प्रभावित करने के लिए विदेशी कॉर्पोरेट शक्तियों को आमंत्रण देने जैसा होगा. चुनाव आयोग ने ये भी कहा था कि कई प्रमुख कानून में किए गए संशोधनों की वजह से ऐसी शेल कंपनियों के खुल जाने की संभावना बढ़ जाएगी, जिन्हें सिर्फ़ राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के इकलौते मकसद से बनाया जाएगा.
एडीआर की याचिका के मुताबिक, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बार-बार चेतावनी दी थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल काले धन के प्रसार, मनी लॉन्ड्रिंग, और सीमा-पार जालसाज़ी को बढ़ाने के लिए हो सकता है. इलेक्टोरल बॉन्ड को एक ‘अपारदर्शी वित्तीय उपकरण’ कहते हुए आरबीआई ने कहा था कि चूंकि ये बॉन्ड मुद्रा की तरह कई बार हाथ बदलते हैं, इसलिए उनकी गुमनामी का फ़ायदा मनी-लॉन्ड्रिंग के लिए किया जा सकता है.
कई लोग और संस्थाए इस पर सवाल उठा रही है और केंद्र सरकार हिसाब न देकर इन सवालों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ इलेक्टोरल बॉन्ड या चुनावी बॉन्ड योजना की कानूनी वैधता से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही है. ये मामला सुप्रीम कोर्ट में आठ साल से ज़्यादा वक़्त से लंबित है और इस पर सभी निगाहें इसलिए भी टिकी हैं क्योंकि इस मामले का नतीजा साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर बड़ा असर डाल सकता है.