Author: Pravesh Rana

युवाओं के हक पर डाका डालती उत्तराखंड की सरकारें, कोर्ट में खुल गयी भाजपा-कांग्रेस की पोल. 

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उत्तराखंड में अक्सर प्राकृतिक आपदा आती हैं लेकिन उत्तराखंड बनने से अब तक  भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने पुरे प्रदेश का जो नुकसान पहुंचाया है शायद ही किसी आपदा ने इतना नुकसान प्रदेश को पहुंचा होगा, कोई भी पार्टी या उसकी कोई भी सरकार प्रदेश में रही हो सबने प्रदेश में खूब लूट और मनमर्जी की है,, यहां की सरकारों ने  इस प्रदेश के युवाओं का शोषण और उनके हक पर खूब डाका डाला है शायद किसी राज्य में आज तक ऐसा हुआ हो, शायद यहीं कारण रहा है कि हमारा प्रदेश आज भी उसी हालात में खड़ा है जैसा बनने के समय पर था,, तो क्या भाजपा और कांग्रेस बारी बारी इस प्रदेश को नुकसान पहुंचाने पर लगे हुए हैं ? वो तो शुक्र है हमारी न्यायपालिका का जिनकी वजह से राजनैतिक  दलों की मनमानी पर थोड़ा रोक है.

 

सरकार के सपथ पत्र से हुआ बड़ा खुलासा ….

र्ती घोटालों में तो उत्तराखंड नंबर 1 बना हुआ है,अब चाहे वो आयोग की भर्तियां हो या विधानसभा या सचिवालय की भर्तियां रही हो,,, आपको बता दें कि अभी हाल ही में नैनीताल हाईकोर्ट ने विधानसभा और सचिवालय भर्ती को लेकर सरकार से सपथ पत्र के माध्यम से राज्य बनने से लेकर अब तक हुई भर्तियों का ब्योरा मांगा था,हाई कोर्ट में दायर जनहित याचिका में पारित आदेश के अनुपालन में विधानसभा सचिवालय की ओर से करीब साढ़े चार सौ पेज से अधिक का शपथ पत्र दाखिल किया गया है। सरकार ने जो ब्योरा कोर्ट में दिया है उसे जानकर आप हैरान हो जायेंगे,इसमें साफ़ है कि किस तरह सरकारों ने नियम कायदों को रद्दी की टोकरी में डाल कर मनमानी की है..  

 
 
राज्य बनने से लेकर वर्तमान तक नियमों का घोर उल्लंघन….

इसमें सामने आया है कि विधानसभा सचिवालय में राज्य बनने से पिछली विधानसभा तक में नियुक्तियों में नियमों का घोर उल्लंघन किया गया है । आरक्षण के प्रावधानों को दरकिनार करने के साथ ही चयनित अभ्यर्थियों की शैक्षिक योग्यता व अन्य योग्यता की सक्षम अधिकारियों ने जांच नहीं की और  नियुक्ति दे दी। शपथ पत्र में   साफ कहा है कि कार्मिक विभाग के मना करने तथा वित्त विभाग की आपत्तियों को दरकिनार कर नियुक्तियां की गई, साथ ही सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों ने नियुक्ति व वेतन के आदेश जारी किए हैं ।

सर्विस रूल्स के आधार पर नहीं हुई कोई नियुक्ति …

शपथ पत्र के अनुसार विधानसभा सचिवालय में 2001 में 53, 2002 में 28, 2004 में 18, 2006 में 21,2007 में 27, 2016 में सर्वाधिक 149, 2021 में 72 सहित कुल 396 नियुक्तियां गई हैं, जो सर्विस रूल्स के आधार पर नहीं हैं। 2011 के नियमों के नियम-सात में सरकार के प्रचलित आदेशों के अनुसार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अन्य श्रेणियों के लिए आरक्षण का प्रावधान है, नियुक्ति करते समय नियम सात के प्रावधानों का अनुपालन नहीं किया गया है. नियुक्तियां करने के लिए शैक्षिक एवं अन्य योग्यताओं की जांच सक्षम प्राधिकारियों से की जानी आवश्यक है, जो नहीं की गई।

2016 से 2020 तक की गयी नियुक्तियां की गयी रद्द…

कुल मिलाकर जिसकी सरकार रही उसने अपने लोगों को बिना किसी नियम को पूरा किये ही नौकरी दे डाली। विधानसभा की ओर से दाखिल शपथ पत्र में संलग्न जांच कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा है कि 2016, 2020 और 2021 में नियुक्तियां की गई, जिसमें नियमानुसार चयन समिति का गठन, आवेदन आमंत्रित करने, प्रतियोगी परीक्षाओं आदि सहित भर्ती के लिए एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित है, लेकिन नियमों में निर्धारित किसी भी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। कार्मिक विभाग ने ऐसी नियुक्तियों पर आपत्ति जताई थी। परिणामस्वरूप नियुक्तियां अवैध थीं और उन्हें उचित रूप से समाप्त कर दिया गया।

सविधान का मजाक उड़ाती उत्तराखंड की सरकारें ….

भारत का सविधान कहता है कि  कानून का शासन संविधान की मूल विशेषता है। कोई भी प्राधिकारी कानून से ऊपर नहीं है और कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 13  में प्रावधान है कि ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जा सकता जो संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विपरीत हो। कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। चाहे आप कितने भी ऊंचे क्यों न हों, कानून आपसे ऊपर है। सभी पर लागू होता है, चाहे उसकी स्थिति, धर्म, जाति, पंथ, लिंग या संस्कृति कुछ भी हो। संविधान सर्वोच्च कानून है. संविधान के तहत बनाई जा रही सभी संस्थाएं, चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका, इसकी अनदेखी नहीं कर सकतीं। लेकिन उत्तराखंड की सरकारें खुल्लेआम सविधान का मजाक उड़ाती रही ,, अब सरकार के सपथ पत्र के बाद कोर्ट को इस पर फैसला देना हैं,कोर्ट के फैसले के बाद साफ़ हो जाएगा कि  सरकार ने जिन चहेतों को नियम विरुद्ध नियुक्ति दी है वो रहेंगे या अन्य की तरह वो भी बाहर जायेंगे,कोर्ट के फैसले का फिलहाल सभी को इन्तजार है…..

त्रिवेंद्र सरकार में लिया फैसला रोक सकता था जोशीमठ की तबाही ?

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जोशीमठ के लोगों पर फिर खतरा मंडराने लगा है,सरकार की अनदेखियों का खामयाजा भुगत रहे शहर को क्या समय रहते बचाया जा सकता था ?क्या पूर्व की त्रिवेन्द रावत की सरकार का एक फैसला तबाह होते जोशीमठ को बचा सकता था ?

जोशीमठ आपदा को छह माह का समय पूरा हो चुका है। सरकार जोशीमठ को बचाने के लिए धीरे-धीरे कदम बढ़ा रही है। कुछ आपदा प्रभावितों का जनजीवन पटरी पर लौट आया है, जबकि कुछ अभी राहत के इंतजार में हैं। कई आपदा प्रभावितों के दुख-दर्द से उबरने की उम्मीद कागजों में उलझी हुई है। ऐसे में वह राहत शिविर या रिश्तेदारों के घर रहने को मजबूर हैं। वहीं, मदद की बाट जोह रहे कुछ परिवार फिर से टूटे-फूटे घरों में रहने के लिए लौट गए हैं। आपको बता दें कि  नगर में दरार वाले 868 भवन चिह्नित किए गए थे। इनमें 181 भवन जीर्ण-शीर्ण हैं, यहां रहने वाले परिवारों में से 118 को पुनर्वास पैकेज के तहत 26 करोड़ रुपये वितरित किए जा चुके हैं।वर्तमान में 64 परिवारों के 259 सदस्य राहत शिविरों में रह रहे हैं, जबकि 232 परिवारों के 736 सदस्य रिश्तेदार या किराये के भवन में हैं।कई लोगों को होटलो में रुकवाया गया था लेकिन यात्रा सीजन शुरू होते ही होटल मालिकों ने इनसे होटल खाली करवा दिए जिसके बाद ये परिवार दोबारा उन्ही छतिग्रस्त मकानों में रहने को मजबूर हो गए हैं,6 माह के समय कबीट जाने के बाद भी सरकार इनको घर नहीं दे पाई है.. मानसून की दस्तक ने आपदा प्रभावितों की चिंता बढ़ा दी है। वर्षा से भूमि व मकानों में आई दरारें बढ़ने और शिलाओं के खिसकने का खतरा बढ़ गया है। हाल ही में सुनील गांव और नृसिंह मंदिर के पास दो जर्जर भवन क्षतिग्रस्त हुए हैं।

भू धसाव के समय असुरक्षित भवनों से 300 से अधिक परिवार राहत शिविरों में भेजे गए थे। यहां से 232 परिवार रिश्तेदार या किराये के भवन में रहने चले गए।  सरकार द्वारा इनको  किराया चुकाने के लिए प्रति माह पांच हजार रुपये देने की बात कही थी ,लेकिन 6 महीनो से अब तक मात्र  49 परिवारों को ही किराया मिला है। जिसके कारण  कुछ प्रभावित परिवार फिर असुरक्षित घरों में लौट आने को मजबूर हो गए हैं आपदा प्रभावितों के पुनर्वास को प्रशासन ने जोशीमठ से 14 किमी दूर उद्यान विभाग की भूमि पर 15 प्री-फेब्रिकेटेड हट बनाए थे जो तीन महीने से  खाली पड़े हैं। प्रभावितों का कहना है कि नगर से इतनी दूर जाकर खेती-बाड़ी और मवेशियों का ध्यान कैसे रख पाएंगे। बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा। कुल मिलाकर सरकार जोशीमठ बचाने में फिलहाल विफल साबित हुई है… 

अब सवाल ये उठता है कि आखिर इतना पुराना ऐतिहासिक नगर  जोशीमठ में ये नौबत आयी क्यों,क्या समय रहते जोशीमठ को बचाया जा सकता था ? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें कुछ पुरानी बातों पर ध्यान देना होगा।।।

 

आपको बता दें कि सबसे पहले साल 1939 में आरनोल्ड हेम और ऑगस्ट गैनसर ने अपनी किताब Central Himalaya में बताया था कि जोशीमठ इतिहास में आए एक बड़े लैंड स्लाइड पर बसा है. इतिहासकार Shiv Prasad Dabral भी अपनी किताब में लिख चुके हैं कि जोशीमठ में लगभग 1000 साल पहले एक लैंडस्लाइड आया था जिसके चलते कत्यूर राजाओं को अपनी राजधानी जोशीमठ से शिफ्ट करनी पड़ी थी. लेकिन पिछले 50 साल की ओर देखें तो 1976 के आसा पास जोशीमठ में लैंडस्लाइड के काफी घटनाए हुई, जिसकी जांच के लिए तात्कालीन गढ़वाल कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में उत्तराखंड सरकार ने एक कमेटी बनाई थी. मिश्रा ने जियोलॉजिस्ट्स की मदद से गहन जांच की और एक टू द प्लाइंट रिपो्र्ट तैयार की थी .

 

इस रिपोर्ट में भी साफ कहा गया था कि जोशीमठ किसी ठोस चट्टान पर नहीं बल्की पहाड़ों के मलबे पर बना है जो अस्थिर है. और अगर जोशीमठ को बचाना है तो यहां पर कंस्ट्रक्शन को कम करने की ज़रूरत है और अगर कोई खास कंस्ट्रक्शन करनी भी है तो उसे गहन जांच के बाद ही शुरू किया जाए. जोशीमठ में बड़े कंस्ट्रक्शन पूरी तरह बंद किए जाएं. जोशीमठ के आस पास Erratic boulders यानी की बड़े बड़े चट्टानी पत्थरों को बिल्कुल न छेड़ा जाए और ब्लास्टिंग पर पूरी तरह से रोक लगा दी जाए. जोशीमठ के आस पास के एरियाज़ में पेड़ लगाने की बात भी कही गई थी ताकि ज़मीन की पकड़ बनी रहे और पनी की निकासी के लिए Pucca Drain बनाने की सलाह भी दी गई थी. लेकिन ये एक सरकारी रिपोर्ट थी और सरकारों ने इस रिपोर्ट को डस्टबिन में डाल दिया.उलटा यहां पर बांध निर्माण की स्वीकृति दे दी गयी,जिसके बाद  यहां लगातार ब्लास्टिंग भी की गयी,स्थानीय आज भी इसी परियोजना को तबाही का कारण मानते है, 

 

पिछले कुछ दशकों में जोशीमठ में वो सब हुआ जिसके लिए मिश्रा रिपोर्ट में मना किया गया था. आर्मी के लिए इस्टेब्लिशमेंट्स बनाई गईं, ITBP का कैंप बना, औली में कंस्ट्रक्शन हुआ , Tapovan-Vishnugad Hydropower Project के इर्द गिर्द खूब कंस्ट्रक्शन की गई. बद्रीनथ जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए बड़े बड़े होटलों का निर्माण हुआ. जिससे जोशीमठ की स्लोप पर काफी छेड़छाड़ हुई और ड्रेनेज की कोई व्यवस्था न होने की वजह से होटलों और घरों से निकलने वाले पानी ने स्लोप को खोखला कर दिया. जिसके चलते जोशीमठ एक टिकिंग टाइम बॉम्ब में तबदील हो गया.

 

जिओलॉजिस्ट्सी के मुताबिक जोशीमठ की इस हालत के पीछे  Tapovan-Vishnugad Hydropower Project और चार धाम परियोजना के तहत बन रहे Helang Bypass की सबसे अहम भूमिका है. Hydropower Project के लिए जो टनल खोदी जा रही है उसकी खुदाई के लिए पहले जहां ब्लास्टिंग का इस्तेमाल किया गया वहीं टनल बोरिंग मशीन ने साल 2009 में जोशीमठ के पास एक पुराने वॉटर सोर्स को पंक्चर कर दिया था जिससे जोशीमठ में पानी की समस्या तक पैदा हो गई थी. उस वक्त इसे लेकर काफी प्रदर्शन भी हुए थे लेकिन तब भी सरकार के कानों में आवाज नहीं पहुंची  .  फिर 7 फरवरी 2021 को रिशीगंगा में आई भीषण बाड़ ने भी जोशीमठ को काफी नुकसान पहुंचाया. इसके अलावा Helang Bypass के निर्माण के दौरान भी अहतियात नहीं बरती गई जिसका परिणाम आज जोशीमठ भुगत रहा है. सबसे हैरान करने वाली बात है कि इतने फ्रैजाइल एरियाज़ में इतने बड़े बड़े निर्माण करने के दौरान किसी तरह की hydrogeological study तक नहीं की गई कि धरती के अंदर पानी की क्या स्थिती है.

 

इसकी ओर आम लोगों को भी ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि जियोलॉजिस्ट्स की मानें तो जोशीमठ की भौगोलिक स्थिती के मुताबिक इसे एक गांव ही रहने देना चाहिए था लेकिन अर्बनाइज़ेंशन और व्यापार के चलते इस इलाके पर इमारतों का बोझ बढ़ता गया जिसका परिणाम आज हम भुगत रहे हैं. यही नहीं जियोलोजिस्ट्स की मानें तो जो जोशीमठ के नीचे अलकनंदा नदी बह रही है वो भी लगातार पहाड़ की स्लोप की जड़ को काट रही है. चार धाम परियोजना के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी ताकि पहाड़ी इलाकों को बचाया जा सके लेकिन ये फैसला भी सरकार के हक में ही रहा था और अब जोशीमठ में इस परियोजना के परिणाम भी दिखने लगे हैं. यानी व्यापारियों से लेकर सरकारी बाबूओं और ईंजीनियर्स द्वारा जियोलॉजिस्ट्स की अनदेखी के चलते पहाड़ों का ये हाल हो रहा है. खैर ये तो इतिहास की बात हुई लेकिन क्या जोशीमठ को बचाया जा सकता है?

 

पहाड़ों पर हो रहे बेहिसाब निर्माण से हो रहे नुकसान पर कभी किसी सरकार ने ठोस निति नहीं बनाई,, पूर्व की त्रिवेंद्र रावत सरकार जरूर इस पर काम करना शुरू किया था पर उनके पद से हटते ही इसको ठंडे बस्ते में दाल दिया गया,,दरअसल पूर्व की त्रिवेंद्र सरकार ने  13 नवंबर 2017 को सभी जिलों के स्थानीय प्राधिकरणों और नगर निकायों की विकास प्राधिकरण से संबंधित शक्तियां लेते हुए 11 जिलों में जिला स्तरीय विकास प्राधिकरण गठित किए थे। हरिद्वार-रुड़की विकास प्राधिकरण (एचआरडीए) में हरिद्वार के क्षेत्रों को शामिल कर लिया गया था, जबकि मसूरी-देहरादून विकास प्राधिकरण (एमडीडीए) में दून घाटी विकास प्राधिकरण को निहित कर दिया गया था। इसमें स्पष्ट किया गया था कि सभी जिला विकास प्राधिकरणों में नेशनल हाईवे और स्टेट हाईवे के 200 मीटर दायरे में आने वाले सभी गांव, शहर शामिल होंगे। इनमें नक्शा पास करना अनिवार्य कर दिया गया था। बाद में तीरथ सरकार और फिर धामी सरकार ने सभी जिला विकास प्राधिकरणों को स्थगित कर दिया था।लेकिन जिस तरह जोशीमठ बेहिसाब निर्माण कार्यों की सजा भुगत रहा है उस तरह की घटना कहीं और दोबारा न हो उसके लिए निर्माण कार्यों की स्वीकृति देने के लिए विकास प्राधिकरण जैसे कदम बेहद जरूरी थे,त्रिवेंद्र सरकार में लिया गया ये फैसला निश्चित रूप से प्रदेश के लिए एक अहम कदम था,हलाकि जोशीमठ त्रासदी के बाद इसको निस्प्रभावी करने वाली धामी सरकार को फिर से इनको सक्रिय करने जा रही है,, अगर ये प्राधिकरण पहले से प्रदेश में लागू होता तो शायद जोशीमठ की तबाही को काफी हद तक रोका जा सकता था,,लेकिन जब पूरा शहर तबाह हो गया अब सरकार को फिर से इस प्राधिकरण की जरूरत मससूस होने लगी है…  

2024 का रण, भाजपा का डर!उत्तराखंड भाजपा के तीन सांसद अपनी स्तिथि को लेकर आश्वस्त नहीं !

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तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्माई चेहरे का असर फीका पड़ना शुरू हो गया है,? क्या अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा मुश्किल में पड़ गयी  है ? उत्तराखंड में भाजपा के तीन सांसद क्यों डेंजर जोन में खुद को पा रहे हैं? 

 

2014और 2019  में भाजपा ने मोदी के करिश्में से देश में प्रचंड बहुमत की सरकार केंद्र में बनाई,खुद भाजपा अपने दम पर बहुमत को पार कर अपने इतिहास की सबसे बड़ी जीत दर्ज करने में कामयाब हुई,मोदी के चेहरे पर ही भरोसा करते हुए उत्तराखंड की जनता ने लगातार दो बार विधानसभा और लोकसभा में भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया था, लेकिन 2024 आते आते अब भाजपा के लिए पहले जैसी स्तिथि नहीं रही हैं,,,
कई सर्वे और राजनैतिक विश्लेषक  ये बताते हैं कि आगामी चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं होने वाला है,और सिर्फ मोदी के नाम पर भाजपा हर चुनाव नहीं जीत सकती,अभी हाल ही में  वायरल हुए RSS का मध्य्प्रदेश को लेकर किये सर्वे में ये बात सामने आयी है,,,कांग्रेस ने इसका  जिक्र कर  मध्य्प्रदेश में वापसी की बात कह रही है, सर्वे में ये भी आरएसएस ने जिक्र किया है कि हर चुनाव मोदी के चहरे पर नहीं जीता जा सकता है,,  विपक्ष का लगातार एकजुट होना भी भाजपा के लिए खतरा बन रहा है,उसके ऊपर हिमांचल और कर्नाटक में बीजेपी की हार से ये साबित हो गया है कि मोदी का चेहरा भी भाजपा को हर राज्य में जीत नहीं दिला सकता।।।
उत्तराखंड में प्रचंड बहुमत की सरकार और पांचो लोकसभा सीट पर भाजपा  का कब्जा होने के बावजूद भी भाजपा के तीन सांसद अपनी स्तिथि को लेकर आश्वस्त नहीं है,और खुद को डेंजर जोन में पा रहे हैं, हाल ही में छपी एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है… रिपोर्ट के अनुसार  उत्तराखंड में भाजपा के तीन लोकसभा सांसद डेंजर जोन में बताए जा रहे हैं।   सासंदों को अपनी स्थिति पार्टी की अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। पार्टी के आंतरिक सर्वे में यह फीडबैक सामने आया है। जिसके  बाद पार्टी शीर्ष नेतृत्व की ओर से सांसदों को आगाह किया गया है।आंतरिक सर्वे में पार्टी के कुछ सांसदों की स्थिति ठीक नहीं पाई गई है। ऐसे में 2024 के चुनाव के लिए राज्य में कुछ चेहरे बदले जाने की चर्चा शुरू हो गई है। इस रिपोर्ट से साफ़ है कि उत्तराखंड में भी भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में खतरे में है,जिससे बचने के लिए इस बार प्रत्याशियों को बदला जा सकता है,,,
उत्तराखंड में भाजपा के लिए सबसे मुफीद सीट मानी जाती है पौड़ी लोकसभा सीट,जहां से इस समय पूर्व मुख़्यमंत्री तीरथ सिंह रावत सांसद हैं,पौड़ी सीट भाजपा की सबसे मजबूत सीट मानी जाती है,सैनिक बाहुल सीट होने के साथ यहां से कई मुख़्यमंत्री भी यहां से रहे हैं लेकिन इस बार इस सीट पर भी भाजपा को कड़ी चुनौती कांग्रेस से मिल सकती है,अंकिता हत्याकांड के बाद यहां  के लोगों में सरकार के प्रति काफी गुस्सा दिखाई दिया,जिसका असर भी आने वाले चुनाव में देखने को मिल सकता है,ख़ासतौर पर महिला वोटर इस घटना से बेहद आक्रोशित है,,, 
हरिद्वार सीट में जिस तरह से विधान सभा में भाजपा को अपेक्षा के अनुरूप जीत नहीं मिली उससे हरिद्वार लोकसभा सीट भी भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है, यहां भी भाजपा के पूर्व मुख़्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक वर्तमान में सांसद है,लेकिन जिस तरह से हरिद्वार सीट पर धड़ेबाजी भाजपा में दिखाई देती है वो भी पार्टी  के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है,,,  कुल मिलाकर आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तराखंड में काफी संघर्ष करना पड़ सकता है, ये भी हो सकता है भाजपा कई नए प्रत्याशियों को मौका दे दे,लेकिन इस सब से भी क्या भाजपा की राह आसान हो पाएगी ये तो आने वाला वक्त बतायेगा ?

उत्तराखंड के पलायन और बेरोजगारी को लेकर मील का पत्थर साबित हो रही ये योजना 

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उत्तराखंड में होता पलायन जिसकी सबसे बड़ी वजह है बेरोजगारी, उत्तराखंड में कई योजनाओं को लागू कर पहाड़ों में रोजगार पैदा करने की कोशिश की जा रही है, जिससे पलायन को रोका जा सके, आज के वीडियो में बात एक ऐसी ही योजना की करेंगे जो उत्तराखंड के कई बेरोजगार युवाओं के लिए वरदान साबित हुई, इस योजना के कारण कई युवाओं ने न केवल रिवर्स पलायन किया बल्कि आज खुद के साथ कई अन्य के रोजगार का माध्यम बने हैं,,,, उत्तराखंड के खाली होते गावों और छोटे शहरों में रहने वाली युवा पीढ़ी रोजगार की चाह में लगातार महानगरों की तरफ रुख करने को मजबूर हैं, जिस कारण पहाड़ और छोटे शहरों में लगातार पलायन होता जा रहा है,खासतौर पर युवाओं का प्रदेश छोड़कर जाना एक अच्छा संकेत नहीं है,,,

 

उत्तराखंड की सरकारों ने समय-समय पर कई योजनाओ को लागू किया है जिससे युवाओं को प्रदेश में ही रोजगार मिल पाए और पलायन थम सके, इन योजनाओ में सबसे कामयाब योजना रही होम स्टे योजना, जिसका असर आज धरातल पर दिख रहा है, इस योजना से जुड़े कई युवा न केवल वापस अपने गांव या शहर लौटे बल्कि आज खुद के रोजगार के साथ अन्य को भी रोजगार दे रहे हैं साथ ही उत्तराखंड पर्यटन उद्योग को भी खूब पंख लगा रहे हैं, उत्तराखंड में होमस्टे योजना का श्रेय पूर्व की त्रिवेंद्र रावत सरकार को जाता है,

उत्तराखंड में होमस्टे योजना की शुरुआत 20 अप्रैल 2018 को सीमावर्ती जनपद पिथौरागढ़ से पूर्व मुख़्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने की थी, इस योजना का मुख्य मकसद युवाओं को रोजगार देना और पलायन को रोकना था लेकिन देश में कोरोना काल के बाद अपने घर वापस लौटे बेरोजगार युवाओं के लिए ये रोजगार का एक अहम कदम साबित हुआ,कई युवाओं ने इस योजना के जरिये रोजगार शुरू किया,और अब तो ये योजना प्रदेश के युवाओं के लिए एक वरदान साबित हो रही है,इस योजना के लिए हर साल बड़ी संख्या में आवेदन हो रहे हैं,जबकि अब तक प्रदेश में हजारों होमस्टे संचालित हो रहे हैं,,,

पर्वतीय जिलों में होम स्टे से जुड़कर यहां के स्थानीय युवा स्वरोजगार को अपनाने के साथ ही पर्यटकों को उचित सेवा भी दे रहे हैं, जिससे उत्तराखंड के दुर्गम इलाकों के लोगों की आजीविका पर सुधार आया है और सीजन में स्थानीय लोग अच्छा रोजगार कमा रहे हैं. युवाओं को स्वरोजगार से जोड़ने और पहाड़ के गांवों से हो रहे पलायन को थामने के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा होम स्टे योजना की शुरुआत की गयी थी, जिसमें पर्यटक स्थलों में स्थानीय लोग अपने ही घरों में देश-विदेश के पर्यटकों के लिए ग्रामीण परिवेश में साफ व किफायती आवास की सुविधा उपलब्ध करा सकते हैं. यहां पर पर्यटकों को स्थानीय व्यंजन परोसने के साथ ही उन्हें यहां की सभ्यता व संस्कृति से भी परिचित कराया जा रहा है, जो पर्यटक खूब पसंद कर रहे हैं.

 

होम स्टे योजना की अब तक की तस्वीर देखें, तो वित्तीय वर्ष 2018-19 में प्रदेश के सभी जिलों में 965 होम स्टे पंजीकृत हुए. आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2021-22 में यह आंकड़ा बढ़कर 3 हजार 964 पहुंच गया. पर्वतीय जिलों में भी ये आंकड़ा बढ़ा है, बात अगर पिथौरागढ़ जिले की करें जहां इस योजना की शुरुआत हुई थी , तो 2021-22 में 608 लोगों ने और 2022-23 में 103 लोगों ने अपने घरों को होम स्टे में बदलने के लिए पर्यटन विभाग में पंजीकृत किया, जिसमें सबसे ज्यादा धारचूला में 423 लोग अपना पंजीकरण करा चुके हैं. धारचूला सीमांत जिले का उच्च हिमालयी क्षेत्र भी है, जहां की खूबसूरती का दीदार करने पर्यटक पहुंच रहे हैं. उनके रुकने की सुविधा यहां के गांवों में होम स्टे के रूप में विकसित हो रही है. इस योजना के माध्यम से सिर्फ साल 2020 में ही 5 हजार होमस्टे विकसित किए गए थे। इससे प्रदेश में रोजगार के अवसर को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है और लोगों को कामकाज या कारोबार के लिए दूसरे राज्य में पलायन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

 

टूट जाएगा गरीब बच्चों की पढ़ाई का सपना ? “शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के आगे घुटने टेकती सरकार”

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कुछ समय पहले  धामी कैबिनेट ने शिक्षा को लेकर एक फैसला किया इस फैसले से जहां छात्र फेल होने से बच पाएंगे,साथ ही मेधावी छात्रों के लिए छात्रवृति देने का प्रस्ताव भी पास किया है,लेकिन इससे बड़ी एक और चीज शिक्षा के लिए जरूरी है जहां ध्यान देना सबसे अधिक जरूरी है और वो है प्रदेश की शिक्षा के बुनियादी ढांचे को सुधारना जिसको शायद प्रदेश के मुख़्यमंत्री और शिक्षा मंत्री भूल चुकें हैं। ..आज हम आपको इस से जुड़ी पूरी रिपोर्ट बताते है।इस प्रदेश के शिक्षा से जुड़ें कुछ ऐसे तथ्यों को आपके सामने रखेंगे जो आपके पैरों से जमीन खिसखा देंगे, खासतौर पर मध्यमवर्गीय उन अभिवाहकों जो अपना पेट काटकर अपने बच्चों के भविष्य सवारने में जुटे है,आज की रिपोर्ट में आपको बताएंगे कि किस तरह शिक्षा जिसको सबका अधिकार माना जाता है उसको हासिल करना धीरे-धीरे गरीब और मध्यम वर्ग के लिए मुश्किल हो रहा है, आज बात उत्तराखंड की शिक्षा से जुड़ें उन  अहम बिंदुओं पर जिनका अभी असर ही सही लेकिन आने वाले समय में अगर ऐसा ही चलता रहा तो लगभग प्रदेश के अधिकतर लोगों पर पड़ने वाला है.

 

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उत्तराखंड में स्कूलों की छात्रसंख्या बढ़ाना हमेशा शिक्षा विभाग के लिए एक बड़ी चुनौती रहा है. अब महकमे ने शायद इस मामले पर हाथ खड़े कर लिये हैं. शायद इसीलिए राज्य के 3000 स्कूलों को जल्द ही बंद करने की तैयारी की जा रही है. यह वह स्कूल है जहां पर लगातार छात्र संख्या कम हुई है. बेहद कम छात्र संख्या के चलते यह स्कूल अब शिक्षा विभाग को बोझ लगने लगे हैं. उत्तराखंड शिक्षा विभाग में करोड़ों का बजट और लोक लुभावनी स्कीम भी सरकारी स्कूलों में बच्चों को लाने के लिए नहीं लुभा पा रही है.पर्वतीय क्षेत्रों में 5 और मैदानी क्षेत्रों में 10 या इससे कम छात्र संख्या वाले स्कूलों को बंद कर इन स्कूलों के बच्चों को नजदीक के उत्कृष्ट स्कूलों में भेजा जाएगा. राज्य में 10 या इससे कम छात्र संख्या वाले करीब तीन हजार स्कूल हैं.

सवाल ये उठता है कि आखिर ये नौबत आ क्यो गयी,आखिर क्यों सरकारी स्कूलों से लोगों का मोह भंग हो रहा है ? उत्तराखंड में हर साल औसतन 41 नए स्कूल खुल रहे हैं ये आंकड़ा देख लगता है कि प्रदेश की शिक्षा अच्छे ढर्रे की ओर जा रही है लेकिन अगले ही आंकड़े पर नजर पड़ते ही कई सवाल पैदा हो जाते हैं,41 नए स्कूल खुलने के साथ ही उसके दोगुने से ज्यादा बंद भी हो रहे हैं ये भी सालाना औसत लगाएं तो 112  विद्यालय बंद भी हो रहे हैं

 

इनफार्मेशन सिस्टम  एजुकेशन प्लस (UDISE+) 2019-20 में उपलब्ध जानकारी के अनुसार उत्तराखंड राज्य मेंकक्षा 1 से 12 तक के कुल 16,741 सरकारी स्कूल हैं। यदि इन स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की बात करें तो उत्तराखंड राज्य में मात्र 6.4% स्कूलों में सुचारू रूप से इंटरनेट कनेक्शन है, मात्र 22.26%स्कूलों में सुचारु रूप से कंप्यूटर की सुविधा है,और 20% से भी ज्यादा ऐसे स्कूल हैं जहां सुचारु रूप से बिजली कनेक्शन नहीं है।

इन सभी सुविधाओं के अतिरिक्त राज्य में अभी भी 10% से ज़्यादा स्कूल ऐसे हैं जहां पीने के पानी की सुविधा नहीं है, 13% स्कूलों में लड़कों के लिये और 12% स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं है, इन सभी आंकड़ों के अतरिक्त वर्ष 2018 में आयी एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) बताती है कि राज्य में 19.7% ऐसे प्राथमिक विद्यालय हैं जहां पर खेल का मैदान नहीं है।

शिक्षा क्षेत्र के लिए प्रकाशित होने वाली अधिकांश रिपोर्ट उत्तराखंडके स्कूलों की बदहाल स्थिति की ओर इशारा करती हैं। दिसम्बर 2021 में प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद की ओर से जारी की गयी फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमरेसी इंडेक्स की रिपोर्ट उत्तराखंड राज्य में स्कूली शिक्षा की बदहाली को उजागर करती है,यह रिपोर्ट बताती है कि राज्य में मात्र 8% प्राथमिक स्कूल ही हैं जहां कंप्यूटर की सुविधा उपलब्ध हैं।दस साल से कम उम्र के बच्चों में साक्षरता दर को बताने वाली इस रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड राज्य ने शिक्षा के आधारभूत ढांचे में 64.89%, शैक्षणिक सुविधा की पहुंच में 39.94%, बेसिक हेल्थ में 64.44%, लर्निंग,आउटकम में 82.12% और गवर्नेंस में 44.6% अंक प्राप्त किये।

देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस राज्य बनने से अब तक बारी-बारी से सरकारें चला  चुकी हैं, लेकिन राज्य के सरकारी स्कूल आज भी बुनियादी सुविधाओं से कोसो दूर हैं।आज भी चुनाव के समय अच्छीशिक्षा के लिए जनता से वादे तो किये जाते हैं लेकिन राज्य के विद्यालयों की स्थिति के आंकड़े बताते हैं कि सरकारी स्कूलों पर कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया जा रहा है जिसके चलते विद्यार्थिओं का नामांकन कम हो रहा है, और अंत में कम नामांकन के चलते स्कूल बंद कर दिया जाता है।

2012-13 में उत्तराखंड में कुल 12,499 राजकीय प्राथमिक विद्यालय और 2,805 राजकीय माध्यमिक विद्यालय थे जिनकी संख्या वर्ष 2019-20 तक घटकर क्रमशः 11,653 और 2,608 हो गयी। यदि जिलेवार इनकी संख्या देखें तो अल्मोड़ा में 130, बागेश्वर में 39, चमोली में 49, चम्पावत में 28, देहरादून में 57, हरिद्वार में 10, नैनीताल में 17, पिथौरागगढ़ में 130, रूद्रप्रयाग में 41 और टिहरी गढ़वाल में 180 सरकारी प्राथमिक विद्यालय पिछले 10 वर्षों में बंद हो चुके हैं।इस ही के विपरीत, मैदानी और पर्वतीय सभी जिलों में पिछले 10 सालों में निजी स्कूलों में बढ़ोतरी हुई है|

अभिभावकों का मानना है कि शिक्षा के लिए ज़रूरी सुविधाएँ जैसे कंप्यूटर, शिक्षकों की उचित संख्या, पीने के पानी की उपलब्धता, आदि सरकारी स्कूल की तुलना में निजी स्कूलों ज़्यादा अच्छी होती हैं।अगर सरकारी स्कूलों में भी अच्छी सुविधाएं सरकार उपलब्ध कराये तो हम या कोई भी व्यक्ति प्राइवेट स्कूलों में इतनी ज़्यादा फीस क्यों देना चाहेगा ?

निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार प्रत्येक विद्यालय के लिए कुछ मानक निश्चित किये गये हैं। इन मानकों के अनुसार प्रत्येक विद्यालय के भवन में शिक्षकों के लिए एक कक्ष, बाधा मुक्त पहुंच, लड़के और लड़कियों के लिए अलग शौचालय, विद्यार्थिओं के लिए पर्याप्त और स्वच्छ पेयजल व्यवस्था, जिन विद्यालयों में मध्याह्न भोजन पकाया जाता है वहां रसोई; और एक खेल का मैदान का होना अनिवार्य है।

आज सरकार का रुझान निजीकरण की ओर बढ़ता जा रहा है,सरकारी तंत्र के पास साधन तो है लेकिन जनता के लिए काम करने की मंशा नहीं है इसी कारण आज सरकारी स्कूलों में अच्छे भवन तो हैं लेकिन जरुरी सुविधाएं नहीं हैं, उत्तराखंड राज्य में विद्यालयों की स्थिति के आंकड़े दिखाते हैं कि सरकारी स्कूलों पर कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया जा रहा है जिसके चलते विद्यार्थियों का नामांकन कम हो रहा है, और अंत में कम नामांकन के चलते स्कूल बंद कर दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर राज्य में प्राइवेट स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (UDISE+) पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार साल 2012-13 से लेकर साल 2019-20 तक प्रदेश में 846 राजकीय प्राथमिक विद्यालय और 197 राजकीय माध्यमिक विद्यालय बंद हो चुके हैं।लेकिन, इस दौरान निजी प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों में काफी वृद्धि हुई है।साल 2012-13 में इन स्कूलों की संख्या 776 थी लेकिन साल 2019-20 में यह लगभग 280% बढ़कर 2197 हो गयी।

 

वहीं दूसरी ओर सरकार के द्वारा आरटीई के तहत निजी स्कूलों में एडमिशन को प्राथमिकता दी जा रही है,उत्तराखंड जैसे राज्य के लिए निजी स्कूलों में सीट आरक्षित करने से ज़्यादा बेहतर है कि सरकार अपने सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाये। इस समय राज्य के निजी स्कूलों में करीब 90 हजार बच्चे आरटीई के तहत शिक्षा ले रहे हैंजिसका पिछले कुछ सालो में कुल खर्च 126 करोड़ रुपये तक आ चुका है। जो रुपये सरकार के द्वारा आरटीई के तहत निजी स्कूलों को दिये जा रहे हैं उनको सरकारी स्कूलों में जरुरी सुविधाओ को बेहतर बनाने के लिए खर्च किया जा सकता है। आज अधिकांश अभिभावक ना चाहते हुए भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने को मजबूर हैं। इन अभिभावकों से बात करने परमालूम होता है कि यदि सरकारी स्कूलों में अच्छी सुविधाएँ मिलें तो ये लोग भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ना चाहेंगे। क्योंकि आज मंहगाई के इस दौर में निजी स्कूलों में भारी भरकम फ़ीस देना बहुत मुश्किल होता है।

इतना ही नहीं अब सरकार की नाकामी का इससे बड़ा क्या सबूत हो सकता है  कि उत्तराखंड में सरकारी स्कूलों पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद हालत में सुधार नहीं हुआ तो इन्हे गोद देने की तैयारी की जा रही है। सामर्थ्यवान सरकारी स्कूलों को गोद लेकर इनमें उचित संसाधन मुहैया कराएंगे। यही नहीं वह अपने माता-पिता या किसी अन्य स्वजन के नाम पर इन स्कूलों का नामकरण भी कर सकेंगे।शिक्षा विभाग की ओर से इसके लिए नीति बनाई जा रही है।गोद लेने वाले व्यक्ति के माता-पिता या किसी अन्य के नाम पर स्कूल का नामकरण किया जाएगा। इसके बदले संबंधित को स्कूल पर आने वाले कुछ खर्च वहन करने होंगे। विभाग की ओर से इसके लिए प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है,जिसे कैबिनेट में लाया जाएगा।ये हालात तब हैं जब 1100 करोड़ रुपये हर साल केंद्र सरकार की ओर से समग्र शिक्षा अभियान के तहत दिए जा रहे हैं।

शिक्षा का अधिकार कानून प्रत्येक बच्चे तक शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए लाया गया था, अब अगर इस तरह सरकारी स्कूल बंद किए जाएंगे तो एक बड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित रह जाएगा, जिसकी जिम्मेदारी आखिर  लेगा कौन? क्योकि कोई भी सरकार इस मुद्दे पर गंभीर नजर नहीं आती,  शिक्षा का होता निजीकरण एक दिन प्रदेश के अभिवाहकों को बड़ी मुश्किल में डालने वाला है, बंद होते सरकारी स्कुल और बढ़ते प्राइवेट विद्यालय के दौर में वो समय ज्यादा दूर नहीं जब जनता के पास कोई विकल्प नहीं बचेगा और फिर वो  समय भी जल्द आ सकता है जब निजी स्कूलों के आगे सरकारों  को भी घुटने टेकने पड़ेंगे,तो फिर आम आदमी की क्या बिसात जो  टिक पाये ।

कश्मीर में फिर लागू होगा ‘अनुच्छेद 370’ !

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क्या जम्मू कश्मीर में फिर से लागू होगा अनुच्छेद-370, तीन साल बाद आखिर ऐसा क्या हुआ जो फिर से इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो गयी है ? आपको इसकी पूरी कहानी बताएंगे और इस पर कानून के जानकारों की क्या राय है वो भी आपके सामने रखेंगे,,,नमस्कार आपके साथ  मै हूँ मनीषा …  2019 में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया गया था। तीन साल बाद इस अनुच्छेद की चर्चा फिर से शुरू हो गई है। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। कोर्ट में अनुच्छेद-370 हटाने को चुनौती दी गई है। इससे जुड़ी 20 से ज्यादा याचिकाएं कोर्ट में हैं और सभी पर 11 जुलाई को सुनवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रेस रिलीज जारी करके बताया कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई में पांच जजों की बेंच इस मामले को सुनेगी। इस बेंच में जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत होंगे।
 
 

 

कोर्ट में मामला पहुंचते ही  अनुच्छेद-370 को लेकर बयानबाजी तेज हो गई है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या फिर से जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 लागू हो सकता है? आपको बता दें कि पांच अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया था। यह कानून जम्मू-कश्मीर में बीते करीब सात दशक से चला आ रहा था।  दरअसल, अक्तूबर 1947 में, कश्मीर के तत्कालीन महाराजा, हरि सिंह ने भारत के साथ एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसमें कहा गया कि तीन विषयों के आधार पर यानी विदेश मामले, रक्षा और संचार पर जम्मू और कश्मीर भारत सरकार को अपनी शक्ति हस्तांतरित करेगा।

 
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इतिहासकार के मुताबिक , ‘मार्च 1948 में, महाराजा ने शेख अब्दुल्ला के साथ प्रधानमंत्री के रूप में राज्य में एक अंतरिम सरकार नियुक्त की। जुलाई 1949 में, शेख अब्दुल्ला और तीन अन्य सहयोगी भारतीय संविधान सभा में शामिल हुए और जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति पर बातचीत की गई , जिसके बाद अनुच्छेद-370 को अपनाया गया।’इस अनुच्छेद में प्रावधान किया गया कि रक्षा, विदेश, वित्त और संचार मामलों को छोड़कर भारतीय संसद को राज्य में किसी भी कानून को  लागू करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होगी।  इसके चलते जम्मू और कश्मीर के निवासियों की नागरिकता, संपत्ति के स्वामित्व और मौलिक अधिकारों का कानून शेष भारत में रहने वाले निवासियों से अलग था। अनुच्छेद-370 के तहत, अन्य राज्यों के नागरिक जम्मू-कश्मीर में संपत्ति नहीं खरीद सकते थे। अनुच्छेद-370 के तहत, केंद्र को राज्य में वित्तीय आपातकाल घोषित करने की शक्ति नहीं थी।  अनुच्छेद-370 (1) (सी) में उल्लेख किया गया था कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1   अनुच्छेद-370 के माध्यम से कश्मीर पर लागू होता है। अनुच्छेद 1 संघ के राज्यों को सूचीबद्ध करता है। इसका मतलब है कि यह अनुच्छेद-370 है जो जम्मू-कश्मीर राज्य को भारतीय संघ से जोड़ता है।  
 

जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 3 में कहा गया था कि जम्मू और कश्मीर राज्य भारत संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा। अनुच्छेद 5 में कहा गया कि राज्य की कार्यपालिका और विधायी शक्ति उन सभी मामलों तक फैली हुई है, जिनके संबंध में संसद को भारत के संविधान के प्रावधानों के तहत राज्य के लिए कानून बनाने की शक्ति है।
जम्मू-कश्मीर का संविधान 17 नवंबर 1956 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1957 को लागू हुआ था। पांच अगस्त 2019 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी जम्मू और कश्मीर के लिए आवेदन आदेश, 2019 (सीओ 272) द्वारा जम्मू और कश्मीर के संविधान को निष्प्रभावी बना दिया गया था।
 
 
 
2019 में जब अनुच्छेद-370 खत्म किया गया था, तब पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने कुछ हद तक स्थिति बिगाड़ने की कोशिश की थी। घुसपैठ के जरिए हिंसा कराने की खूब कोशिश हुई, लेकिन सुरक्षाबलों ने सभी को नाकाम कर दिया गया। केंद्र सरकार ने विशेष तौर पर जम्मू कश्मीर के विकास पर फोकस करना शुरू कर दिया। अब हर बजट में जम्मू कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान किए जाते हैं, ताकि यहां के लोगों को मुख्य धारा से जोड़ा जा सके। अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब जम्मू-कश्मीर संयुक्त राष्ट्र के दागी लिस्ट से बाहर हुआ। 
 
 

अब सवाल ये उठता है कि क्या कोर्ट इस फैसले को पलट सकता है, और अनुच्छेद-370 दोबारा वापस लागू हो सकता है ? 
इसे समझने के लिए हम आपको कानून के जानकारों का मत बताते हैं,,,  कानून के जानकार कहते हैं  कि  ‘अनुच्छेद-370 पूरी तरह से कानूनी तौर पर हटाया गया है। संसद की दोनों सदनों से इस प्रस्ताव को पास किया जा चुका है। राष्ट्रपति भी इसे मंजूरी दे चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट कानूनी पहलुओं पर जरूर चर्चा कर सकती है, लेकिन इसे फिर से लागू करना मुश्किल है। संसद का काम कानून बनाना होता है और न्यापालिका का काम उस कानून का पालन करते हुए न्याय दिलाना है।

15 रुपये लीटर मिलेगा ! पेट्रोल के पीछे का पूरा सच…

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आज की तारीख में एक से बढ़कर एक बढ़िया माइलेज वाले वाहन आने के बावजूद जेब पर सबसे ज्यादा बोझ पेट्रोल-डीजल के रेट का ही पड़ता है. पेट्रोल-डीजल के रेट में कुछ पैसे की बढ़ोतरी भी सोशल मीडिया पर बड़ी चर्चा का सबब बन जाती है. पेट्रोल के रेट 100 रुपये प्रति लीटर के भी पार हैं, लेकिन यदि आपसे कहा जाए कि जल्द ही यह कीमत 15 रुपये प्रति लीटर हो जाएगी तो शायद आप यकीन भी नहीं करेंगे. कम से कम केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का तो यही दावा है कि जल्द ही पेट्रोल की लागत 15 रुपये प्रति लीटर के बराबर की होगी. हालांकि गडकरी का इस बात से मतलब असली पेट्रोल के दाम से नहीं था बल्कि वह कार या किसी अन्य वाहन को चलाने वाले ईंधन की लागत की बात कर रहे थे. गडकरी ने यह दावा राजस्थान के प्रतापगढ़ में एक कार्यक्रम के दौरान किया है.

 

 

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गडकरी ने कार्यक्रम में कहा, हमारी सरकार चाहती है कि किसान को अन्नदाता ही नहीं बल्कि ऊर्जादाता भी बनाया जाए. किसानों के तैयार एथेनॉल से गाड़ियां चलाने की तैयारी की जा रही है. हम चाहते हैं कि 60 फीसदी गाड़ियां एथेनॉल से चलें और 40 फीसदी बिजली से. इसकी लागत का औसत यदि देखेंगे तो यह पेट्रोल के 15 रुपये प्रति लीटर के भाव के बराबर बैठेगा.
 
 
 
गडकरी ने यह भी कहा कि किसान के ऊर्जादाता बनकर एथेनॉल उत्पादन करने से देश की जनता का भी भला होगा. पेट्रोल की कम कीमत से जनता का भला होगा. साथ ही इस ईंधन से गाड़ियों से निकलने वाला प्रदूषण भी कम होगा. देश में प्रदूषण घटेगा तो भी जनता का भला होगा. पेट्रोल का आयात कम होगा. अभी 16 लाख करोड़ रुपये का आयात हो रहा है. यह पैसा दूसरे देशों में जाने के बजाय किसानों की जेब में जाएगा. इससे किसानों के घर समृद्ध होंगे और रोजगार के मौके बढ़ेंगे.
 
 
 
बता दें कि एथेनॉल एक खास तरह का ईंधन है, जो गन्ने के रस समेत कई जैविक उत्पादों से तैयार किया जा सकता है. अभी सरकार गन्ने के रस और मक्का से एथेनॉल तैयार करा रही है. एथेनॉल ईंधन से प्रदूषण कम होता है. इस कारण सरकार धीरे-धीरे मौजूदा पेट्रोल में एथेनॉल मिक्स करने की मात्रा बढ़ा रही है. नितिन गडकरी पहले ही कह चुके हैं कि जल्द ही पूरी तरह एथेनॉल ईंधन से चलने वाली कार व अन्य वाहन बाजार में लाने का लक्ष्य वाहन निर्माता कंपनियों को दिया गया है. केंद्र सरकार ने साल 2022 में विश्व जैव ईंधन दिवस के मौके पर एक बड़ा एथेनॉल प्लांट चालू कराया था. यह प्लांट हरियाणा के पानीपत में बना है. इस 2G एथेनॉल प्लांट से हर साल तीन करोड़ लीटर एथेनॉल उत्पादन करने का लक्ष्य है.  

6 पार्टियों में बंटा महाराष्ट्र,अजित-शिंदे की बगावत क्या BJP को फायदा पहुंचाएगी ?पढ़े विस्तृत रिपोर्ट..

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उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा 48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र में रविवार को बड़ा सियासी दांव चला गया। देश के सबसे चतुर नेताओं में से एक शरद पवार को भतीजे अजित पवार ने आखिरकार गच्चा दे ही दिया।भतीजे का दावा है कि वो अब NCP को भी छीन लेंगे, ठीक वैसे ही जैसे शिंदे ने उद्धव से तीर कमान वाली शिवसेना झपट ली। मगर यह तो तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू BJP के पाले में है।आगे आपको बताएंगे कि कैसे BJP ने महाराष्ट्र की सियासी जमीन को खंड-खंड कर 6 टुकड़ों में बांट दिया और खुद सबसे बड़ा हिस्सा लेने की तैयारी में है.. पढ़े विस्तृत रिपोर्ट….
 
 
 
 
 
अजीत पंवार का इस तरह बगावती हो जाना अचानक नहीं हुआ इसके पहले से कयास लगाए जा रहे थे कि वो कभी भी पाला बदल सकते हैं हलाकि ये अंदाजा शायद किसी को भी नहीं था कि इस तरह पूरी NCP  को वो तोड़ कर ऐसा करेंगे,पिछले साल 10-11 सितंबर को दिल्ली में NCP की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी। शरद पवार को पार्टी का अध्यक्ष चुना गया था। 11 सितंबर को बैठक के बीच शरद पवार के सामने से ही अजित पवार उठकर चले गए थे। तभी उनकी नाराजगी सबके सामने आ गई थी ।इसके बाद कई वाकिये ऐसे सामने आये जब अजीत पंवार के बगावती तेवर दिखाई दिए,    10 जून 2023 की दोपहर शरद पवार ने पार्टी के 25वें स्थापना दिवस पर चौंकाने वाला ऐलान किया। उन्होंने अपनी बेटी और सांसद सुप्रिया सुले और पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रफुल्ल पटेल को NCP का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। ये फैसला अजित की बगावत का आखिरी कील साबित हुआ। इसके बाद से ही अजित का बगावत करना लगभग तय माना जा रहा था।
 
 
 
 
राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि BJP लोकसभा चुनाव को लेकर अगर-मगर की स्थिति में नहीं रहना चाहती है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार और पश्चिम बंगाल में BJP को अपनी राजनीतिक स्थिति डावांडोल नजर आ रही है। महाराष्ट्र में 2019 के लोकसभा चुनाव में NDA ने 42 सीटें जीती थीं। पवार बगावत नहीं करते तो इन सीटों में कमी तय मानी जा रही थी। वहीं बिहार में 40 में 39 सीटें NDA को मिली थीं। वहां पर नए गठबंधन के सामने NDA के लिए 39 सीटें लाना आसान नहीं है। पश्चिम बंगाल में BJP ने 18 सीटें जीती थीं। यहां पर अगर लेफ्ट, कांग्रेस और तृणमूल साथ आ गए तो BJP को सिंगल डिजिट से आगे बढ़ने में भी दिक्कत होगी।

कर्नाटक में भी बीजेपी ने  25 सीटें जीती थीं, लेकिन विधानसभा चुनावकी हार के  बाद कहा जा रहा है कि बीजेपी 14-15 तक में सिमट सकती है। यानी BJP को इन राज्यों से 50-60 सीटों की जो कमी होगी उसे मध्यप्रदेश, राजस्थान, UP, हिमाचल, गुजरात और उत्तराखंड से पूरा करना संभव नहीं है। क्योंकि यहां पर BJP पहले से ही 90% सीटें जीत चुकी है। यहां वह दोबारा 90% सीटें जीत भी जाती  है, तो भी उसकी संख्या नहीं बढ़ेगी। इसलिए BJP इस तरह की कवायद कर रही है।

 

 

 

कुछ विश्लेषक मानते हैं कि BJP का मानना है कि विपक्ष टूटता है तो इसका फायदा पार्टी को मिलता है। वहीं वोटर्स भी भ्रमित हो जाते हैं कि किसके साथ जाएं। BJP को लगता है कि लोग विचारधारा से ज्यादा बड़े नेताओं से जुड़ते हैं। अजित पवार के साथ 35 से 40 विधायक बताए जा रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो BJP के सामने से NCP की चुनौती तकरीबन खत्म हो जाएगी और पार्टी की बड़ी जीत होगी।महाराष्ट्र में सबसे बड़ा और मजबूत वोट बैंक मराठा है। BJP के पास प्रदेश में कोई स्ट्रॉन्ग मराठा चेहरा नहीं है। प्रदेश में पार्टी के सबसे बड़े नेता देवेंद्र फडणवीस ब्राह्मण हैं। अजित पवार एक मजबूत मराठा चेहरा हैं। मराठा समाज में उनकी वैल्यू एकनाथ शिंदे से भी ज्यादा है।

 

 

 

अभी तक BJP की तरफ मराठा मतदाता का पूर्ण रूप से झुकाव नहीं दिखाई देता है। NCP प्रमुख शरद पवार का BJP के साथ गठबंधन नहीं करने की एक बड़ी वजह भी यही है।दरअसल शरद पवार अपने मराठा कोर वोट बैंक को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि उनके BJP खेमे में जाने पर यह वोट उन्हें मिलेगा या नहीं। अजित पवार ने यह रिस्क लिया है। BJP को शिंदे के बाद पवार का साथ मिलने से मराठाओं के बीच इनकी पकड़ काफी मजबूत हो जाएगी।

 

 

BJP का पहला टारगेट लोकसभा चुनाव है। अजित पवार पहले ही नाराज चल रहे थे। उस पर शरद पवार ने एक गलती कर दी। उन्होंने अपनी बेटी को पोस्ट देकर आगे कर दिया और अजित पवार को कोई पोस्ट नहीं दी।यह रातों रात नहीं हुआ है। अजित पवार PM मोदी की तारीफ कर रहे थे। डिग्री को लेकर उन्होंने मोदी के पक्ष में कहा कि डिग्री महत्वपूर्ण नहीं होती। वो लगातार ये भी  बोल रहे थे कि वो डिप्टी CM बनना चाहते हैं।दरअसल, अजित के लिए शिवसेना वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला वरदान साबित हुआ है। शिवसेना टूटने वाले केस में सुप्रीम कोर्ट ने जो बातें गैर कानूनी बताई थीं, अजित उन खामियों को दूर करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। यही वजह है कि शरद पवार अभी तक किसी तरह की कानूनी लड़ाई या लीगल ऑप्शन की बात नहीं कर रहे हैं।

 

 

कुछ राजनीती के जानकार ये मानते हैं कि इतनी बड़ी संख्या में नेताओं के NCP छोड़ने का मतलब है कि सुप्रिया सुले अपने पिता या चाचा जैसी मजबूत नेता नहीं हैं। प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे नेता शरद के वफादार रहे हैं, लेकिन वे सुप्रिया सुले के सामने लाइन में खड़े नहीं रहना चाहते।

 

 

बीजेपी अजीत पंवार को इसलिए भी साथ रखना चाहती है क्योकि महाराष्ट्र में सहकारिता यानी कोऑपरेटिव का सियासत में बहुत महत्व है। चीनी मिल हों या स्पिनिंग मिल या सहकारी बैंक। महाराष्ट्र में इस समय करीब 2.3 लाख कोऑपरेटिव सोसाइटी और उनके 5 करोड़ से ज्यादा सदस्य हैं।इस पूरे ढांचे पर फिलहाल NCP की मजबूत पकड़ है। इस मामले में शरद पवार के बाद अजित पवार का नंबर आता है। BJP अजित के जरिए इस ढांचे और उससे जुड़े वोटरों पर काबिज होना चाहती है।

 

 

एक दूसरा कारण ये भी रहा कि एकनाथ शिंदे BJP की उम्मीद से काफी कम शिवसेना के वोटर तोड़ पाए हैं। BJP पिछले एक साल के दौरान महाराष्ट्र में हुए तकरीबन सभी उपचुनाव में हार गई। विधानपरिषद के दो चुनाव में BJP बुरी तरह हारी। विधानसभा में भी कसवापेट, पुणे, कोल्हापुर जैसी सीटों पर BJP को उम्मीद के हिसाब से वोट नहीं मिले।पार्टी को लगता है कि अकेले शिंदे के बूते महाराष्ट्र में पैर जमाना मुमकिन नहीं। इसलिए वह बार-बार ऐसे प्रयोग कर रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में BJP और यूनाइटेड शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा और उसे 48 में 42 सीट मिली थीं। BJP अभी की स्थिति में महाराष्ट्र में अपने आप को कमजोर पा रही थी। इसकी वजह है कि महाविकास अघाड़ी 60% वोटों को प्रभावित कर सकता था।

 

महाराष्ट्र के बाद यूपी, बिहार में टूट का खतरा,क्या विपक्षी एकता को तोड़ने की चल रही कोशिशें

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महाराष्ट्र में सियासी भूचाल आया हुआ है। शिवसेना के बाद NCP में फूट पड़ गई है। पार्टी के मुखिया शरद पवार से उनके भतीजे अजित पवार ने बगावत कर दी है। अजित ने 40 विधायकों के समर्थन का दावा करते हुए एनडीए का दामन थाम लिया है।  महाराष्ट्र में हुए इस सियासी घटना के बाद यूपी-बिहार समेत कई राज्यों में हलचल तेज हो गई है। दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि जल्द ही यूपी और बिहार से कई विपक्षी दल एनडीए में शामिल हो सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष को बड़ा झटका लगेगा।  

 

  

 
कहते हैं सियासत में न कोई स्थाई दोस्त होता है और न कोई स्थाई दुश्मन,,, जिसका नजारा आजकल आप महाराष्ट्र की राजनीती में देख सकते हैं,,महाराष्ट्र की राजनीती में हुए इस उठापटक से एक बात तो साबित हो गयी है,कि 2024 के चुनावी रण से पहले ऐसे जोड़ तोड़ कई राज्यों में देखने को मिलेंगें,, महाराष्ट्र का उलटफेर न केवल विपक्षी एकता को एक झटका है बल्कि अब अन्य राज्यों में भी टूट की सुगबुगाहट तेज होने लगी है… 
 
 
 
महाराष्ट्र में हुई उथलपुथल के बाद जिस राज्य में इस तरह की टूट की बातें सबसे ज्यादा हो रही हैं वह बिहार है। सोमवार को ही  लोक जनशक्ति पार्टी  सुप्रीमो चिराग पासवान ने दावा किया कि जल्द ही महागठबंधन की सरकार टूट सकती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के कई विधायक और सांसद NDA के संपर्क में है। चिराग पासवान ने कहा कि जिस तरह से मुख्यमंत्री अपने विधायक और सांसदों से मुलाकात कर रहे हैं, उससे यह स्पष्ट है कि उन्हें उनकी पार्टी टूटने का डर है। वहीं, भाजपा नेता सुशील मोदी ने भी कुछ इसी तरह की बात कही।   
 
 
 
बीते दिनों ही पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बेटे संतोष सुमन ने अचानक बिहार सरकार के मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। संतोष सुमन अपनी पार्टी हम (HAM) के अध्यक्ष भी हैं। इसके बाद जीतन राम मांझी ने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात करके एनडीए में शामिल होने का एलान कर दिया। पूरे बिहार की बात करें तो अभी एनडीए के साथ लोक जनशक्ति पार्टी के पशुपति पारस वाला गुट और जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम’ है। इसके अलावा आरएलजेडी के उपेंद्र कुशवाहा, चिराग पासवान की लोजपा (आर) और विकासशील इंसान पार्टी का साथ भी एनडीए को मिल सकता है। 2014 में भी कुशवाहा-मांझी और लोजपा एनडीए के साथ थे। तब लोजपा ने छह, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने तीन और भाजपा ने 22 सीटें जीती थीं। इस बार भी कुछ ऐसा ही सीट बंटवारा हो सकता है। इसमें हम के मांझी और वीआईपी के मुकेश सहनी को एक-दो सीटें मिल सकती हैं।
 
 
 

उत्तर प्रदेश में भी तेजी से सियासी समीकरण बदलते हुए दिख रहे हैं। सपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने वाली ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की नजदीकियां एक बार फिर से भाजपा के साथ बढ़ती दिख रहीं हैं। अटकलें हैं कि लोकसभा चुनाव से पहले ओम प्रकाश राजभर फिर से एनडीए में शामिल हो सकते हैं। महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद राजभर ने दावा किया कि सपा में भी ऐसी ही टूट हो सकती है। उन्होंने कहा कि सपा के विधायकों पार्टी में कोई भविष्य नहीं दिख रहा है। जल्द ही कई विधायक पार्टी से अलग होकर सरकार में शामिल हो सकते हैं।

 

इसके अलावा पश्चिमी यूपी में सपा को मजबूत बनाने वाले जयंत चौधरी के भी एनडीए में शामिल होने के कयास लगाए जाने लगे हैं। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले भी इसका दावा तक कर चुके हैं।  जयंत को 23 जून को पटना में हुई विपक्ष की बैठक में भी शामिल नहीं हुए थे। दावा किया जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों में जयंत की पार्टी का प्रदर्शन भी काफी अच्छा नहीं रहा है। ऐसे में जयंत अपनी पार्टी के भविष्य की संभावनाएं तलाश रहे हैं। 
 
 
 
यूपी में एनडीए गठबंधन में पहले से ही अपना दल  और निषाद पार्टी हैं। लोकसभा चुनाव से पहले जनसत्ता लोकतांत्रिक पार्टी का भी साथ मिल सकता है। बसपा पर भी बीते कुछ वर्षों से अंदरखाने भाजपा से समझौते के आरोप लगते रहे हैं। अखिलेश की पार्टी अक्सर बसपा को भाजपा की बी टीम बताती रही है। हालांकि, बसपा भी यही आरोप सपा पर लगाती है।
 

हिमाचल ने कर दी शुरुआत,उत्तराखंड में कब ?

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उत्तराखंड राज्य 68 हजार करोड़ के कर्ज में डूब चुका है, पर शायद ही यहां के राजनेताओं को आपने इस  पर कभी कोई बात करते देखा या सुना होगा,प्रदेश के ऊपर कर्ज लगातार बढ़ रहा है लेकिन इसको कम कैसे किया जाय इसको लेकर किसी भी सरकार के पास आज तक कोई ठोस निति नहीं रही है,  अकेले विधायकों और मंत्रियों के वेतन और भत्तों पर अब तक 100 करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके हैं, कर्ज तले दबे इस प्रदेश पर लगातार बोझ बढ़ता ही जा रहा है, ये कम कैसे होगा इसका जवाब किसी  सरकार के पास नहीं है,,,
 
 पड़ोसी  राज्य ‘हिमाचल’  जो भौगोलिक दृष्टि से लगभग  उत्तराखंड  प्रदेश से मिलता जुलता है,यहां भी आर्थिक हालात कुछ अच्छे नहीं हैं,अभी हाल ही में कांग्रेस ने यहां सत्ता संभाली है,और यहां की कमान संभाल रहे हैं सुखविंदर सिंह सुक्खू,,,,
 

पिछले एक दशक में हिमाचल की बिगड़ी आर्थिक सेहत को सुधारने के लिए खुद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने  एक बहुत ही अच्छी पहल की है।जिसकी पूरे हिमाचल प्रदेश में तारीफ हो रही है..  

 

 

सुखविंदर सिंह सुक्खू ने  हिमाचल को कर्ज मुक्त और ग्रीन स्टेट बनाने के लिए हेलीकॉप्टर छोड़कर सामान्य यात्रियों की तरह विमान में सफर करना और छोटी ई-कार से यात्रा करना शुरू कर दिया है। वह बिना काफिले के जरूरी चार सामान्य कारों और सामान्य सुरक्षा के साथ चल रहे हैं। उन्होंने अपने मंत्रियों को भी इसी तरह बचत करने का सुझाव दिया है।  मुख़्यमंत्री की इस पहल की पूरे हिमांचल में सराहना की जा रही है,और अब अधिकारीयों से लेकर मंत्रियों पर भी खर्च कम करने को लेकर दबाव बढ़ गया है, इससे राज्य में हर माह 3 करोड़ की बचत होती है।

 

 
हिमाचल सरकार द्वारा सरकारी विभागों और पथ परिवहन निगम के बेड़े में इलेक्ट्रिक वाहनों को शामिल किया जा रहा है। सीएम ने विभिन्न मंचों से जलविद्युत परियोजनाओं में राज्य के अधिकारों की वकालत शुरू की है,ताकि वहां से भी राजस्व हासिल हो सके। दिल्ली का दौरा कर रॉयल्टी में वृद्धि व विभिन्न केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के स्वामित्व वाली बिजली परियोजनाओं में राज्य की हिस्सेदारी की मांग को सुक्खू ने उठाया है। सीएम के प्रयासों से शोंगटोंग जलविद्युत परियोजना के कार्यों में तेजी आई है, जिसके अब जुलाई 2025 तक पूरा होने की उम्मीद है। इस परियोजना के समय से पूरा होने से करीब 250 करोड़ रुपये की बचत होगी व 156 करोड़ का राजस्व व्याज हासिल होगा।
 
उत्तराखंड को भी कर्ज से निकालने की कुछ ऐसी पहल सरकार कर सकती है,जलविधुत परियोजनाओं से भी प्रदेश को खास फायदा होता नहीं  दिखाई देता,जरूरत है राज्य सरकार यहां बन रही विधुत परियोजनाओं में अपना एक मजबूत हिस्सा सुनिश्चित करे जिससे प्रदेश के आर्थिक हालात मजबूत किये जा सकें,क्योकि उत्तराखंड प्रदेश में प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है बीएस जरूरत है तो उनके सही इस्तेमाल की और एक ठोस निति की जिससे पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी इस प्रदेश के काम आ सके। …