Author: Pravesh Rana

मोदी सरकार में बढ़ रही सीनियर नेताओं की नारजगी,अब ये नेता भी खुल कर बोली…

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मोदी सरकार में नाराजगी- 

मोदी सरकार में 2024 से पहले बगावत के सुर उभरने लगे हैं,कई वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी खुल कर सामने आने लगी है,पहले नितिन गडकरी का एक मंच पर प्रधानमंत्री मोदी के नमस्कार का जवाब न देना और अब भाजपा की बड़ी और फायरब्रांड नेता उमा भारती का खुल कर सामने आना कहीं न कहीं ये साफ़ संकेत देता है कि मोदी की भाजपा में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा और कई दिग्गज नेताओं की पार्टी में अनदेखी के चलते शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ नाराजगी बढ़ रही है,जो कि एकजुट विपक्ष के साथ -साथ अपनों की नारजगी  मोदी सरकार  के लिए नई मुसीबत खड़ी कर सकती है

 

उमा भारती को मनाना आसान नहीं- 

उमा भारती,,, भाजपा का वो बड़ा चेहरा और वो नाम जो राम मंदिर आंदोलन के दौरान पुरे देश ने देखा,,और इसी आंदोलन ने उमा भारती को भाजपा और भारतीय राजनीती में उस मुकाम तक पहुंचाया जहां से आज उनकी अनदेखी भाजपा इतनी आसानी से नहीं कर सकती,,, उमा भारती 27 साल की उम्र में पहली बार चुनाव लड़ी. 6 बार सांसद, 2 बार विधायक बनी. 11 साल केंद्र में मंत्री रहीं और मध्य प्रदेश मुख्यमंत्री भी रहीं. जहां से बेहद नाटकीय ढंग से उनको हटाया गया,उस दौरान भी उमा भारती का अड़ियल रुख भाजपा हाईकमान से लेकर सबने देखा था,इससे ये तो साफ़ है अगर उमा भारती किसी चीज को लेकर अड़ गयी तो मोदी के लिए भी उनको मनाना आसान नहीं है

 

उमा के तीखे तेवर,अनदेखी से नाराज-

एक बार फिर उमा भारती के कड़े तेवर दिखने शुरू हो गए हैं,,उमा भारती साफ़ कर चुकी हैं कि , मैंने 2019 में ही कहा था कि 2019 में चुनाव नहीं लड़ूंगी. मुझे 5 साल का ब्रेक दे दो, गंगा का काम करूंगी. यात्रा करूंगी. लेकिन मैं 2024 का चुनाव जरूर लड़ूंगी. मुझे कोई किनारे नहीं कर सकता’,,,, उमा भारती का ऐसा कहना यूँ अचानक नहीं हुआ,जिस तरह से पार्टी में कई पुराने नेता मार्गदर्शक मंडल में दाल दिए गए,कई और सीनियर नेता हाशिये पर डाल  दिए गए उससे संकेत मिल रहे हैं कि कई नेताओं को 24 चुनाव में छुट्टी हो सकती है,लेकिन 24 के आम चुनाव से पहले जिस तरह उमा भारती को किनारे लगाया जा रहा है उससे उमा बेहद खपा हैं और वो भी उस राज्य से जहां की वो मुख़्यमंत्री रही हों सांसद रही हों

क्यों नाराज है उमा भारती ?

मोदी सरकार में मंत्री रह चुकी उमा भारती ने मध्य प्रदेश में पार्टी द्वारा शुरू की गई जन आशीर्वाद यात्रा में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं दिए जाने पर विधानसभा चुनाव से जुड़ी इस महत्वपूर्ण यात्रा का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी है। उमा भारती पार्टी से इस हद तक नाराज हैं कि उन्होंने जन आशीर्वाद यात्रा के 25 सितंबर को होने वाले समापन समारोह में भी नहीं जाने की घोषणा कर दी है। समापन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी शामिल होने की संभावना है।आपको बता दें कि मध्य प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने रविवार को राज्य के सतना जिले से पार्टी के राज्यव्यापी कार्यक्रम के तहत पहली जन आशीर्वाद यात्रा का शुभारंभ किया था। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सोमवार को राज्य के नीमच से दूसरी जन आशीर्वाद यात्रा का शुभारंभ करने जा रहे हैं।लेकिन इन सभी कार्यक्रमों से भाजपा ने उमा भर्ती से दुरी बनाये रखी हुई है,जिससे उमा बेहद नाराज दिखाई दे रही हैं

पार्टी द्वारा चुनावी रणनीति के लिहाज से शुरू की गई इन महत्वपूर्ण यात्राओं के लिए निमंत्रण नहीं मिलने पर नाराजगी जताते हुए उमा भारती ने कहा, ”आज बीजेपी की यात्राएं निकल रही। इनमें मुझे कहीं नहीं बुलाया। इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनको ये ध्यान तो रखना था। मुझे नहीं जाना था। वो घबराते है कि मैं पहुंच जाऊंगी तो सारा ध्यान मेरी तरफ चला जाएगा। मुझे नहीं जाना था। कम से कम निमंत्रण देने की औपचारिकता पूरी करनी चाहिए थी।

” उमा भारती ने सोमवार सुबह ट्वीट (एक्स) कर कहा, “मुझे जन आशीर्वाद यात्रा के शुभारंभ में निमंत्रण नहीं मिला, यह सच्चाई है कि ऐसा मैंने कहा है, लेकिन निमंत्रण मिलने या ना मिलने से मैं कम ज्यादा नहीं हो जाती। हां अब यदि मुझे निमंत्रण दिया गया तो मैं कहीं नहीं जाऊंगी। ना शुभारंभ में ना 25 सितंबर के समापन समारोह में।” हालांकि इसके बाद अपने अगले ट्वीट में उमा भारती ने यह भी कहा, “मेरे मन में शिवराज के प्रति सम्मान एवं उनके मन में मेरे प्रति स्नेह की डोर अटूट और मज़बूत है। शिवराज जब और जहां मुझे चुनाव प्रचार करने के लिए कहेंगे मैं उनका मान रखते हुए उनकी बात मानकर चुनाव प्रचार कर सकती हूं।” भाजपा नेताओं के फाइव स्टार होटलों में रुकने पर फिर से सवाल उठाते हुए उमा भारती ने अगले ट्वीट में कहा, “शादियों की फ़िज़ूल खर्ची और हमारे नेताओं का 5 स्टार होटलों में रुकना इसको मैं शुरू से ही ग़लत मानती हूं।

 

उमा की चेतावनी-

उन्होंने एक चैनल  से बातचीत में कहा कि अगर आप यानी बीजेपी उन नेताओं के वजूद को पीछे धकेल देंगे, जिनके दम पर पार्टी का वजूद खड़ा है, तो आप एक दिन खुद खत्म हो जायेंगे,उमा भारती से पूछा गया कि वे बैठकों में नजर नहीं आ रही हैं, रणनीतियों से दूर रह रही हैं क्या उमा भारती को दरकिनार किया गया, या खुद दूरी बनाए हुए हैं? इस पर चेतावनी वाले लहजे में उमा भर्ती ने जवाब दिया कि   मैं 2024 का चुनाव जरूर लड़ूंगी. इसलिए मैंने खुद को किनारे नहीं लगाया. और न कोई मुझे किनारे लगा सकता है

गडकरी की नारजगी भी दिखाई दे रही- 

 

ऐसा नहीं है कि सिर्फ उमा भारती ही नाराज हैं,गडकरी की नाराजगी भी अब खुल कर सामने दिखाई दे रही है,एक मंच पर प्रधानमंत्री मोदी जब सबको अभिवादन कर रहे थे और मंच पर खड़े सभी नेता भी प्रधानमंत्री का स्वागत कर रहे थे तो उसी मंच पर मौजूद गडकरी ने न तो पीएम मोदी को अभिवादन किया और न मोदी की तरफ देखा,इससे ये तो साफ़ है कि कहीं न कहीं पार्टी के भीतर ही विरोध बढ़ रहा है,,ऐसा नहीं है कि सिर्फ बड़े स्तर पर ही नाराजगी दिखाई दे रही है बल्कि छोटे स्तर पर भी नेता अब अपनी आवाज खुल कर उठाने लगे हैं

 

कई अन्य नेता भी चल रहे नाराज- 

भाजपा ने नाराज नेताओं को अलग-अलग समितियों में स्थान देकर खुश करने की कोशिश की गई है। कुछ तो मान गए हैं, लेकिन नाराज नेताओं की लिस्ट इतनी लंबी है कि उन्हें मनाने के लिए भाजपा को बकायदा रणनीति बनानी पड़ी है। उसी के मुताबिक रूठों को मनाने की तैयारी की जा रही है। चुनावी राज्य मध्य प्रदेश में बीजेपी के 60 से ज्यादा नेता नाराज बताये जा रहे हैं,,पूर्व विधानसभा अध्यक्ष  के भाई और पूर्व विधायक गिरिजाशंकर शर्मा फिर कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं। उन्होंने खुद इसके संकेत दिए हैं।

उन्होंने कहा कि वर्तमान में सरकार और संगठन की स्थिति खराब है। 7 -7 बार विधायक बन क्र जितने वाले नेता भी पार्टी की बेरुखी से नारज लग रहे हैं,कभी प्रदेश सरकार में प्रभावी मंत्री रहे डॉ. गौरीशंकर शेजवार अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। चुनाव के लिए बनी समितियों में उन्हें जगह नहीं दी गई है। बीजेपी के संस्थापक और पार्टी के सबसे बड़े नेता रहे पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा ने साफ शब्दों में इरादे एक साल पहले ही जाहिर कर दिए थे। उन्होंने एक बयान में कहा था कि मैं चुनाव लड़ूंगा यह तो तय है। अब पार्टी को सोचना है कि वह कहां से लड़ाना चाहती है। उनके यह तेवर अब पार्टी नेतृत्व के लिए उलझन बढ़ा सकते हैं, क्योंकि अनूप अभी तक ग्वालियर पूर्व विधानसभा से चुनाव लड़ते आए हैं।ऐसे कई नेता हैं जो अब खुलकर बोल रहे हैं जिससे बीजेपी मुश्किलें लगातार बढ़ रही है और इनका असर भी चुनावों पर पद सकता है

 

भाजपा के लिए बनता सरदर्द- 

चुनावी साल में वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी से भारतीय जनता पार्टी परेशान है. यही वजह है कि इंदौर में बीजेपी को नई गाइडलाइन जारी करना पड़ी. पार्टी ने यहां अब अपने हर कार्यक्रम में मंच पर पुराने नेताओं को बैठाने औऱ उन्हें पूरा सम्मान देने के निर्देश जारी किए हैं. पार्षदों से लेकर मंडल अध्यक्षों तक को वरिष्ठ नेताओं का विशेष ध्यान रखने के लिए कहा गया है.बीजेपी के वरिष्ठों की नाराजगी पर कांग्रेस चुटकी ले रही है. कांग्रेस प्रवक्ता नीलाभ शुक्ला का कहना है वरिष्ठ नेताओं के सम्मान की परंपरा तो बीजेपी में कभी की खत्म हो चुकी है. वरिष्ठ नेताओं को मार्ग दर्शक मंडल में बैठाकर उनके घरों का मार्ग ही भूल चुके हैं. कई वरिष्ठ नेता पार्टी को लेकर मुखर भी हो चुके हैं. खुद कैलाश विजयवर्गीय ने स्वीकार किया कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओ में खासा असंतोष है. विधानसभा चुनाव में बीजेपी को लग रहा है कि वरिष्ठों की नाराजगी भारी पड़ सकती है. इसलिए उन्हें मंच पर बैठाकर सम्मान का लॉलीपाप दिया जा रहा है. कुल मिलाकर राजनैतिक ड्रामेबाजी की जा रही है. कहीं भी इनके मन के अंदर वरिष्ठों को लेकर सम्मान नहीं है।

कर्नाटक और हिमाचल  चुनाव में करारी हार के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल कम हुआ है. वहीं बीजेपी के पुराने नेता रही सही कसर पूरी कर रहे हैं. ऐसे में पार्टी पशोपेश में है.  कई नेता है, जो अपनी उपेक्षा से नाराज है,ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा की बीजेपी इन्हें मनाने में किस हद तक कामयाब होती है

 

वसुंधरा से दूरी बनाती भाजपा, नाराजगी मोदी को पड़ सकती है महंगी… 

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क्या वसुंधरा अब बीजेपी की ज़रूरत की लिस्ट से बाहर हो चुकी हैं? सवाल उठना लाजिमी भी है क्योंकि वसुंधरा राजे न सिर्फ़ दो बार की मुख्यमंत्री रही हैं, बल्कि प्रदेश में पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा भी हैं.राजस्थान चुनाव की तैयारियों में जुटी पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे को बीजेपी ने बड़ा झटका दिया है. गुरुवार को बीजेपी ने चुनाव प्रबंधन समिति और संकल्प पत्र समिति के गठन का ऐलान किया. इन दोनों ही समितियों से वसुंधरा राजे का नाम गायब है. बीजेपी का ये फैसला चौंकाने वाला है.वसुंधरा के किसी समर्थक को भी इन कमेटियों में जगह नहीं मिली है. इसके उलट घनश्याम तिवाड़ी और डॉक्टर किरोड़ी लाल मीणा जैसे नेताओं को शामिल किया गया है, जो वसुंधरा राजे के घोर विरोधी माने जाते हैं. ये वही नेता हैं जो एक समय वसुंधरा राजे की वजह से बीजेपी छोड़कर चले गए थे. हालांकि, अभी कैंपेन कमेटी की घोषणा बाकी है, लेकिन इन दो कमेटियों से वसुंधरा का पत्ता कटने के बाद राजस्थान के राजनीतिक गलियारे में सुगबुगाहट तेज हो गई है. सवाल उठने लगे हैं कि क्या राजस्थान की सियासत में वसुंधरा राजे के साथ खेल हो गया? क्या बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद की सबसे बड़ी दावेदार वसुंधरा को साइड लाइन कर दिया?

 
राजस्थान में जहां भाजपा जीत की आस लगा रही है,पर कुछ ऐसे कारण राजस्थान में बन रहे हैं जिससे जहां कांग्रेस को थोड़ा राहत और भाजपा में बेचैनी दिखाई दे रही है, राजस्थान में भाजपा की जीत सबसे ज्यादा निर्भर करेगी वसुंधरा राजे पर, राजस्थान विधानसभा चुनावों को लेकर बीजेपी ने हाल ही में दो समितियां गठित की हैं. इन दोनों समितियों में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का नाम नहीं होने से उनके समर्थकों में नाराजगी है.बीजेपी में चुनाव समितियों का बड़ा महत्व माना जाता है.इसलिए दोनों समितियों में वसुंधरा राजे का नाम नहीं होने से फिर एक बार बीजेपी में उनकी अहमियत को लेकर चर्चा शुरू हो गई है.हालांकि, बीजेपी का कहना है कि वसुंधरा राजे बीजेपी की बड़ी नेता हैं. वे चुनावों में प्रचार-प्रसार करेंगी। 
 
 
राजस्थान में कैंपेनिंग कमेटी की घोषणा- 
 

दूसरी तरफ कांग्रेस ने राजस्थान में नाराज चल रहे सचिन पायलट को कांग्रेस वर्किंग कमेटी में शामिल कर लिया है. रविवार को कांग्रेस वर्किंग कमिटी की जो लिस्ट आई उसमें सचिन पायलट का भी नाम है.जहाँ कांग्रेस सचिन पायलट को साथ लेकर चलने की कोशिश कर रही है, वहीं बीजेपी में वसुंधरा राज्य निर्णायक भूमिका में नहीं दिख रही हैं.बीजेपी पहली बार राजस्थान में कैंपेनिंग कमिटी की घोषणा भी करने वाली है. चुनावों में बीजेपी की कैंपेनिंग कमेटी को बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है.ऐसे में वसुंधरा राजे की भूमिका को लेकर सबकी निगाहें अब कैंपेनिंग कमिटी की घोषणा पर टिकी हुई हैं.17 अगस्त के दिन जयपुर में बीजेपी ने कोर कमिटी की बैठक बुलाई थी. लेकिन, इस बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे शामिल नहीं हुईं.इस बैठक से पहले बीजेपी ने आगामी राजस्थान विधानसभा चुनाव के दो समितियों की घोषणा की.प्रदेश चुनाव प्रबंधन समिति और प्रदेश संकल्प पत्र समिति. इन दोनों ही समितियों से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का नाम नहीं है.वसुंधरा राजे के चेहरे पर 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई थी.इसके बाद से ही दिल्ली के बीच उनके मतभेद देखने को मिले हैं. चर्चाएं रहीं कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे को महत्व नहीं दे रहा है.इस बार इसलिए भी सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे का चुनावों के लिए बनाई गईं सभी समितियों में नाम था.तब चुनाव प्रबंधन समिति में भी वसुंधरा राजे शामिल रहीं थीं लेकिन इस बार उनका नाम नहीं है.वसुंधरा राजस्थान बीजेपी की सबसे बड़ी नेता है,भाजपा भले कुछ भी दावे करे लेकिन ये भी सच है कि वसंधुरा को अगर भाजपा राजस्थान से किनारे करती है तो आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को मुश्किलों के दौर से गुजरना पड़  सकता है

चुनावी रणनीति पर दिल्ली की पकड़ मजबूत- 


वसुंधरा राजे का पिछले चुनावों में जो क़द था, वो इस बार नहीं रहा है. इसका अब कारण दिल्ली से राज्यों का चुनाव संचालन हो सकता है.चुनाव में प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति तक सभी फ़ैसलों पर दिल्ली की पकड़ मजबूत हो गई है. इसके बाद से ऐसा देखा नहीं गया कि वसुंधरा राजे को कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई हो,वसुंधरा समर्थक चाहते हैं कि उनको राजस्थान सीएम का चेहरा बनाया जाए.बीजेपी में सबसे महत्वपूर्ण कैंपेन कमेटी मानी जाती है. इस कमेटी का चेहरा चुनावों का चेहरा माना जाता है और इसलिए सब की निगाहें कैंपेन कमेटी पर टिकी हैं.राजस्थान में पहली बार कैंपेन कमेटी की घोषणा होने जा रही है.माना जा रहा है कि कैंपेन कमेटी में वसुंधरा राजे को शामिल किया जा सकता है. अगर नहीं किया जाएगा तो बीजेपी आलाकमान का यह सीधा संदेश होगा कि वसुंधरा राजे को दरकिनार करके चुनावों में जा रहे हैं.पहली बार साल 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान कैंपेनिंग कमेटी बनाई गई थी, जिसका अध्यक्ष नरेंद्र मोदी को बनाया गया था. इसलिए माना जाता है कि कैंपेनिंग कमिटी का चेहरा ही आगामी चुनाव का चेहरा होगा

 

बीजेपी ने प्रदेश संकल्प पत्र समिति का संयोजक बीकानेर से सांसद और केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को सौंपी है.राजस्थान में अर्जुन राम मेघवाल बीजेपी के बड़े दलित चेहरा हैं.राजनीति में आने से पहले वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं.संकल्प पत्र समिति में राज्यसभा सांसद घनश्याम तिवाड़ी और राज्यसभा सांसद डॉ किरोड़ी लाल मीणा हैं.ये दोनों ही नेता एक समय पर वसुंधरा राजे के धुर विरोधी रहे हैं. संकल्प पत्र समिति में छह सह संयोजक और 17 सदस्य समेत कुल 25 नेता शामिल हैं.प्रदेश चुनाव प्रबंधन समिति का संयोजक नारायण पंचारिया को बनाया गया है.पंचारिया बीजेपी से पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष और सांसद रहे हैं. वे केंद्रीय नेतृत्व के करीबी माने जाते हैं.बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और जयपुर ग्रामीण सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौर समेत छह सह संयोजक और 14 सदस्यों समेत 21 नेताओं को समिति में शामिल किया गया है

 
क्या वसुंधरा की अहमियत भाजपा में कम?


ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या वसुंधरा राजे की अहमियत भाजपा में कम हो रही है,वसुंधरा राजे एक समय में पार्टी में मजबूत कद रखती थी,वसुंधरा अटल और आडवाणी के दौर में एक समय 2014 से पहले प्रधानमंत्री के पद की दावेदार के रूप में थी,लेकिन मोदी सत्ता में उनको इतना महत्व नहीं दिया गया,वसुंधरा राजे के चेहरे पर 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई थी.इसके बाद से ही दिल्ली के बीच उनके मतभेद देखने को मिले हैं. चर्चाएं रहीं कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे को महत्व नहीं दे रहा है.इस बार इसलिए भी सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे का चुनावों के लिए बनाई गईं सभी समितियों में नाम था.तब चुनाव प्रबंधन समिति में भी वसुंधरा राजे शामिल रहीं थीं लेकिन इस बार उनका नाम नहीं है

बीजेपी राजस्थान में परिवर्तन यात्रा निकाल रही है,हालांकि, इस बार परिवर्तन यात्रा एक चेहरे पर नहीं बल्कि चार दिशाओं से चार चेहरों पर टिकी होगी.ऐसे में यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बार यह यात्रा सिर्फ़ वसुंधरा राजे को साइड लाइन करने के लिए किया गया है. राजनीतिक विश्लेषक मिलाप चंद डांडी कहते हैं, “राजस्थान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही चेहरे पर ही चुनाव लड़ा जाएगा. मुझे नहीं लगता कि वसुंधरा राजे का चेहरा सामने किया जाएगा. क्योंकि उन पर गहलोत से मिले होने के आरोप हैं.अभी तक तो ऐसा लग रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव मोदी बनाम गहलोत होगा. मीडिया में भी मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर वसुंधरा से अलग नाम तैर रहे हैं.. कभी गजेंद्र सिंह शेखावत, कभी सतीश पूनिया तो कभी अश्विनी वैष्णव. मतलब साफ़ है, वसुंधरा के लिए संकेत अच्छे नहीं हैं. शायद, वसुंधरा राजे को भी इसका अहसास हो चुका है, इसलिए अक्सर वो पार्टी की बैठकों से नदारद रहती हैं. गुरुवार को भी राजस्थान में भाजपा का विशेष सदस्यता अभियान चल रहा था, लेकिन कोर कमेटी की मेंबर होने के बावजूद वसुंधरा नहीं पहुंचीं

क्या बीजेपी के लिए आसान होगा ये?


अब सवाल उठता है  की क्या  वसुंधरा को किनारे करना बीजेपी के लिए आसान होगा ? पार्टी के अंदर ही वसुंधरा राजे के खिलाफ एक बड़ी लॉबी बन गई है. हाल में अमित शाह के दौरे में इसकी झलक भी दिखी थी. उदयपुर में मंच पर अमित शाह के साथ वसुंधरा राजे भी थीं. नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने वसुंधरा की अनदेखी कर भाषण के लिए अमित शाह का नाम लिया. हालांकि, अमित शाह ने वसुंधरा राजे की ओर इशारा कर भाषण के लिए कहा. अब सवाल है कि क्या बीजेपी के लिए वसुंधरा राजे को साइड लाइन करना आसान होगा? जवाब है- बिल्कुल नहीं. वसुंधरा राजे का एक अपना व्यक्तित्व है जो सियासत को किसी करवट बदलने का माद्दा रखता है. अगर राजस्थान की सियासत में वसुंधरा के दुश्मन हैं तो दोस्त भी. वसुंधरा के करीबी और सात बार के विधायक रहे देवीसिंह भाटी ने तो वसुंधरा को चेहरा न बनाए जाने की स्थिति में तीसरा मोर्चा बनाने तक की बात कह दी है. हालांकि, वसुंधरा राजे अभी वेट और वॉच वाली स्थिति में हैं. इलेक्शन कैंपेन कमेटी की घोषणा अभी बाक़ी है. माना जाता है कि इलेक्शन कैंपेन कमेटी का संयोजक ही चुनाव में पार्टी का चेहरा होता है. ऐसे में इस पद के लिए वसुंधरा प्रेशर पॉलिटिक्स से नहीं चूकेंगी. लेकिन, अगर ऐसा नहीं हुआ तो इतना तो तय है कि वसुंधरा को साइड लाइन करना बीजेपी के लिए फायदे का सौदा नहीं होगा

 
 
क्या खतरनाक प्रतिद्वंद्वी साबित हो सकती हैं ये- 


फिलहाल, BJP के बड़े नेता अपनी तरफ से गुटबाजी पर लगाम लगाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं क्योंकि गुटबाजी भगवा कुनबे की चुनावी संभावनाओं के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है,राजस्थान में नेतृत्व की दुविधा हल करने में BJP की नाकामी के इन चुनावों में तकलीफदेह नतीजे हो सकते हैं. राजस्थान में पार्टी की सबसे लोकप्रिय नेता वसुंधरा राजे की अपरिभाषित भूमिका BJP की चुनावी संभावनाओं पर किस तरह असर करेगी, यह एक जटिल सवाल है. अगर उनके कुछ वफादारों के नाराजगी भरे बयान कोई इशारा हैं,  तो ‘एंग्री वूमेन’ अपनी ही पार्टी के लिए एक खतरनाक प्रतिद्वंद्वी साबित हो सकती है !

5 राज्यों का खेला, किसने किसको पेला, ये बिगाड़ देंगे भाजपा-कांग्रेस दोनों का ही खेल…

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अगले दो-तीन महीनों में पांच राज्यों की विधानसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं। इनमें से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पर सबकी नजरें टिकी हुई हैं। इस बीच आ रहे अलग-अलग सर्वे में कहीं भारतीय जनता पार्टी, कहीं कांग्रेस तो कहीं किसी को भी स्पष्ट बहुमत मिलता दिखाई नहीं दे रहा है।  इनमें से दो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है, जबकि मध्य प्रदेश में भाजपा की शिवराज सिंह चौहान की सरकार है। ये चुनाव 2024 लोकसभा का सेमीफाइनल की तरह होगा और इनके नतीजे 24 के लोकसभा पर बड़ा असर डालेंगे,, इन तीनों ही राज्यों में भाजपा और कांग्रेस  दोनों दल बड़े खिलाड़ी हैं लेकिन तीनों राज्यों में 9 ऐसे छोटे दल हैं जो दोनों ही बड़ी पार्टियों का खेल बिगाड़ने को आतुर हैं। सियासी जानकारों का मानना है कि अगर दोनों ही बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने छोटे दलों को नहीं साधा तो उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है।2024 लोकसभा  से पहले जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, मोदी सरकार के लिए ये सबसे अहम चुनाव साबित होंगें,तीसरी बार सत्ता तक पहुंचने के लिए भाजपा को इन चुनावों में जीत बेहद जरूरी है,इनमे सबसे अधिक सीट वाले मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनावी नतीजे कई हद तक 2024 की दिशा तय करेंगे,इन राज्यों में जीत दर्ज करने वाली पार्टी एक बड़े मनोबल से 24 के रण में उतरेगी,भाजपा अगर यहां जीत दर्ज करने में कामयाब होती है तो पुरे देश में उनका माहौल बनेगा,और अगर कांग्रेस इसमें कामयाब हुई तो न केवल गटबंधन में कांग्रेस का पक्ष सबसे मजबूत होगा बल्कि पुरे देश में कांग्रेस एक नए उत्त्साह से चुनाव लड़ेगी और ये विपक्षी खेमें में भी जोश भरेगी,, लेकिन मध्य प्रदेश,राजस्थान,छतीशगढ में कुछ छोटे ऐसे दल भी हैं जो इन दोनों पार्टियों में किसी की भी पार्टी का गणित बिगाड़ सकते हैं,इन राज्यों का समीकरण हम आपको सिलसिलेवार तरिके बताते हैं।

123 सीटों पर होने वाला है खेल-

पहले बात मध्य प्रदेश की जहां लोकसभा की 29 सीट हैं,,जहां से 2019 में मोदी सरकार 28 सीट जितने में कामयाब रही थी,लेकिन विधानसभा में कांग्रेस ने उसको नजदीकी मुकाबले में हरा दिया और राज्य की सत्ता पाने में कामयाबी हासिल की,हलाकि कुछ समय बाद ज्योतिराज सिंधिया कुछ विधयकों को लेकर भाजपा में शामिल हो गए और कांग्रेस की कमलनाथ सरकार अल्पमत के कारण गिर गयी,और शिवराज फिर मुख़्यमंत्री बन गए,लेकिन इस बार कांग्रेस मध्य प्रदेश में भाजपा को फिर कड़ी चुनौती देती दिखाई दे रही है और एक बार फिर भाजपा कांग्रेस में यहां कांटे का मुकाबला देखने को मिल सकता है,लेकिन इस बार छोटे दल और निर्दलीय यहां किसी भी पार्टी का समीकरण बिगाड़ने को तैयार है,ये भी सम्भव है कि चुनाव नतीजों के बाद ये किंग मेकर की भूमिका निभा सकते हैं, मध्य प्रदेश में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं। इनमें से 47 अनुसूचित जनजाति और 35 अनुसूचित जाते के लिए आरक्षित हैं। इन सीटों के अलावा 41 और सामान्य सीटें हैं, जहां SC/ST वोटर हार-जीत तय करते हैं। यानी कुल 123 सीटों पर तगड़ा खेल होने वाला है क्योंकि इन सीटों पर तीन छोटे दलों की मौजूदगी और अच्छी पकड़  मानी जाती है। उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे बुंदेलखंड क्षेत्र में मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी एक प्रमुख सियासी खिलाड़ी है। ग्वालियर चंबल क्षेत्र में दलित (SC) मतदाताओं पर बसपा का अच्छा प्रभाव माना जाता है।

इसी तरह महाकोशल क्षेत्र की कई सीटों पर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (जीजीपी) की मजबूत पकड़ मानी जाती है। पांच साल पहले यानी 2018 के चुनावों में जीजीपी ने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन बनाकर कुल 125 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन उस गठबंधन को सिर्फ एक सीट ही मिली थी। इन दोनों के अलावा हीरालाल अलावा के नेतृत्व  वाले जय आदिवासी युवा शक्ति (JAYS) इस साल मई में मध्य प्रदेश में एसटी के लिए आरक्षित 47 सीटों सहित कुल 80 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की थी। पिछली बार उन्होंने कांग्रेस के साथ समझौता किया था और उसी की टिकट पर हीरालाल विधायक चुने गए थे। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि इन छोटे दलों की खींचतान की वजह से भाजपा या कांग्रेस किसी को भीनुकसान  हो सकता है।  इन छोटे दलों का वोट प्रतिशत लोकसभा चुनाव में  देखें तो एक बड़ा अंतर् दिखाई देता है लेकिन वही मत प्रतिशत विधानसभा चुनावों के नतीजों पर  बड़ा असर डालता दिखाई देता है और किसी भी सीट पर जितने वाले प्रत्याशी का समीकरण खराब कर सकता है।

 

छत्तीसगढ़ में दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था की तुलना-

बात छत्तीसगढ़ की करें तो यहां भी कई दल दोनों राष्टीय दलों का गेम बिगाड़ने के लिए तैयार हैं,, छत्तीसगढ़ में भी मुख्य लड़ाई आदिवासी वोट बैंक और सीटों की है। राज्य की 90 सीटों में से 29 सीटें एसटी कैटगरी के लिए आरक्षित हैं, जबकि अन्य 20 सीटें पर आदिवासी मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जेसीसी) ने 2018 का विधानसभा चुनाव बसपा के साथ गठबंधन में लड़ा था और कुल 11% वोट परसेंट के साथ सात सीटें जीतीं थी। इस बीच, अनुभवी आदिवासी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम द्वारा स्थापित पार्टी (हमर राज) तेजी से अपने विस्तार कर रहा है। नेताम बस्तर क्षेत्र से आते हैं। वह बसपा और सीपीआई (एम) के साथ गठबंधन कर 50 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं। बसपा का राज्य भर में दलित वोटों के एक वर्ग पर खासा प्रभाव माना  जाता है। ये भी यहां भाजपा और कांग्रेस किसी भी पार्टी का गणित बिगाड़ सकते हैं ।

लेकिन इस बार राष्ट्रिय पार्टी का दर्जा मिलने के बाद केजरीवाल की पार्टी आप भी यहां अपना दम दिखाने जा रही है, जो कांग्रेस और बीजेपी का समीकरण बिगाड़ सकती है ,छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने 9 गारंटी दी। उन्होंने इस दौरान दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था से छत्तीसगढ़ की शिक्षा की तुलना की। आप नेता व दिल्ली के सीएम ने अपने सहयोगी कांग्रेस पार्टी की सरकार को निशाने पर लिया।अरविंद केजरीवाल और पंजाब के सीएम भगवंत मान ने शुक्रवार का छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी की सरकार बनाने की अपील की।दरअसल, कांग्रेस की छत्तीसगढ़ सरकार पर केजरीवाल ने ऐसे वक्त में ये टिप्पणी की हैस जब दोनों पार्टियों के बीच अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में दिल्ली में कौन कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा इसको लेकर बहस छिड़ी हैं। केजरीवाल के यहां चुनाव लड़ने का असर कांग्रेस पर ज्यादा पड़ने के आसार लग रहे हैं,अगर आप यहां थोड़े वोट काटने में कामयाब हुई तो किसी भी पार्टी का समीकरण बिगड़ सकता है।

 

छोटे दलों को मिल सकता है फायदा-

राजस्थान में भी तीन छोटे दल सत्ताधारी कांग्रेस और मुख्य विपक्षी भाजपा के लिए चुनौती बने हुए हैं। इनमें राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) की स्थापना पूर्व भाजपा नेता और नागौर से सांसद हनुमान बेनीवाल ने की है। वह तीन कृषि कानूनों का विरोध करते हुए एनडीए से बाहर हो गए थे। उनका जाटों के बीच प्रभाव है। इसके अलावा, जयंत चौधरी के नेतृत्व वाली आरएलडी भी एक सियासी खिलाड़ी है जिसने पिछली बार एक विधानसभा सीट जीती थी। आरएलडी का यूपी से सटी सीमा खासकर भरतपुर, धौलपुर और अलवर के इलाकों में जाट वोटरों पर अच्छी पकड़ मानी जाती है। इनके अलावा मायावती की बसपा भी राजस्थान में दोनों बड़े दलों के लिए सियासी शत्रु है। 2018 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने कुल चार फीसदी वोट बैंक पर कब्जा जमाते हुए छह सीटें जीती थीं। हालांकि बाद में बसपा के विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए थे।ये छोटे दल हलाकि ज्यादा सीट तो नहीं जीत पाती है लेकिन ये कई सीट पर इतना प्रभाव रखती है कि इनको मिलने वाला वोट प्रतिशत किसी भी दल के प्रत्याशी की जीत को हार में बदल सकता है,,,जिस तरह से भाजपा और कांग्रेस में यहां अंदरूनी जंग छिड़ी है उसका थोड़ा फायदा भी छोटे दलों को मिल सकता है।

 

2024 की राह कितनी आसान-

राजस्थान में जातिगत समीकरणों का भी बड़ा असर रहता है,चुनाव नजदीक आने के साथ जातीय गणित को लेकर भी पार्टियां मंथन में जुटी है। लेकिन राजस्थान की बात करें तो यहां वर्षों से जातिगत समीकरण कई पार्टियों के लिए चौंकाने वाले रहे हैं। पूर्वी बेल्ट राजस्थान का महत्वपूर्ण क्षेत्र है जो मीणा और गुर्जर वोटों के प्रभुत्व के लिए जाना जाता है, जबकि शेखावाटी और मारवाड़ बेल्ट महत्वपूर्ण जाट वोटों के लिए जाना जाता है। मीणाओं ने 2018 में अपने समुदाय के सबसे बड़े नेता किरोड़ी लाल मीणा को खारिज कर सबको चौंका दिया था। जाटों में हनुमान बेनीवाल ने रिकॉर्ड अंतर से जीत हासिल की, क्योंकि उन्होंने खुद को जाट नेता के रूप में प्रचारित किया। ऐसे उदाहरणों से समझा जा सकता है कि राजस्थान में पार्टियों के लिए जातीय समीकरणों का अनुमान लगाना कितना कठिन है।

इन राज्यों में सत्ता किसके पास जाएगी यह अभी स्‍पष्‍ट नहीं है लेकिन अलग-अलग सर्वे में कहीं भारतीय जनता पार्टी, कहीं कांग्रेस तो कहीं किसी भी दल को भी स्पष्ट बहुमत मिलता दिखाई नहीं दे रहा है।ऐसे में ये छोटे दल किंग मेकर की भूमिका में आ सकते हैं,जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा की गई है, उनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना शामिल हैं. राजस्थान, मध्य प्रदेश, मिजोरम और तेलंगाना में एक चरण में चुनाव होंगे, जबकि छत्तीसगढ़ में दो चरणों में चुनाव होंगे. सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए 11 दिसंबर को मतगणना होगी और इसी दिन नतीजे आएंगे ,इसी दिन साफ़ हो जायेगा कि 2024 की राह किसकी आसान होगी और किसकी मुश्किलों में इजाफा होगा।

पहाड़ों के लिए सबसे खतरनाक साबित हो सकती है यह बारिश, हिमालयन रीजन में इसलिए बढ़ रही हैं बड़ी समस्या।

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उत्तराखंड में भारी बारिश के बीच लगातार भूस्खलन हो रहा है। कुमाऊं से लेकर गढ़वाल और पहाड़ से लेकर मैदान तक बारिश का दौर जारी है। कुमाऊं और गढ़वाल के सभी इलाकों में लगातार हो रही तेज बारिश आफत बनी हुई है। राजधानी देहरादून में लगातार 3 दिन से बारिश हो रही है। बारिश की वजह से देहरादून की सड़कों पर पानी भरा हुआ है, जिसके चलते लोगों को आने-जाने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। मौसम विभाग के अनुसार अभी अगले 5 दिन प्रदेश में बारिश का दौर जारी रहेगा। इसे देखते हुए कुमाऊं के सभी पहाड़ी जिलों में स्कूलों को बंद कर दिया गया है। प्रदेश में बारिश के दौरान भूस्खलन तथा अन्य संबंधित घटनाओं में 9 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी और छह अन्य घायल हुए हैं…. पिथौरागढ़, अल्मोड़ा बागेश्वर, नैनीताल और चंपावत में सभी स्कूल बंद रहेंगे। भारी बारिश के अलर्ट पर पांचों जिलों के डीएम ने यह अहम फैसला लिया है। तेज बारिश के चलते कुमाऊं की कई नदियां उफान पर हैं तो गढ़वाल और कुमाऊं में पहाड़ों से पत्थर गिर रहे हैं। इस कारण सड़कें भी अवरुद्ध हो रही हैं। मौसम विभाग ने नदियों के किनारे और पहाड़ी मार्गों पर सतर्कता बरतने के निर्देश दिए हैं। कई दिनों से प्रदेश भर के ज्यादातर इलाके बारिश में जलमग्न हैं। पहाड़ से लेकर मैदान और कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक सब जगह बारिश हो रही है। उत्तराखंड में लगातार हो रही बारिश के बाद पहाड़ से लेकर मैदान तक कुदरत का कहर बरप रहा है। पहाड़ी इलाकों में नदी नाले उफान पर आए हैं। गंगा, अलकनंदा, काली और बीन नदी उफान पर हैं। वहीं, भूस्खलन ने कई जिंदगियां लील लीं। उत्तरकाशी में पांच, रुद्रप्रयाग में एक और विकासनगर में दो लोगों की भूस्खलन के चलते मौत हो गई। उधर, मैदानी इलाके बारिश के बाद जलमग्न हो गए हैं।

 

चार-धाम यात्रा मार्ग भी हुए अवरुद्ध।

 

बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग शनिवार को पहाड़ी से बोल्डर गिरने के कारण एक बार फिर अवरुद्ध हो गया। बाजपुर चाडा के पास पहाड़ी से चट्टान टूटने के कारण बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग एक बार फिर बंद हो गया। मार्ग बंद होने की वजह से गाड़ियों को दूसरे रास्ते से निकालना पड़ रहा है। रविवार को देहरादून में तड़के से बारिश का दौर जारी रहा, चमोली जिले में मौसम खराब बना हुआ है। यहां भी बारिश हो रही है। केदारनाथ समेत पूरे रुद्रप्रयाग जिले में हल्की बारिश हो रही है। केदारनाथ यात्रा सुचारू है। लगातार बारिश के कारण जौनसार बावर में कई जगह पहाड़ दरक गए हैं। हरिद्वार में बाणगंगा (रायसी), पिथौरागढ़ में धौलीगंगा (कनज्योति) व नैनीताल में कोसी (बेतालघाट) में नदियों के जल स्तर में वृद्धि हो रही है। भूस्खलन की वजह से लोनिवि साहिया के स्टेट हाईवे समेत कई मोटर मार्ग बंद हैं। स्टेट हाईवे, मुख्य जिला मार्ग समेत 10 मोटर मार्ग बंद होने के कारण जौनसार बावर के करीब 100 गांवों, मजरों व खेड़ों में रहने वाली आबादी का जनजीवन प्रभावित हो गया है। सचिव आपदा प्रबंधन डा रंजीत कुमार सिन्हा के निर्देश पर राज्य आपातकालीन परिचालन केंद्र ने हरिद्वार, नैनीताल व पिथौरागढ़ के जिलाधिकारियों को पत्र भेजकर अपने-अपने क्षेत्रों में विशेष सावधानी बरतने के निर्देश दिए हैं। मौसम विभाग ने कहीं ऑरेंज तो कहीं येलो अलर्ट जारी किया है। कई जिलों में विद्यालयों की छुट्टी कर दी गई है। पहाड़ी मार्गों और नदियों के किनारे सतर्कता बरतने को कहा गया है।बीते दो दिनों से जिस तरीके की बारिश हो रही है, उससे अब देश के पहाड़ी इलाकों से लेकर मैदानी इलाकों में बहुत बड़े खतरे की आहट सुनाई देने लगी है। पहाड़ों पर नजर रखने वाली देश की प्रमुख सरकारी एजेंसियों ने आशंका जताई है कि मूसलाधार बारिश के बाद अब खोखले हो चुके पहाड़ों के दरकने का अंदेशा बढ़ गया है। दरअसल यह रिपोर्ट लगातार बारिश के बाद पहाड़ों के भीतर हो रहे तेज पानी के रिसाव और कमजोर हो रही चट्टानों के चलते आई है। लगातार तेज हो रही बारिश के चलते हिमाचल प्रदेश के कुछ पहाड़ी इलाके सबसे ज्यादा खतरे के निशान पर आ गए हैं और वहां पर पहाड़ियों के खिसकने की बड़ी सूचनाएं भी आने लगी हैं। फिलहाल सरकारी एजेंसियों की चेतावनी के बाद सरकार तो अलर्ट हो गई है। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है अगर ऐसा होता है तो यह बहुत बड़ी तबाही होगी।

 

 

 

 हिमालयन रीजन के खतरनाक इलाकों को खाली करने का सुझाव। 

 

बीते दो दिनों की बारिश ने सबसे ज्यादा तबाही हिमाचल प्रदेश के उन इलाकों में मचानी शुरू की है, जहां आबादी बसती है। पहाड़ों समेत मैदानी इलाकों पर नजर रखने वाली जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से जुड़े अधिकारियों के मुताबिक जहां पर सबसे ज्यादा बारिश हो रही है और पानी का बहाव तेज है उन पहाड़ी क्षेत्रों में अब सबसे ज्यादा खतरा नजर आने लगा है। ऐसे खतरे को भांपते हुए डिफेंस रिसर्च डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन की ओर से पहाड़ों और वहां पड़ने वाली बर्फ पर नजर रखने के लिए डिफेंस जियोइन्फोर्मेटिक्स एंड रिसर्च एस्टैब्लिशमेंट और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया समेत मौसम विभाग ने केंद्र सरकार को मौसम से होने वाली आपदा संबंधी रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में अंदेशा जताया गया है कि अगर लगातार ऐसी बारिश होती रही, तो पहाड़ी इलाकों पर न सिर्फ पहाड़ों के खिसकने का खतरा बढ़ेगा, बल्कि मानव आबादी और जान माल की बड़ी क्षति भी हो सकती है। सूत्रों के मुताबिक रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया है कि कमजोर हो चुके पहाड़ों और बारिश के चलते क्षतिग्रस्त हुए इलाकों से अब वहां रहने वालों को किसी दूसरी जगह बसाया जाना जरूरी हो गया है।

 

 

 

यह बारिश सबसे खतरनाक साबित हो सकती है पहाड़ों के लिए…

 

जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व उपनिदेशक डॉ. अरूप चक्रवर्ती कहते हैं कि बीते एक दशक में तैयार की गई उनकी रिपोर्ट बताती है कि पहाड़ के ज्यादातर आबादी वाले हिस्से के इलाके एक खोखले टीले पर बसे हुए हैं। वह कहते हैं कि जिस तरीके की मूसलाधार बारिश पहाड़ों पर जमकर हो रही है और तेजी से पिघलते ग्लेशियर से निकलता पानी तेजी से नदियों के माध्यम से उन पहाड़ों के भीतर जाकर उनकी जड़ों को और खोखला कर रहा है। चक्रवर्ती अंदेशा जताते हैं कि जिस तरीके से बीते दो दिनों में बारिश हुई है वह पहाड़ी इलाकों के लिए सबसे खतरनाक साबित हो सकती है। चक्रवर्ती कहते हैं कि सबसे बड़ा खतरा पहाड़ों के खिसकने का है। उनका उनका कहना है कि इस वक्त सबसे ज्यादा हिमाचल प्रदेश में बारिश का कहर बरप रहा है। खोखले हो चुके पहाड़ों पर बसी आबादी और खतरनाक पहाड़ों पर बने मकानों और उनके ठिकानों के खिसकने का खतरा बना हुआ है। वह कहते हैं कि जिस तरीके से बारिश हुई है अगर किसी तरीके की बारिश इस मानसून में एक दो बार और हो जाती है तो बेहद चिंता की बात होगी।

 

इसलिए जताया बारिश में पहाड़ों के ढह जाने का खतरा।

पहाड़ों पर बसी आबादी को लेकर एक बहुत बड़ा खतरा सामने आ रहा है। भूवैज्ञानिकों का कहना है पहाड़ों का गुरुत्वाकर्षण केंद्र अपनी जगह से खिसकने लगा है। लगातार हो रहे बेतरतीब तरीके के निर्माण कार्य से आबादी वाले पहाड़ खोखले भी होने लगे हैं। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक अरूप चक्रवर्ती कहते हैं कि आने वाले दिनों में पहाड़ों के खिसकने की घटनाएं न सिर्फ हिमाचल और उत्तराखंड में बढ़ेंगी, बल्कि पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में बसे पहाड़ी इलाकों और नेपाल, भूटान, तिब्बत जैसे देशों में भी ऐसी घटनाओं के बढ़ने की संभावना ज्यादा है। इसमें बारिश की वजह से और बड़ी घटनाओं के होने की आशंका बनी हुई है। वह कहते हैं कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में पहाड़ों के खिसकने का सिलसिला लगातार जारी है। डॉक्टर चक्रवर्ती का कहना है कि पहाड़ों पर लगातार हो रहे अतिक्रमण से पहाड़ों का पूरा गुरुत्वाकर्षण केंद्र अव्यवस्थित हो गया है। पहाड़ों की टो कटिंग और बेतरतीब तरीके से हो रहे निर्माण की वजह से ऐसे हालात बने हैं। उनका कहना है कोई भी पहाड़ तभी तक टिका रह सकता है जब उसका गुरुत्वाकर्षण केंद्र स्थिर हो। पहाड़ों की तोड़फोड़ और पहाड़ों पर बेवजह के बोझ से उसका स्थिर रखने वाला गुरुत्वाकर्षण केंद्र अपनी जगह छोड़ देता है। ऐसे में जब तेज बारिश होती है और नदियों का बहाव अपने वेग के साथ पहाड़ी इलाकों में बहता है, तो पहाड़ों की खोखली हो नीव को गिराने की क्षमता भी रखते हैं। यही परिस्थितियां सबसे खतरनाक होती है।

 

हिमालयन रीजन में इसलिए बढ़ रही हैं बड़ी समस्या।

 

पहाड़ी इलाकों में हो रहे निर्माण कार्यों पर नजर रखने वाली संस्था से जुड़े वैज्ञानिक और शोधकर्ताओं का कहना है कि पहाड़ पर बनने वाले एक मकान या एक सड़क या एक टनल के लिए भी वैज्ञानिक सर्वेक्षण बहुत जरूरी होता है। उनका कहना है क्योंकि पहाड़ की मजबूती बनाए गए मकान, बनाई गई सड़क और बनाई गई टनल के दौरान काटे गए पहाड़ के मलबे से ही जुड़ी होती है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की पहाड़ी इलाकों पर एक दशक तक किए गए शोध के नतीजे बताते हैं कि यहां पर जो निर्माण हुए उसमें पानी के निकास को लेकर उस तरह का ख्याल ही नहीं किया गया। शोधकर्ताओं के मुताबिक पहाड़ों पर पानी के निकास की सबसे बेहद जरूरत किसी भी हो रहे निर्माण के दौरान होती है। इस शोध को करने वाले जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक डीएस चंदेल की रिपोर्ट में पहाड़ों की मजबूती और पहाड़ों की मिट्टी से लेकर उसके पूरे भौगोलिक परिदृश्य को शामिल किया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन में पाया था कि वे पहाड़ जहां पर इंसानी बस्तियां बहुत ज्यादा बसने लगी हैं, वहां पहाड़ धीरे-धीरे ही सही लेकिन खोखले होते जा रहे हैं। ऐसे माहौल में अगर कभी बड़ी बारिश होती है तो सबसे बड़ा खतरा पहाड़ों पर बसे शहरों के लिए ही होने वाला है।

 

 दिल्ली में टूटा रिकॉर्ड।

मौसम विभाग के अनुसार बारिश ने दिल्ली में 20 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है. मौसम विभाग के एक अधिकारी के अनुसार दिल्ली के प्राथमिक मौसम केंद्र सफदरजंग वेधशाला ने सुबह 8.30 बजे से शाम 5.30 बजे तक  126.1  मिलीमीटर (मिमी) बारिश दर्ज की. उन्होंने बताया कि बारिश का यह आंकड़ा 10 जुलाई 2003 के बाद सबसे ज्यादा है और तब 24 घंटों के दौरान 133.4 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई थी.

 

मौसम विभाग ने दी ये जानकारी….

मौसम विभाग ने कहा कि पश्चिमी विक्षोभ उत्तर भारत के ऊपर बना हुआ है, जबकि मानसून अपनी सामान्य स्थिति के दक्षिण की ओर फैल गया है. साथ ही, दक्षिण-पश्चिम राजस्थान के ऊपर एक चक्रवाती स्थिति बनी हुई है. आईएमडी ने दो दिन पहले हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बहुत ज्यादा बारिश होने की चेतावनी दी थी. इसके अलावा जम्मू कश्मीर के छिटपुट स्थानों, और पूर्वी राजस्थान, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, और पंजाब में भी भारी बारिश का अनुमान लगाया गया था. आईएमडी ने कहा कि 11 जुलाई से क्षेत्र में भारी बारिश होने की संभावना नहीं है. मौसम विभाग के मुताबिक 15 किलोमीटर से कम बारिश हल्की, 15 मिलीमीटर से 64.5 मिलीमीटर वर्षा मध्यम, 64.5 मिलीमीटर से 115.5 भारी और 115.5 से 204.4 मिलीमीटर अत्यधिक बारिश समझी जाती है. दिल्ली में जुलाई में अब तक 137 मिलीमीटर बारिश हुई है . औसत के हिसाब से शहर में पूरे महीने में 209.7 मिलीमीटर बारिश होती है.

युवाओं के हक पर डाका डालती उत्तराखंड की सरकारें, कोर्ट में खुल गयी भाजपा-कांग्रेस की पोल. 

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उत्तराखंड में अक्सर प्राकृतिक आपदा आती हैं लेकिन उत्तराखंड बनने से अब तक  भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने पुरे प्रदेश का जो नुकसान पहुंचाया है शायद ही किसी आपदा ने इतना नुकसान प्रदेश को पहुंचा होगा, कोई भी पार्टी या उसकी कोई भी सरकार प्रदेश में रही हो सबने प्रदेश में खूब लूट और मनमर्जी की है,, यहां की सरकारों ने  इस प्रदेश के युवाओं का शोषण और उनके हक पर खूब डाका डाला है शायद किसी राज्य में आज तक ऐसा हुआ हो, शायद यहीं कारण रहा है कि हमारा प्रदेश आज भी उसी हालात में खड़ा है जैसा बनने के समय पर था,, तो क्या भाजपा और कांग्रेस बारी बारी इस प्रदेश को नुकसान पहुंचाने पर लगे हुए हैं ? वो तो शुक्र है हमारी न्यायपालिका का जिनकी वजह से राजनैतिक  दलों की मनमानी पर थोड़ा रोक है.

 

सरकार के सपथ पत्र से हुआ बड़ा खुलासा ….

र्ती घोटालों में तो उत्तराखंड नंबर 1 बना हुआ है,अब चाहे वो आयोग की भर्तियां हो या विधानसभा या सचिवालय की भर्तियां रही हो,,, आपको बता दें कि अभी हाल ही में नैनीताल हाईकोर्ट ने विधानसभा और सचिवालय भर्ती को लेकर सरकार से सपथ पत्र के माध्यम से राज्य बनने से लेकर अब तक हुई भर्तियों का ब्योरा मांगा था,हाई कोर्ट में दायर जनहित याचिका में पारित आदेश के अनुपालन में विधानसभा सचिवालय की ओर से करीब साढ़े चार सौ पेज से अधिक का शपथ पत्र दाखिल किया गया है। सरकार ने जो ब्योरा कोर्ट में दिया है उसे जानकर आप हैरान हो जायेंगे,इसमें साफ़ है कि किस तरह सरकारों ने नियम कायदों को रद्दी की टोकरी में डाल कर मनमानी की है..  

 
 
राज्य बनने से लेकर वर्तमान तक नियमों का घोर उल्लंघन….

इसमें सामने आया है कि विधानसभा सचिवालय में राज्य बनने से पिछली विधानसभा तक में नियुक्तियों में नियमों का घोर उल्लंघन किया गया है । आरक्षण के प्रावधानों को दरकिनार करने के साथ ही चयनित अभ्यर्थियों की शैक्षिक योग्यता व अन्य योग्यता की सक्षम अधिकारियों ने जांच नहीं की और  नियुक्ति दे दी। शपथ पत्र में   साफ कहा है कि कार्मिक विभाग के मना करने तथा वित्त विभाग की आपत्तियों को दरकिनार कर नियुक्तियां की गई, साथ ही सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों ने नियुक्ति व वेतन के आदेश जारी किए हैं ।

सर्विस रूल्स के आधार पर नहीं हुई कोई नियुक्ति …

शपथ पत्र के अनुसार विधानसभा सचिवालय में 2001 में 53, 2002 में 28, 2004 में 18, 2006 में 21,2007 में 27, 2016 में सर्वाधिक 149, 2021 में 72 सहित कुल 396 नियुक्तियां गई हैं, जो सर्विस रूल्स के आधार पर नहीं हैं। 2011 के नियमों के नियम-सात में सरकार के प्रचलित आदेशों के अनुसार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अन्य श्रेणियों के लिए आरक्षण का प्रावधान है, नियुक्ति करते समय नियम सात के प्रावधानों का अनुपालन नहीं किया गया है. नियुक्तियां करने के लिए शैक्षिक एवं अन्य योग्यताओं की जांच सक्षम प्राधिकारियों से की जानी आवश्यक है, जो नहीं की गई।

2016 से 2020 तक की गयी नियुक्तियां की गयी रद्द…

कुल मिलाकर जिसकी सरकार रही उसने अपने लोगों को बिना किसी नियम को पूरा किये ही नौकरी दे डाली। विधानसभा की ओर से दाखिल शपथ पत्र में संलग्न जांच कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा है कि 2016, 2020 और 2021 में नियुक्तियां की गई, जिसमें नियमानुसार चयन समिति का गठन, आवेदन आमंत्रित करने, प्रतियोगी परीक्षाओं आदि सहित भर्ती के लिए एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित है, लेकिन नियमों में निर्धारित किसी भी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। कार्मिक विभाग ने ऐसी नियुक्तियों पर आपत्ति जताई थी। परिणामस्वरूप नियुक्तियां अवैध थीं और उन्हें उचित रूप से समाप्त कर दिया गया।

सविधान का मजाक उड़ाती उत्तराखंड की सरकारें ….

भारत का सविधान कहता है कि  कानून का शासन संविधान की मूल विशेषता है। कोई भी प्राधिकारी कानून से ऊपर नहीं है और कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 13  में प्रावधान है कि ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जा सकता जो संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विपरीत हो। कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। चाहे आप कितने भी ऊंचे क्यों न हों, कानून आपसे ऊपर है। सभी पर लागू होता है, चाहे उसकी स्थिति, धर्म, जाति, पंथ, लिंग या संस्कृति कुछ भी हो। संविधान सर्वोच्च कानून है. संविधान के तहत बनाई जा रही सभी संस्थाएं, चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका, इसकी अनदेखी नहीं कर सकतीं। लेकिन उत्तराखंड की सरकारें खुल्लेआम सविधान का मजाक उड़ाती रही ,, अब सरकार के सपथ पत्र के बाद कोर्ट को इस पर फैसला देना हैं,कोर्ट के फैसले के बाद साफ़ हो जाएगा कि  सरकार ने जिन चहेतों को नियम विरुद्ध नियुक्ति दी है वो रहेंगे या अन्य की तरह वो भी बाहर जायेंगे,कोर्ट के फैसले का फिलहाल सभी को इन्तजार है…..

त्रिवेंद्र सरकार में लिया फैसला रोक सकता था जोशीमठ की तबाही ?

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जोशीमठ के लोगों पर फिर खतरा मंडराने लगा है,सरकार की अनदेखियों का खामयाजा भुगत रहे शहर को क्या समय रहते बचाया जा सकता था ?क्या पूर्व की त्रिवेन्द रावत की सरकार का एक फैसला तबाह होते जोशीमठ को बचा सकता था ?

जोशीमठ आपदा को छह माह का समय पूरा हो चुका है। सरकार जोशीमठ को बचाने के लिए धीरे-धीरे कदम बढ़ा रही है। कुछ आपदा प्रभावितों का जनजीवन पटरी पर लौट आया है, जबकि कुछ अभी राहत के इंतजार में हैं। कई आपदा प्रभावितों के दुख-दर्द से उबरने की उम्मीद कागजों में उलझी हुई है। ऐसे में वह राहत शिविर या रिश्तेदारों के घर रहने को मजबूर हैं। वहीं, मदद की बाट जोह रहे कुछ परिवार फिर से टूटे-फूटे घरों में रहने के लिए लौट गए हैं। आपको बता दें कि  नगर में दरार वाले 868 भवन चिह्नित किए गए थे। इनमें 181 भवन जीर्ण-शीर्ण हैं, यहां रहने वाले परिवारों में से 118 को पुनर्वास पैकेज के तहत 26 करोड़ रुपये वितरित किए जा चुके हैं।वर्तमान में 64 परिवारों के 259 सदस्य राहत शिविरों में रह रहे हैं, जबकि 232 परिवारों के 736 सदस्य रिश्तेदार या किराये के भवन में हैं।कई लोगों को होटलो में रुकवाया गया था लेकिन यात्रा सीजन शुरू होते ही होटल मालिकों ने इनसे होटल खाली करवा दिए जिसके बाद ये परिवार दोबारा उन्ही छतिग्रस्त मकानों में रहने को मजबूर हो गए हैं,6 माह के समय कबीट जाने के बाद भी सरकार इनको घर नहीं दे पाई है.. मानसून की दस्तक ने आपदा प्रभावितों की चिंता बढ़ा दी है। वर्षा से भूमि व मकानों में आई दरारें बढ़ने और शिलाओं के खिसकने का खतरा बढ़ गया है। हाल ही में सुनील गांव और नृसिंह मंदिर के पास दो जर्जर भवन क्षतिग्रस्त हुए हैं।

भू धसाव के समय असुरक्षित भवनों से 300 से अधिक परिवार राहत शिविरों में भेजे गए थे। यहां से 232 परिवार रिश्तेदार या किराये के भवन में रहने चले गए।  सरकार द्वारा इनको  किराया चुकाने के लिए प्रति माह पांच हजार रुपये देने की बात कही थी ,लेकिन 6 महीनो से अब तक मात्र  49 परिवारों को ही किराया मिला है। जिसके कारण  कुछ प्रभावित परिवार फिर असुरक्षित घरों में लौट आने को मजबूर हो गए हैं आपदा प्रभावितों के पुनर्वास को प्रशासन ने जोशीमठ से 14 किमी दूर उद्यान विभाग की भूमि पर 15 प्री-फेब्रिकेटेड हट बनाए थे जो तीन महीने से  खाली पड़े हैं। प्रभावितों का कहना है कि नगर से इतनी दूर जाकर खेती-बाड़ी और मवेशियों का ध्यान कैसे रख पाएंगे। बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा। कुल मिलाकर सरकार जोशीमठ बचाने में फिलहाल विफल साबित हुई है… 

अब सवाल ये उठता है कि आखिर इतना पुराना ऐतिहासिक नगर  जोशीमठ में ये नौबत आयी क्यों,क्या समय रहते जोशीमठ को बचाया जा सकता था ? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें कुछ पुरानी बातों पर ध्यान देना होगा।।।

 

आपको बता दें कि सबसे पहले साल 1939 में आरनोल्ड हेम और ऑगस्ट गैनसर ने अपनी किताब Central Himalaya में बताया था कि जोशीमठ इतिहास में आए एक बड़े लैंड स्लाइड पर बसा है. इतिहासकार Shiv Prasad Dabral भी अपनी किताब में लिख चुके हैं कि जोशीमठ में लगभग 1000 साल पहले एक लैंडस्लाइड आया था जिसके चलते कत्यूर राजाओं को अपनी राजधानी जोशीमठ से शिफ्ट करनी पड़ी थी. लेकिन पिछले 50 साल की ओर देखें तो 1976 के आसा पास जोशीमठ में लैंडस्लाइड के काफी घटनाए हुई, जिसकी जांच के लिए तात्कालीन गढ़वाल कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में उत्तराखंड सरकार ने एक कमेटी बनाई थी. मिश्रा ने जियोलॉजिस्ट्स की मदद से गहन जांच की और एक टू द प्लाइंट रिपो्र्ट तैयार की थी .

 

इस रिपोर्ट में भी साफ कहा गया था कि जोशीमठ किसी ठोस चट्टान पर नहीं बल्की पहाड़ों के मलबे पर बना है जो अस्थिर है. और अगर जोशीमठ को बचाना है तो यहां पर कंस्ट्रक्शन को कम करने की ज़रूरत है और अगर कोई खास कंस्ट्रक्शन करनी भी है तो उसे गहन जांच के बाद ही शुरू किया जाए. जोशीमठ में बड़े कंस्ट्रक्शन पूरी तरह बंद किए जाएं. जोशीमठ के आस पास Erratic boulders यानी की बड़े बड़े चट्टानी पत्थरों को बिल्कुल न छेड़ा जाए और ब्लास्टिंग पर पूरी तरह से रोक लगा दी जाए. जोशीमठ के आस पास के एरियाज़ में पेड़ लगाने की बात भी कही गई थी ताकि ज़मीन की पकड़ बनी रहे और पनी की निकासी के लिए Pucca Drain बनाने की सलाह भी दी गई थी. लेकिन ये एक सरकारी रिपोर्ट थी और सरकारों ने इस रिपोर्ट को डस्टबिन में डाल दिया.उलटा यहां पर बांध निर्माण की स्वीकृति दे दी गयी,जिसके बाद  यहां लगातार ब्लास्टिंग भी की गयी,स्थानीय आज भी इसी परियोजना को तबाही का कारण मानते है, 

 

पिछले कुछ दशकों में जोशीमठ में वो सब हुआ जिसके लिए मिश्रा रिपोर्ट में मना किया गया था. आर्मी के लिए इस्टेब्लिशमेंट्स बनाई गईं, ITBP का कैंप बना, औली में कंस्ट्रक्शन हुआ , Tapovan-Vishnugad Hydropower Project के इर्द गिर्द खूब कंस्ट्रक्शन की गई. बद्रीनथ जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए बड़े बड़े होटलों का निर्माण हुआ. जिससे जोशीमठ की स्लोप पर काफी छेड़छाड़ हुई और ड्रेनेज की कोई व्यवस्था न होने की वजह से होटलों और घरों से निकलने वाले पानी ने स्लोप को खोखला कर दिया. जिसके चलते जोशीमठ एक टिकिंग टाइम बॉम्ब में तबदील हो गया.

 

जिओलॉजिस्ट्सी के मुताबिक जोशीमठ की इस हालत के पीछे  Tapovan-Vishnugad Hydropower Project और चार धाम परियोजना के तहत बन रहे Helang Bypass की सबसे अहम भूमिका है. Hydropower Project के लिए जो टनल खोदी जा रही है उसकी खुदाई के लिए पहले जहां ब्लास्टिंग का इस्तेमाल किया गया वहीं टनल बोरिंग मशीन ने साल 2009 में जोशीमठ के पास एक पुराने वॉटर सोर्स को पंक्चर कर दिया था जिससे जोशीमठ में पानी की समस्या तक पैदा हो गई थी. उस वक्त इसे लेकर काफी प्रदर्शन भी हुए थे लेकिन तब भी सरकार के कानों में आवाज नहीं पहुंची  .  फिर 7 फरवरी 2021 को रिशीगंगा में आई भीषण बाड़ ने भी जोशीमठ को काफी नुकसान पहुंचाया. इसके अलावा Helang Bypass के निर्माण के दौरान भी अहतियात नहीं बरती गई जिसका परिणाम आज जोशीमठ भुगत रहा है. सबसे हैरान करने वाली बात है कि इतने फ्रैजाइल एरियाज़ में इतने बड़े बड़े निर्माण करने के दौरान किसी तरह की hydrogeological study तक नहीं की गई कि धरती के अंदर पानी की क्या स्थिती है.

 

इसकी ओर आम लोगों को भी ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि जियोलॉजिस्ट्स की मानें तो जोशीमठ की भौगोलिक स्थिती के मुताबिक इसे एक गांव ही रहने देना चाहिए था लेकिन अर्बनाइज़ेंशन और व्यापार के चलते इस इलाके पर इमारतों का बोझ बढ़ता गया जिसका परिणाम आज हम भुगत रहे हैं. यही नहीं जियोलोजिस्ट्स की मानें तो जो जोशीमठ के नीचे अलकनंदा नदी बह रही है वो भी लगातार पहाड़ की स्लोप की जड़ को काट रही है. चार धाम परियोजना के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी ताकि पहाड़ी इलाकों को बचाया जा सके लेकिन ये फैसला भी सरकार के हक में ही रहा था और अब जोशीमठ में इस परियोजना के परिणाम भी दिखने लगे हैं. यानी व्यापारियों से लेकर सरकारी बाबूओं और ईंजीनियर्स द्वारा जियोलॉजिस्ट्स की अनदेखी के चलते पहाड़ों का ये हाल हो रहा है. खैर ये तो इतिहास की बात हुई लेकिन क्या जोशीमठ को बचाया जा सकता है?

 

पहाड़ों पर हो रहे बेहिसाब निर्माण से हो रहे नुकसान पर कभी किसी सरकार ने ठोस निति नहीं बनाई,, पूर्व की त्रिवेंद्र रावत सरकार जरूर इस पर काम करना शुरू किया था पर उनके पद से हटते ही इसको ठंडे बस्ते में दाल दिया गया,,दरअसल पूर्व की त्रिवेंद्र सरकार ने  13 नवंबर 2017 को सभी जिलों के स्थानीय प्राधिकरणों और नगर निकायों की विकास प्राधिकरण से संबंधित शक्तियां लेते हुए 11 जिलों में जिला स्तरीय विकास प्राधिकरण गठित किए थे। हरिद्वार-रुड़की विकास प्राधिकरण (एचआरडीए) में हरिद्वार के क्षेत्रों को शामिल कर लिया गया था, जबकि मसूरी-देहरादून विकास प्राधिकरण (एमडीडीए) में दून घाटी विकास प्राधिकरण को निहित कर दिया गया था। इसमें स्पष्ट किया गया था कि सभी जिला विकास प्राधिकरणों में नेशनल हाईवे और स्टेट हाईवे के 200 मीटर दायरे में आने वाले सभी गांव, शहर शामिल होंगे। इनमें नक्शा पास करना अनिवार्य कर दिया गया था। बाद में तीरथ सरकार और फिर धामी सरकार ने सभी जिला विकास प्राधिकरणों को स्थगित कर दिया था।लेकिन जिस तरह जोशीमठ बेहिसाब निर्माण कार्यों की सजा भुगत रहा है उस तरह की घटना कहीं और दोबारा न हो उसके लिए निर्माण कार्यों की स्वीकृति देने के लिए विकास प्राधिकरण जैसे कदम बेहद जरूरी थे,त्रिवेंद्र सरकार में लिया गया ये फैसला निश्चित रूप से प्रदेश के लिए एक अहम कदम था,हलाकि जोशीमठ त्रासदी के बाद इसको निस्प्रभावी करने वाली धामी सरकार को फिर से इनको सक्रिय करने जा रही है,, अगर ये प्राधिकरण पहले से प्रदेश में लागू होता तो शायद जोशीमठ की तबाही को काफी हद तक रोका जा सकता था,,लेकिन जब पूरा शहर तबाह हो गया अब सरकार को फिर से इस प्राधिकरण की जरूरत मससूस होने लगी है…  

2024 का रण, भाजपा का डर!उत्तराखंड भाजपा के तीन सांसद अपनी स्तिथि को लेकर आश्वस्त नहीं !

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तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्माई चेहरे का असर फीका पड़ना शुरू हो गया है,? क्या अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा मुश्किल में पड़ गयी  है ? उत्तराखंड में भाजपा के तीन सांसद क्यों डेंजर जोन में खुद को पा रहे हैं? 

 

2014और 2019  में भाजपा ने मोदी के करिश्में से देश में प्रचंड बहुमत की सरकार केंद्र में बनाई,खुद भाजपा अपने दम पर बहुमत को पार कर अपने इतिहास की सबसे बड़ी जीत दर्ज करने में कामयाब हुई,मोदी के चेहरे पर ही भरोसा करते हुए उत्तराखंड की जनता ने लगातार दो बार विधानसभा और लोकसभा में भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया था, लेकिन 2024 आते आते अब भाजपा के लिए पहले जैसी स्तिथि नहीं रही हैं,,,
कई सर्वे और राजनैतिक विश्लेषक  ये बताते हैं कि आगामी चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं होने वाला है,और सिर्फ मोदी के नाम पर भाजपा हर चुनाव नहीं जीत सकती,अभी हाल ही में  वायरल हुए RSS का मध्य्प्रदेश को लेकर किये सर्वे में ये बात सामने आयी है,,,कांग्रेस ने इसका  जिक्र कर  मध्य्प्रदेश में वापसी की बात कह रही है, सर्वे में ये भी आरएसएस ने जिक्र किया है कि हर चुनाव मोदी के चहरे पर नहीं जीता जा सकता है,,  विपक्ष का लगातार एकजुट होना भी भाजपा के लिए खतरा बन रहा है,उसके ऊपर हिमांचल और कर्नाटक में बीजेपी की हार से ये साबित हो गया है कि मोदी का चेहरा भी भाजपा को हर राज्य में जीत नहीं दिला सकता।।।
उत्तराखंड में प्रचंड बहुमत की सरकार और पांचो लोकसभा सीट पर भाजपा  का कब्जा होने के बावजूद भी भाजपा के तीन सांसद अपनी स्तिथि को लेकर आश्वस्त नहीं है,और खुद को डेंजर जोन में पा रहे हैं, हाल ही में छपी एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है… रिपोर्ट के अनुसार  उत्तराखंड में भाजपा के तीन लोकसभा सांसद डेंजर जोन में बताए जा रहे हैं।   सासंदों को अपनी स्थिति पार्टी की अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। पार्टी के आंतरिक सर्वे में यह फीडबैक सामने आया है। जिसके  बाद पार्टी शीर्ष नेतृत्व की ओर से सांसदों को आगाह किया गया है।आंतरिक सर्वे में पार्टी के कुछ सांसदों की स्थिति ठीक नहीं पाई गई है। ऐसे में 2024 के चुनाव के लिए राज्य में कुछ चेहरे बदले जाने की चर्चा शुरू हो गई है। इस रिपोर्ट से साफ़ है कि उत्तराखंड में भी भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में खतरे में है,जिससे बचने के लिए इस बार प्रत्याशियों को बदला जा सकता है,,,
उत्तराखंड में भाजपा के लिए सबसे मुफीद सीट मानी जाती है पौड़ी लोकसभा सीट,जहां से इस समय पूर्व मुख़्यमंत्री तीरथ सिंह रावत सांसद हैं,पौड़ी सीट भाजपा की सबसे मजबूत सीट मानी जाती है,सैनिक बाहुल सीट होने के साथ यहां से कई मुख़्यमंत्री भी यहां से रहे हैं लेकिन इस बार इस सीट पर भी भाजपा को कड़ी चुनौती कांग्रेस से मिल सकती है,अंकिता हत्याकांड के बाद यहां  के लोगों में सरकार के प्रति काफी गुस्सा दिखाई दिया,जिसका असर भी आने वाले चुनाव में देखने को मिल सकता है,ख़ासतौर पर महिला वोटर इस घटना से बेहद आक्रोशित है,,, 
हरिद्वार सीट में जिस तरह से विधान सभा में भाजपा को अपेक्षा के अनुरूप जीत नहीं मिली उससे हरिद्वार लोकसभा सीट भी भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है, यहां भी भाजपा के पूर्व मुख़्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक वर्तमान में सांसद है,लेकिन जिस तरह से हरिद्वार सीट पर धड़ेबाजी भाजपा में दिखाई देती है वो भी पार्टी  के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है,,,  कुल मिलाकर आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तराखंड में काफी संघर्ष करना पड़ सकता है, ये भी हो सकता है भाजपा कई नए प्रत्याशियों को मौका दे दे,लेकिन इस सब से भी क्या भाजपा की राह आसान हो पाएगी ये तो आने वाला वक्त बतायेगा ?

उत्तराखंड के पलायन और बेरोजगारी को लेकर मील का पत्थर साबित हो रही ये योजना 

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उत्तराखंड में होता पलायन जिसकी सबसे बड़ी वजह है बेरोजगारी, उत्तराखंड में कई योजनाओं को लागू कर पहाड़ों में रोजगार पैदा करने की कोशिश की जा रही है, जिससे पलायन को रोका जा सके, आज के वीडियो में बात एक ऐसी ही योजना की करेंगे जो उत्तराखंड के कई बेरोजगार युवाओं के लिए वरदान साबित हुई, इस योजना के कारण कई युवाओं ने न केवल रिवर्स पलायन किया बल्कि आज खुद के साथ कई अन्य के रोजगार का माध्यम बने हैं,,,, उत्तराखंड के खाली होते गावों और छोटे शहरों में रहने वाली युवा पीढ़ी रोजगार की चाह में लगातार महानगरों की तरफ रुख करने को मजबूर हैं, जिस कारण पहाड़ और छोटे शहरों में लगातार पलायन होता जा रहा है,खासतौर पर युवाओं का प्रदेश छोड़कर जाना एक अच्छा संकेत नहीं है,,,

 

उत्तराखंड की सरकारों ने समय-समय पर कई योजनाओ को लागू किया है जिससे युवाओं को प्रदेश में ही रोजगार मिल पाए और पलायन थम सके, इन योजनाओ में सबसे कामयाब योजना रही होम स्टे योजना, जिसका असर आज धरातल पर दिख रहा है, इस योजना से जुड़े कई युवा न केवल वापस अपने गांव या शहर लौटे बल्कि आज खुद के रोजगार के साथ अन्य को भी रोजगार दे रहे हैं साथ ही उत्तराखंड पर्यटन उद्योग को भी खूब पंख लगा रहे हैं, उत्तराखंड में होमस्टे योजना का श्रेय पूर्व की त्रिवेंद्र रावत सरकार को जाता है,

उत्तराखंड में होमस्टे योजना की शुरुआत 20 अप्रैल 2018 को सीमावर्ती जनपद पिथौरागढ़ से पूर्व मुख़्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने की थी, इस योजना का मुख्य मकसद युवाओं को रोजगार देना और पलायन को रोकना था लेकिन देश में कोरोना काल के बाद अपने घर वापस लौटे बेरोजगार युवाओं के लिए ये रोजगार का एक अहम कदम साबित हुआ,कई युवाओं ने इस योजना के जरिये रोजगार शुरू किया,और अब तो ये योजना प्रदेश के युवाओं के लिए एक वरदान साबित हो रही है,इस योजना के लिए हर साल बड़ी संख्या में आवेदन हो रहे हैं,जबकि अब तक प्रदेश में हजारों होमस्टे संचालित हो रहे हैं,,,

पर्वतीय जिलों में होम स्टे से जुड़कर यहां के स्थानीय युवा स्वरोजगार को अपनाने के साथ ही पर्यटकों को उचित सेवा भी दे रहे हैं, जिससे उत्तराखंड के दुर्गम इलाकों के लोगों की आजीविका पर सुधार आया है और सीजन में स्थानीय लोग अच्छा रोजगार कमा रहे हैं. युवाओं को स्वरोजगार से जोड़ने और पहाड़ के गांवों से हो रहे पलायन को थामने के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा होम स्टे योजना की शुरुआत की गयी थी, जिसमें पर्यटक स्थलों में स्थानीय लोग अपने ही घरों में देश-विदेश के पर्यटकों के लिए ग्रामीण परिवेश में साफ व किफायती आवास की सुविधा उपलब्ध करा सकते हैं. यहां पर पर्यटकों को स्थानीय व्यंजन परोसने के साथ ही उन्हें यहां की सभ्यता व संस्कृति से भी परिचित कराया जा रहा है, जो पर्यटक खूब पसंद कर रहे हैं.

 

होम स्टे योजना की अब तक की तस्वीर देखें, तो वित्तीय वर्ष 2018-19 में प्रदेश के सभी जिलों में 965 होम स्टे पंजीकृत हुए. आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2021-22 में यह आंकड़ा बढ़कर 3 हजार 964 पहुंच गया. पर्वतीय जिलों में भी ये आंकड़ा बढ़ा है, बात अगर पिथौरागढ़ जिले की करें जहां इस योजना की शुरुआत हुई थी , तो 2021-22 में 608 लोगों ने और 2022-23 में 103 लोगों ने अपने घरों को होम स्टे में बदलने के लिए पर्यटन विभाग में पंजीकृत किया, जिसमें सबसे ज्यादा धारचूला में 423 लोग अपना पंजीकरण करा चुके हैं. धारचूला सीमांत जिले का उच्च हिमालयी क्षेत्र भी है, जहां की खूबसूरती का दीदार करने पर्यटक पहुंच रहे हैं. उनके रुकने की सुविधा यहां के गांवों में होम स्टे के रूप में विकसित हो रही है. इस योजना के माध्यम से सिर्फ साल 2020 में ही 5 हजार होमस्टे विकसित किए गए थे। इससे प्रदेश में रोजगार के अवसर को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है और लोगों को कामकाज या कारोबार के लिए दूसरे राज्य में पलायन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

 

टूट जाएगा गरीब बच्चों की पढ़ाई का सपना ? “शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के आगे घुटने टेकती सरकार”

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कुछ समय पहले  धामी कैबिनेट ने शिक्षा को लेकर एक फैसला किया इस फैसले से जहां छात्र फेल होने से बच पाएंगे,साथ ही मेधावी छात्रों के लिए छात्रवृति देने का प्रस्ताव भी पास किया है,लेकिन इससे बड़ी एक और चीज शिक्षा के लिए जरूरी है जहां ध्यान देना सबसे अधिक जरूरी है और वो है प्रदेश की शिक्षा के बुनियादी ढांचे को सुधारना जिसको शायद प्रदेश के मुख़्यमंत्री और शिक्षा मंत्री भूल चुकें हैं। ..आज हम आपको इस से जुड़ी पूरी रिपोर्ट बताते है।इस प्रदेश के शिक्षा से जुड़ें कुछ ऐसे तथ्यों को आपके सामने रखेंगे जो आपके पैरों से जमीन खिसखा देंगे, खासतौर पर मध्यमवर्गीय उन अभिवाहकों जो अपना पेट काटकर अपने बच्चों के भविष्य सवारने में जुटे है,आज की रिपोर्ट में आपको बताएंगे कि किस तरह शिक्षा जिसको सबका अधिकार माना जाता है उसको हासिल करना धीरे-धीरे गरीब और मध्यम वर्ग के लिए मुश्किल हो रहा है, आज बात उत्तराखंड की शिक्षा से जुड़ें उन  अहम बिंदुओं पर जिनका अभी असर ही सही लेकिन आने वाले समय में अगर ऐसा ही चलता रहा तो लगभग प्रदेश के अधिकतर लोगों पर पड़ने वाला है.

 

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उत्तराखंड में स्कूलों की छात्रसंख्या बढ़ाना हमेशा शिक्षा विभाग के लिए एक बड़ी चुनौती रहा है. अब महकमे ने शायद इस मामले पर हाथ खड़े कर लिये हैं. शायद इसीलिए राज्य के 3000 स्कूलों को जल्द ही बंद करने की तैयारी की जा रही है. यह वह स्कूल है जहां पर लगातार छात्र संख्या कम हुई है. बेहद कम छात्र संख्या के चलते यह स्कूल अब शिक्षा विभाग को बोझ लगने लगे हैं. उत्तराखंड शिक्षा विभाग में करोड़ों का बजट और लोक लुभावनी स्कीम भी सरकारी स्कूलों में बच्चों को लाने के लिए नहीं लुभा पा रही है.पर्वतीय क्षेत्रों में 5 और मैदानी क्षेत्रों में 10 या इससे कम छात्र संख्या वाले स्कूलों को बंद कर इन स्कूलों के बच्चों को नजदीक के उत्कृष्ट स्कूलों में भेजा जाएगा. राज्य में 10 या इससे कम छात्र संख्या वाले करीब तीन हजार स्कूल हैं.

सवाल ये उठता है कि आखिर ये नौबत आ क्यो गयी,आखिर क्यों सरकारी स्कूलों से लोगों का मोह भंग हो रहा है ? उत्तराखंड में हर साल औसतन 41 नए स्कूल खुल रहे हैं ये आंकड़ा देख लगता है कि प्रदेश की शिक्षा अच्छे ढर्रे की ओर जा रही है लेकिन अगले ही आंकड़े पर नजर पड़ते ही कई सवाल पैदा हो जाते हैं,41 नए स्कूल खुलने के साथ ही उसके दोगुने से ज्यादा बंद भी हो रहे हैं ये भी सालाना औसत लगाएं तो 112  विद्यालय बंद भी हो रहे हैं

 

इनफार्मेशन सिस्टम  एजुकेशन प्लस (UDISE+) 2019-20 में उपलब्ध जानकारी के अनुसार उत्तराखंड राज्य मेंकक्षा 1 से 12 तक के कुल 16,741 सरकारी स्कूल हैं। यदि इन स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की बात करें तो उत्तराखंड राज्य में मात्र 6.4% स्कूलों में सुचारू रूप से इंटरनेट कनेक्शन है, मात्र 22.26%स्कूलों में सुचारु रूप से कंप्यूटर की सुविधा है,और 20% से भी ज्यादा ऐसे स्कूल हैं जहां सुचारु रूप से बिजली कनेक्शन नहीं है।

इन सभी सुविधाओं के अतिरिक्त राज्य में अभी भी 10% से ज़्यादा स्कूल ऐसे हैं जहां पीने के पानी की सुविधा नहीं है, 13% स्कूलों में लड़कों के लिये और 12% स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं है, इन सभी आंकड़ों के अतरिक्त वर्ष 2018 में आयी एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) बताती है कि राज्य में 19.7% ऐसे प्राथमिक विद्यालय हैं जहां पर खेल का मैदान नहीं है।

शिक्षा क्षेत्र के लिए प्रकाशित होने वाली अधिकांश रिपोर्ट उत्तराखंडके स्कूलों की बदहाल स्थिति की ओर इशारा करती हैं। दिसम्बर 2021 में प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद की ओर से जारी की गयी फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमरेसी इंडेक्स की रिपोर्ट उत्तराखंड राज्य में स्कूली शिक्षा की बदहाली को उजागर करती है,यह रिपोर्ट बताती है कि राज्य में मात्र 8% प्राथमिक स्कूल ही हैं जहां कंप्यूटर की सुविधा उपलब्ध हैं।दस साल से कम उम्र के बच्चों में साक्षरता दर को बताने वाली इस रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड राज्य ने शिक्षा के आधारभूत ढांचे में 64.89%, शैक्षणिक सुविधा की पहुंच में 39.94%, बेसिक हेल्थ में 64.44%, लर्निंग,आउटकम में 82.12% और गवर्नेंस में 44.6% अंक प्राप्त किये।

देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस राज्य बनने से अब तक बारी-बारी से सरकारें चला  चुकी हैं, लेकिन राज्य के सरकारी स्कूल आज भी बुनियादी सुविधाओं से कोसो दूर हैं।आज भी चुनाव के समय अच्छीशिक्षा के लिए जनता से वादे तो किये जाते हैं लेकिन राज्य के विद्यालयों की स्थिति के आंकड़े बताते हैं कि सरकारी स्कूलों पर कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया जा रहा है जिसके चलते विद्यार्थिओं का नामांकन कम हो रहा है, और अंत में कम नामांकन के चलते स्कूल बंद कर दिया जाता है।

2012-13 में उत्तराखंड में कुल 12,499 राजकीय प्राथमिक विद्यालय और 2,805 राजकीय माध्यमिक विद्यालय थे जिनकी संख्या वर्ष 2019-20 तक घटकर क्रमशः 11,653 और 2,608 हो गयी। यदि जिलेवार इनकी संख्या देखें तो अल्मोड़ा में 130, बागेश्वर में 39, चमोली में 49, चम्पावत में 28, देहरादून में 57, हरिद्वार में 10, नैनीताल में 17, पिथौरागगढ़ में 130, रूद्रप्रयाग में 41 और टिहरी गढ़वाल में 180 सरकारी प्राथमिक विद्यालय पिछले 10 वर्षों में बंद हो चुके हैं।इस ही के विपरीत, मैदानी और पर्वतीय सभी जिलों में पिछले 10 सालों में निजी स्कूलों में बढ़ोतरी हुई है|

अभिभावकों का मानना है कि शिक्षा के लिए ज़रूरी सुविधाएँ जैसे कंप्यूटर, शिक्षकों की उचित संख्या, पीने के पानी की उपलब्धता, आदि सरकारी स्कूल की तुलना में निजी स्कूलों ज़्यादा अच्छी होती हैं।अगर सरकारी स्कूलों में भी अच्छी सुविधाएं सरकार उपलब्ध कराये तो हम या कोई भी व्यक्ति प्राइवेट स्कूलों में इतनी ज़्यादा फीस क्यों देना चाहेगा ?

निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार प्रत्येक विद्यालय के लिए कुछ मानक निश्चित किये गये हैं। इन मानकों के अनुसार प्रत्येक विद्यालय के भवन में शिक्षकों के लिए एक कक्ष, बाधा मुक्त पहुंच, लड़के और लड़कियों के लिए अलग शौचालय, विद्यार्थिओं के लिए पर्याप्त और स्वच्छ पेयजल व्यवस्था, जिन विद्यालयों में मध्याह्न भोजन पकाया जाता है वहां रसोई; और एक खेल का मैदान का होना अनिवार्य है।

आज सरकार का रुझान निजीकरण की ओर बढ़ता जा रहा है,सरकारी तंत्र के पास साधन तो है लेकिन जनता के लिए काम करने की मंशा नहीं है इसी कारण आज सरकारी स्कूलों में अच्छे भवन तो हैं लेकिन जरुरी सुविधाएं नहीं हैं, उत्तराखंड राज्य में विद्यालयों की स्थिति के आंकड़े दिखाते हैं कि सरकारी स्कूलों पर कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया जा रहा है जिसके चलते विद्यार्थियों का नामांकन कम हो रहा है, और अंत में कम नामांकन के चलते स्कूल बंद कर दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर राज्य में प्राइवेट स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (UDISE+) पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार साल 2012-13 से लेकर साल 2019-20 तक प्रदेश में 846 राजकीय प्राथमिक विद्यालय और 197 राजकीय माध्यमिक विद्यालय बंद हो चुके हैं।लेकिन, इस दौरान निजी प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों में काफी वृद्धि हुई है।साल 2012-13 में इन स्कूलों की संख्या 776 थी लेकिन साल 2019-20 में यह लगभग 280% बढ़कर 2197 हो गयी।

 

वहीं दूसरी ओर सरकार के द्वारा आरटीई के तहत निजी स्कूलों में एडमिशन को प्राथमिकता दी जा रही है,उत्तराखंड जैसे राज्य के लिए निजी स्कूलों में सीट आरक्षित करने से ज़्यादा बेहतर है कि सरकार अपने सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाये। इस समय राज्य के निजी स्कूलों में करीब 90 हजार बच्चे आरटीई के तहत शिक्षा ले रहे हैंजिसका पिछले कुछ सालो में कुल खर्च 126 करोड़ रुपये तक आ चुका है। जो रुपये सरकार के द्वारा आरटीई के तहत निजी स्कूलों को दिये जा रहे हैं उनको सरकारी स्कूलों में जरुरी सुविधाओ को बेहतर बनाने के लिए खर्च किया जा सकता है। आज अधिकांश अभिभावक ना चाहते हुए भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने को मजबूर हैं। इन अभिभावकों से बात करने परमालूम होता है कि यदि सरकारी स्कूलों में अच्छी सुविधाएँ मिलें तो ये लोग भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ना चाहेंगे। क्योंकि आज मंहगाई के इस दौर में निजी स्कूलों में भारी भरकम फ़ीस देना बहुत मुश्किल होता है।

इतना ही नहीं अब सरकार की नाकामी का इससे बड़ा क्या सबूत हो सकता है  कि उत्तराखंड में सरकारी स्कूलों पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद हालत में सुधार नहीं हुआ तो इन्हे गोद देने की तैयारी की जा रही है। सामर्थ्यवान सरकारी स्कूलों को गोद लेकर इनमें उचित संसाधन मुहैया कराएंगे। यही नहीं वह अपने माता-पिता या किसी अन्य स्वजन के नाम पर इन स्कूलों का नामकरण भी कर सकेंगे।शिक्षा विभाग की ओर से इसके लिए नीति बनाई जा रही है।गोद लेने वाले व्यक्ति के माता-पिता या किसी अन्य के नाम पर स्कूल का नामकरण किया जाएगा। इसके बदले संबंधित को स्कूल पर आने वाले कुछ खर्च वहन करने होंगे। विभाग की ओर से इसके लिए प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है,जिसे कैबिनेट में लाया जाएगा।ये हालात तब हैं जब 1100 करोड़ रुपये हर साल केंद्र सरकार की ओर से समग्र शिक्षा अभियान के तहत दिए जा रहे हैं।

शिक्षा का अधिकार कानून प्रत्येक बच्चे तक शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए लाया गया था, अब अगर इस तरह सरकारी स्कूल बंद किए जाएंगे तो एक बड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित रह जाएगा, जिसकी जिम्मेदारी आखिर  लेगा कौन? क्योकि कोई भी सरकार इस मुद्दे पर गंभीर नजर नहीं आती,  शिक्षा का होता निजीकरण एक दिन प्रदेश के अभिवाहकों को बड़ी मुश्किल में डालने वाला है, बंद होते सरकारी स्कुल और बढ़ते प्राइवेट विद्यालय के दौर में वो समय ज्यादा दूर नहीं जब जनता के पास कोई विकल्प नहीं बचेगा और फिर वो  समय भी जल्द आ सकता है जब निजी स्कूलों के आगे सरकारों  को भी घुटने टेकने पड़ेंगे,तो फिर आम आदमी की क्या बिसात जो  टिक पाये ।

कश्मीर में फिर लागू होगा ‘अनुच्छेद 370’ !

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क्या जम्मू कश्मीर में फिर से लागू होगा अनुच्छेद-370, तीन साल बाद आखिर ऐसा क्या हुआ जो फिर से इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो गयी है ? आपको इसकी पूरी कहानी बताएंगे और इस पर कानून के जानकारों की क्या राय है वो भी आपके सामने रखेंगे,,,नमस्कार आपके साथ  मै हूँ मनीषा …  2019 में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया गया था। तीन साल बाद इस अनुच्छेद की चर्चा फिर से शुरू हो गई है। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। कोर्ट में अनुच्छेद-370 हटाने को चुनौती दी गई है। इससे जुड़ी 20 से ज्यादा याचिकाएं कोर्ट में हैं और सभी पर 11 जुलाई को सुनवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रेस रिलीज जारी करके बताया कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई में पांच जजों की बेंच इस मामले को सुनेगी। इस बेंच में जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत होंगे।
 
 

 

कोर्ट में मामला पहुंचते ही  अनुच्छेद-370 को लेकर बयानबाजी तेज हो गई है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या फिर से जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 लागू हो सकता है? आपको बता दें कि पांच अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया था। यह कानून जम्मू-कश्मीर में बीते करीब सात दशक से चला आ रहा था।  दरअसल, अक्तूबर 1947 में, कश्मीर के तत्कालीन महाराजा, हरि सिंह ने भारत के साथ एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसमें कहा गया कि तीन विषयों के आधार पर यानी विदेश मामले, रक्षा और संचार पर जम्मू और कश्मीर भारत सरकार को अपनी शक्ति हस्तांतरित करेगा।

 
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इतिहासकार के मुताबिक , ‘मार्च 1948 में, महाराजा ने शेख अब्दुल्ला के साथ प्रधानमंत्री के रूप में राज्य में एक अंतरिम सरकार नियुक्त की। जुलाई 1949 में, शेख अब्दुल्ला और तीन अन्य सहयोगी भारतीय संविधान सभा में शामिल हुए और जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति पर बातचीत की गई , जिसके बाद अनुच्छेद-370 को अपनाया गया।’इस अनुच्छेद में प्रावधान किया गया कि रक्षा, विदेश, वित्त और संचार मामलों को छोड़कर भारतीय संसद को राज्य में किसी भी कानून को  लागू करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होगी।  इसके चलते जम्मू और कश्मीर के निवासियों की नागरिकता, संपत्ति के स्वामित्व और मौलिक अधिकारों का कानून शेष भारत में रहने वाले निवासियों से अलग था। अनुच्छेद-370 के तहत, अन्य राज्यों के नागरिक जम्मू-कश्मीर में संपत्ति नहीं खरीद सकते थे। अनुच्छेद-370 के तहत, केंद्र को राज्य में वित्तीय आपातकाल घोषित करने की शक्ति नहीं थी।  अनुच्छेद-370 (1) (सी) में उल्लेख किया गया था कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1   अनुच्छेद-370 के माध्यम से कश्मीर पर लागू होता है। अनुच्छेद 1 संघ के राज्यों को सूचीबद्ध करता है। इसका मतलब है कि यह अनुच्छेद-370 है जो जम्मू-कश्मीर राज्य को भारतीय संघ से जोड़ता है।  
 

जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 3 में कहा गया था कि जम्मू और कश्मीर राज्य भारत संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा। अनुच्छेद 5 में कहा गया कि राज्य की कार्यपालिका और विधायी शक्ति उन सभी मामलों तक फैली हुई है, जिनके संबंध में संसद को भारत के संविधान के प्रावधानों के तहत राज्य के लिए कानून बनाने की शक्ति है।
जम्मू-कश्मीर का संविधान 17 नवंबर 1956 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1957 को लागू हुआ था। पांच अगस्त 2019 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी जम्मू और कश्मीर के लिए आवेदन आदेश, 2019 (सीओ 272) द्वारा जम्मू और कश्मीर के संविधान को निष्प्रभावी बना दिया गया था।
 
 
 
2019 में जब अनुच्छेद-370 खत्म किया गया था, तब पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने कुछ हद तक स्थिति बिगाड़ने की कोशिश की थी। घुसपैठ के जरिए हिंसा कराने की खूब कोशिश हुई, लेकिन सुरक्षाबलों ने सभी को नाकाम कर दिया गया। केंद्र सरकार ने विशेष तौर पर जम्मू कश्मीर के विकास पर फोकस करना शुरू कर दिया। अब हर बजट में जम्मू कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान किए जाते हैं, ताकि यहां के लोगों को मुख्य धारा से जोड़ा जा सके। अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब जम्मू-कश्मीर संयुक्त राष्ट्र के दागी लिस्ट से बाहर हुआ। 
 
 

अब सवाल ये उठता है कि क्या कोर्ट इस फैसले को पलट सकता है, और अनुच्छेद-370 दोबारा वापस लागू हो सकता है ? 
इसे समझने के लिए हम आपको कानून के जानकारों का मत बताते हैं,,,  कानून के जानकार कहते हैं  कि  ‘अनुच्छेद-370 पूरी तरह से कानूनी तौर पर हटाया गया है। संसद की दोनों सदनों से इस प्रस्ताव को पास किया जा चुका है। राष्ट्रपति भी इसे मंजूरी दे चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट कानूनी पहलुओं पर जरूर चर्चा कर सकती है, लेकिन इसे फिर से लागू करना मुश्किल है। संसद का काम कानून बनाना होता है और न्यापालिका का काम उस कानून का पालन करते हुए न्याय दिलाना है।