Day: August 7, 2023

2014 में जो मोदी के साथ हुआ, अब वही राहुल गांधी के साथ भी हो रहा है !

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देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ‘मोदी सरनेम’ मामले में राहत देते हुए उनकी सजा पर रोक लगा दी थी, अब लोकसभा सचिवालय की ओर से राहुल गांधी की सदस्यता बहाल होने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपने ट्विटर अकाउंट से ‘अयोग्य सांसद’ से ‘संसद के सदस्य’ के रूप में अपडेट कर दिया है.  सदस्यता  बहाल होने के बाद राहुल गांधी संसद पहुंचे. संसद पहुंचते ही उन्होंने सबसे पहले गांधी प्रतिमा को नमन किया. लेकिन सदन में राहुल की एंट्री के साथ ही भाजपा ने फिर से उनको निशाने पर लेना शुरू कर दिया है, संसद में राहुल गांधी की वापसी पर बीजेपी नेता सुशील मोदी ने बड़ा बयान दिया है. उन्होंने कहा कि राहुल की वापसी से कांग्रेसी भले ही खुश हो रही हों लेकिन उनके सहयोगी दुखी हैं. शरद पवार, ममता बनर्जी और नीतीश कुमार।

 

 
 
क्यों की गई थी राहुल गांधी की सदस्यता रद्द- 
 
इसी साल 23 मार्च को राहुल गांधी को साल 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान कर्नाटक के कोलार में दिए गए भाषण को लेकर सूरत की अदालत ने दो साल की सज़ा सुनाई थी. उस आदेश के ठीक अगले ही दिन लोकसभा सचिवालय ने इस मामले में संज्ञान लेते हुए राहुल गांधी की सदस्यता रद्द कर दी थी.’मोदी सरनेम’ को लेकर मानहानि का दावा कोई पहला मामला नहीं है जब राहुल गांधी को लेकर भारतीय जनता पार्टी इतनी हमलावर हुई हो. इस पर सत्तारूढ़ बीजेपी के नेता राकेश सिन्हा ने कहा था कि राहुल गांधी पश्चिमी देशों की ताक़तों के साथ मिलकर भारत की एकता, संप्रभुता की अवहेलना कर रहे हैं. इसी साल जून में राहुल गांधी अमेरिका के दौरे पर थे और राजधानी वाशिंगटन डीसी में उन्होंने कहा था कि “भारत में लोकतंत्र के लिए लड़ाई लड़ना हमारा काम है.”उस दौरान उन्होंने वहां बसे भारतीयों से भारत वापस आने का अनुरोध करते हुए लोकतंत्र के साथ भारतीय संविधान की रक्षा में खड़े होने का आह्वान भी किया था. इससे कुछ महीने पहले राहुल गांधी की ब्रिटेन यात्रा को लेकर भी भारत में बहुत बवाल हुआ था. बीजेपी ने तब राहुल गांधी पर आरोप लगाया था कि उन्होंने विदेशी धरती पर भारतीय लोकतंत्र का अपमान किया है. हालांकि राहुल और पार्टी दोनों ने उस आरोप का खंडन किया था।

कई नेताओं के राहुल गांधी पर आरोप-

बीजेपी नेता मुख्तार अब्बास नक़वी ने तब कहा था, “राहुल गांधी विदेश में जा कर ये कहते हैं कि देश में प्रजातंत्र नहीं है.  नकवी ने कहा कि अगर देश में प्रजातंत्र न होता तो यहां का कोई नेता विदेश में जाकर भारत को, भारत के लोकतंत्र को, भारत में लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए नेता को, इस तरह के अपशब्द और दुष्प्रचार की भाषा बोल सकता था क्या ? “उस दौरे के बाद जून में ही स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी के अमेरिकी दौरे को लेकर राहुल गांधी पर बड़ा आरोप लगाया. उन्होंने बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की. उस दौरान उन्होंने एक तस्वीर दिखाई और बोलीं, “राहुल गांधी के अमेरिकी दौरे की इस तस्वीर में जो महिला सुनीता विश्वनाथन साथ बैठी हैं उनके जॉर्ज सोरोस के साथ संबंध हैं. यह पहले भी सामने आ चुका है कि जॉर्ज सोरोस भारत के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं.” स्मृति ईरानी ने यह भी दावा किया कि जॉर्ज सोरोस के संस्थान से जुड़े एक व्यक्ति का राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से संबंध भी था. साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि “राहुल गांधी उनसे क्या बात कर रहे थे उन्हें इसकी जानकारी देश को देनी चाहिए.”अब जब सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी की दो साल की सजा पर रोक लगा दी है तो बीजेपी की ओर से तो कोई प्रतिक्रिया नहीं आई लेकिन निरहुआ के नाम से प्रसिद्ध आजमगढ़ से बीजेपी के सांसद दिनेश लाल यादव ने कहा कि राहुल गांधी को संसद में आ कर माफी मांगनी चाहिए।

क्या कहते हैं वरिष्ट पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक- 

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक बताते  हैं,कि  “जिस तरह से राहुल गांधी की सदस्यता गई उससे जमीनी स्तर पर लोगों को अच्छा नहीं लगा. विपक्ष के नेताओं पर ईडी का उपयोग किया गया उससे आम  लोग उतने परेशान नहीं थे लेकिन राहुल गांधी के मामले में ये कहा जा रहा था कि देखो उन्हें संसद तक से निकाल दिया गया. “ये कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बीजेपी ने ही राहुल गांधी को देश का हीरो बना दिया है. पहले उनको पप्पू-पप्पू कह कर नीचा दिखाते थे. कहते थे कि अगर राहुल गांधी कांग्रेस प्रचारक हैं तो यह हमारे लिए बहुत आशादायक है. कांग्रेस का नेतृत्व राहुल करेंगे तो फिर जीवन भर बीजेपी जीतती रहेगी. राहुल गांधी को हीन भाव से टैग किया करते थे.”लेकिन राहुल गांधी ने इन सभी चीज़ों का जवाब अपनी भारत जोड़ो यात्रा से दे दिया. उन्होंने बता दिया कि वो गंभीर राजनीति करना चाहते हैं,  और कर भी रहे हैं. उनमें मेहनत करने की ताकत है और देश के लोग उनसे प्यार करते हैं.””ठीक ऐसा ही 2014 के चुनाव के दौरान हुआ था, उस समय कांग्रेस के कई नेताओं ने मोदी को लेकर ऐसे बयान दिए थे जिससे मोदी को ही फायदा पहुंचा,,आज वही बीजेपी राहुल के साथ दोहरा रही है,,राजनीतिक जानकार  कहते हैं, कि “राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के तुरंत बाद लोकसभा में हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर सरकार को जिस आक्रामकता से घेरा उससे एक बात तो समझ में आ गई कि आने वाले समय में बीजेपी के आगे एक सबसे बड़ी चुनौती राहुल गांधी के रूप में होगी.””मोदी शब्द को लेकर राहुल गांधी के कोलार में दिए गए वक्तव्य पर चार साल बाद सज़ा दी गई. उन्हें अधिकतम दो वर्ष की सज़ा दी गई थी. इससे उनकी संसद की सदस्यता चली गई. इस घटना ने उनके राजनीतिक भविष्य पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया था. इस मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने जो टिप्पणी की वो राज्य स्तर की जूडिशियरी पर गंभीर चीज़ों को रेखांकित करती है।

 

क्या कहा वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने- 

लोकसभा में वापसी पर वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, कि “लोकसभा की सदस्यता वापस होने की स्थिति में राहुल गांधी फिर केंद्रीय भूमिका में होंगे. लेकिन इससे विपक्ष के नए गठबंधन ‘इंडिया’ में कुछ उथल-पुथल हो सकती है. हां वो विपक्ष के केंद्र बिंदु ज़रूर होंगे क्योंकि सवाल उन पर होंगे और उनसे ही पूछे जाएंगे. बीजेपी उनको फिर खारिज करेगी, उन पर हमला करेगी. तो कांग्रेस उनका सामने आकर राहुल का समर्थन करेगी.  ऐसी स्थिति में वो केंद्र बिंदु तो बनेंगे ही बनेंगे।

 


 प्रधानमंत्री विपक्ष के नए गठबंधन को लेकर चिंतित-

अब अगर अविश्वास प्रस्ताव से पहले राहुल गांधी संसद में वापस आए हैं तो उसी आक्रामकता के साथ वो अपनी बातें रखेंगे क्योंकि वो मणिपुर हो कर आए हैं. वहां की स्थिति को देख कर आए हैं.””ऐसी स्थिति में 2024 के चुनाव को जीतकर सत्ता में वापसी करने की राह में राहुल गांधी बीजेपी की राह का सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकते हैं “”बीजेपी लगातार राहुल गांधी को डिसक्रेडिट करने का प्रयास करती रही है. वो जितना राहुल गांधी को डिसक्रेडिट करने की कोशिश करती है, उनकी स्वीकार्यता उतनी ही बढ़ रही है. ठीक 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी के साथ हुआ था… बीजेपी की स्वीकार्यता पर सवाल उठ रहे हैं. माना ये भी जा रहा है कि प्रधानमंत्री विपक्ष के नए गठबंधन को लेकर चिंतित हैं जब भी एनडीए की बात करते हैं तो विपक्ष के नए गठबंधन ‘इंडिया’ पर भड़कते जरुर हैं.” जिस इंडिया शब्द को लेकर कभी वो गर्व से कहते आए है की वोट फॉर इंडिया, वोट फॉर इंडिया अब उसी इंडिया को लेकर प्रधानमंत्री अपने बयानों में तुलना करते दिखाई देते हैं।

 

 


क्या कहा अशोक वानखेड़े ने- 
वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेड़े ज़ोर देकर कहते हैं, “राहुल गांधी कभी ‘पप्पू’ नहीं थे. ये बनाए गए थे. इसमें जहां बीजेपी का हाथ था वहीं कांग्रेस के नेताओं का भी हाथ था. कांग्रेसियों का ज़्यादा था.””अशोक वानखेड़े मानते हैं आज जब हिंडनबर्ग और मणिपुर जैसे मुद्दे सामने हैं तो ये भी पूछा जा रहा है कि क्या नोटबंदी, जीएसटी, चीन, कोविड, महंगाई, किसानों पर लाए गए तीन बिल, मणिपुर पर उठाए गए सवाल क्या ग़लत थे. ये सभी सवाल बाद में विकराल रूप लेकर सामने आये हैं .”वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेड़े ये भी बताते हैं कि “राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद को ठुकराया है. इसके बाद भी उन पर परिवारवाद का टैग लगता है, क्योंकि बीजेपी के तरकश में अब कोई तीर बचा नहीं. वर्तमान में जब आपके पास बताने के लिए कुछ बचा ही नहीं तो भविष्य की जीत के लिए  उसी पुराने परिवारवाद, नेहरू की बात कर के इतिहास के पीछे छुपते हैं. यही बीजेपी करती आ रही है।

 

क्या कहा नीरजा चौधरी ने- 

देश में इस साल कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. उसमें कांग्रेस और बीजेपी की स्थिति फिलहाल कैसी दिखती है.सीनियर पत्रकार और राजनीतिक जानकर नीरजा चौधरी कहती हैं,अगर ये दिखा कि राहुल गांधी जैसे ही कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका में आएंगे नए गठबंधन ‘इंडिया’ की कमजोरी या कहें डर सामने आ जाएगा. पटना में जो मीटिंग हुई थी उसमें मेरी जानकारी में आया कि राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने यह स्पष्ट कर दिया कि वो पूरी तरह सहयोग करेंगे. उसमें उन्होंने यह बता दिया कि ऐसा नहीं है कि मैं प्रधानमंत्री के पद का दावेदार होना चाहता हूं, ये चीज़ें नतीजे आने पर तय होती रहेंगी. उस दौरान उन्होंने अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को ही आगे रखा है. यह राहुल गांधी की तरफ से एक रोचक पहल रही है.”नीरजा चौधरी कहती हैं, “राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ज़रूर उत्साहित कर दिया है. लेकिन हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में कांग्रेस को मिली जीत को राहुल गांधी से नहीं जोड़ सकते. वहां मिली जीत वहां के स्थानीय नेतृत्व की वजह से हुई।

क्या कहा अशोक वानखेड़े ने- 

इस पर अशोक वानखेड़े कहते हैं, कि”कांग्रेस इन विधानसभा चुनावों में ऊंचे मनोबल के साथ जा रही है. जब केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व मजबूत होगी तो निचले स्तर पर एकजुटता भी बढ़ेगी, जिसका अच्छा उदाहरण हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के चुनाव में देखने को मिला. आने वाले समय में ये देखेंगे कि तेलंगाना में कांग्रेस की सीटें क्या बढेगी ? वहीं मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी बैकफ़ुट पर दिखती है.”वानखेड़े बताते हैं  कि बीजेपी का संगठन कमज़ोर पड़ रहा है. उन्होंने कहा, “हर जगह ब्रांड मोदी मात खाते हुए दिखाई देता है. पन्ना प्रमुख तब काम करेंगे जब कार्यकर्ता साथ होगा. कार्यकर्ता हतोत्साहित हो रहा है. उनको लग रहा है कि उनके नेताओं की बेइज्जती हो रही है. केंद्र के कुछ लोग ही प्रदेश की सभी चीज़ें तय कर रहे हैं. इससे  बीजेपी को बहुत अधिक नुकसान होता दिख रहा है. तो वर्तमान परिस्थिति में बीजेपी आगामी चुनावों को जीतती हुई दिखाई दे नहीं रही है।
नीरजा चौधरी कहती हैं, “राज्यों में कांग्रेस की जीत वहां के स्थानीय नेतृत्व की वजह से मिलेगी. राजस्थान में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच एक समझौता करवा दिया है. मध्य प्रदेश में कमलनाथ हैं, वहां स्थानीय नेतृत्व मजबूत है. वहां इतने सालों की एंटी इनकम्बेंसी है.”अशोक वानखेड़े कहते हैं, “विधानसभा चुनाव पीएम नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा गया तो इसके जो भी नतीजे आएंगे उसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा. याद करें कि कर्नाटक में उन्होंने कहा था कि नब्बे गालियां मुझे दी जा रही हैं, जिसका बदला आपको लेना है. तो हार होने की स्थिति में यह उनकी हार है जिसका असर 2024 के चुनाव पर ज़रूर पड़ेगा।

क्या मोदी ही होंगे PM या कोई और करेगा NDA का नेतृत्व- 
नीरजा चौधरी भी इस बात से इत्तेफ़ाक रखती हैं कि अगर 2024 के चुनाव से पहले ‘इंडिया’ गठबंधन ने अपनी एकता दिखाई और सोच समझ कर उम्मीदवार उतारे तो उसका असर पड़ेगा.लेकिन साथ ही वो ये भी कहती हैं कि, “विपक्षी गठबंधन ने बहुत अच्छा प्रदर्शन भी किया तो बीजेपी की 60-70 सीटें कम हो जाएंगी..  हो सकता है उन्हें गठबंधन की सरकार बनानी पड़े लेकिन सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ही रहेगी. उन्होंने एनडीए में 38 दलों को इकट्ठा कर लिया है. हालांकि ऐसी स्थिति में सरकार तो बीजेपी बनाएगी लेकिन नेतृत्व पर सवाल उठ सकता है कि क्या मोदी ही प्रधानमंत्री होंगे या कोई और NDA का नेतृत्व करेगा।
 
 
 
 

संसद की कार्यवाही पर प्रति घंटे खर्च होते हैं करोड़ों रुपये, केवल 80 दिन ही होता है काम…

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क्या आपको ये पता है कि संसद में एक दिन सत्र को कराने में कितनी मोटी रकम खर्च होती है? हमारे और आपके द्वारा चुने गए नेताओं के संसद में शोर और हल्ला करने से देश की इकोनॉमी पर काफी असर पड़ रहा है,आप जान कर हैरान होंगे कि देश में रहने वाले टैक्सपेयर्स के  पैसों का नुकसान हर घंटे केवल संसद में नेताओं के हो-हल्ले के कारण हो रहा है।आप भी जानकर हैरान हो जाएंगे जब आपको संसद पर खर्च होने वाली रकम के बारे में पता चलेगा ? संसद की कार्यवाही पर कितना खर्च आता है.



क्या है मांनसून सत्र-

देश की संसद में 20 जुलाई से मानसून सत्र जारी है, जो 11 अगस्त, 2023 तक चलेगा।  मणिपुर मामले को लेकर दोनों ही सदनों में खूब हंगामा हो रहा है। इसी को देखते हुए पिछले कुछ समय से संसद में कामकाज को लेकर सवाल उठते रहे हैं। संसद में होने वाले हंगामे और बहिष्कार के बीच जो समय खराब होता है, इसको लेकर भी सवाल खड़े किए जाते है। सबसे पहले बताते हैं की क्या है संसद के मानसून सत्र का शेड्यूल? देश का मानसून सत्र  20 जुलाई, 2023 से शुरू हुआ और 11 अगस्त को यह खत्म होगा।इस दौरान संसद में हुए विरोध प्रदर्शन के कारण किसी भी मुद्दे पर ठीक से चर्चा नहीं हो पाई है।अब तक दोनों ही सदन लोकसभा और राज्यसभा हंगामेदार रहा।सुबह 11 बजे से संसद की कार्यवाही शुरू होती है, जो शाम 6 बजे तक चलती है। इस बीच सांसदों को लंच ब्रेक भी मिलता है, जो दोपहर 1 से 2 के बीच होता है।शानिवार और रविवार को छोड़ 5 दिन संसद की कार्यवाही जारी रहती है।अगर सत्र के दौरान कोई त्योहार पड़ जाए तो संसद का अवकाश माना जाता है। आपको ये भी बताते चलें कि संसद के तीन सत्र  होते हैं? पहला बजट सत्र जो फरवरी से लेकर मई,जबकि दूसरा मानसून सत्र जो चल रहा है ये जुलाई से अगस्त-सितंबर जबकि तीसरा सत्र शीत सत्र जो नवंबर से दिसंबर के बीच चलता है।

 
 
संसद की कार्यवाही पर इतना खर्च आता है- 

अब आपको बताते हैं कि संसद की कार्यवाही पर कितना खर्च आता है। संसद की प्रत्येक कार्यवाही पर करीब हर मिनट में ढाई लाख (2.5 लाख) रुपये खर्च का अनुमान है। आसान भाषा में समझें तो एक घंटे में डेढ़ करोड़ रुपये (1.5 करोड़) खर्च हो जाता है।संसद सत्र के 7 घंटों में एक घंटा लंच को हटाकर बचते है 6 घंटे।इन 6 घंटों में दोनों सदनों में केवल विरोध, हल्ला और शोर होता है, जिसके कारण हर मिनट में ढाई लाख रुपये बर्बाद हो रहे हैं।संसद में हंगामा होने के कारण आम आदमी का ढाई लाख रुपए हर मिनट बर्बाद होता है।

 

सांसदों को मिलने वाला वेतन- 

अब आपको बताते हैं कि ये पैसा कैसे खर्च होता है ? ये पैसा सांसदों के वेतन,संसद सचिवालय पर आने वाले खर्च,संसद सचिवालय के कर्मचारियों के वेतन।सत्र के दौरान सांसदों की सुविधाओं पर होने वाले खर्च के रूप में ये पैसे खर्च होते है।दरअसल संसद की कार्यवाही के लिए जो पैसे खर्च किए जाते हैं वो हमारी और आपकी कमाई का हिस्सा होता है।ये वहीं रकम होती है, जिसे हम टैक्स के रूप में भरते हैं। लोकसभा की आंकड़ों के मुताबिक, सांसदों को हर महीने 50,000 रुपये सैलरी दी जाती है। वहीं, निर्वाचन क्षेत्र भत्ता के रूप में सांसदों को 45,000 रुपये वेतन दिया जाता है।इसके अलावा सांसदों का कार्यालय खर्च भी होता है, जो 15,000 रुपये होता है।साथ ही सचिवीय सहायता के रूप में सांसदों को 30,000 रुपये दिए जाते हैं।इसका मतलब है कि सांसदों को प्रति माह 1.4 लाख रुपये सैलरी दी जाती है।सांसदों को सालभर में 34 हवाई यात्राओं का लाभ मिला हुआ है।सांसद ट्रेन और सड़क यात्रा के लिए सरकारी खजाने का इस्तेमाल कर सकते है।

इस पर क्‍या कहते हैं एक्‍सपर्ट-

लोकसभा के पूर्व सचिव एस के शर्मा से जब संसद में प्रतिदिन कुल खर्च को लेकर सवाल किया गया तो उन्होंने संसद की तुलना सफेद हाथी से की। उन्होंने कहा कि संसद सफेद हाथी है, जिसको पालना यानी कि चलाना एक अलग ही टास्‍क है। उन्होंने उदाहरण के तौर पर बताया कि संसद में पूछे जाने वाले एक सवाल के लिए लाखों टन पेपर प्रिंट होते हैं, जिन्‍हें अलग-अलग मंत्रालयों में भेजा जाता है। जिसके लिए प्रिंट करने के लिए कागज, स्‍याही, लोग, गाड़ी, पेट्रोल-डीजल से जैसे तमाम खर्चे होते हैं। आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि संसद की एक दिन की कार्यवाही में कितना पैसा खर्च होता है। आशा है अब अच्छी तरह समझ गए होंगे कि इस देश की संसद पर हर एक घण्टे में करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं और इसके बावजूद  संसद चल नहीं रही और इस देश की जनता का पैसा किस तरह इस देश के राजनेता उड़ा रहे हैं।

इस कारण आ रही केदारघाटी में आपदाएं, विशेषज्ञों की सलाह दरकिनार…

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केदारनाथ के गौरीकुंड में हुए हादसे ने एक बार फिर कई सवालों को जन्म दे दिया है,केदारघाटी में जिस तरह लगातार गतिविधियां बढ़ रही है वो कहीं न कहीं इस पूरी घाटी के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर रही हैं,वैज्ञानिकों और वाडिया संस्थान के शोध बताते हैं कि पूरी केदारघाटी एक सेंसटिव जॉन में बसी है, यहां  अत्यधिक मानवीय गतिविधियां इस पूरी घाटी के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर रही हैं ?

 
 
आज भी कई गांव मौत के मुहाने पर खड़े- 

मैं केदारनाथ बोल रहा हूं… आज से 10 साल पहले मेरे आंगन में एक आपदा आई थी. जिसका जिम्मेदार भी मुझे ही ठहराया गया था. लेकिन ये मेरी मर्जी नहीं थी. मुझे तो एकांत चाहिए. सालों से मेरे दिल पर पत्थर तोड़े जा रहे हैं. मेरा घर हिमालय है. जिसे इंसान अपने फायदे के लिए लगातार तोड़ रहा है. मैं चुप हूं. कुछ कर नहीं पा रहा हूं, लेकिन मेरे घर को तोड़कर इसे कमाई का जरिया बनाने वाले इन इंसानों को जरा भी आभास नहीं है कि ऐसा करना न सिर्फ मेरे लिए बल्कि मेरे अंदर रह रहे लाखों लोगों के लिए विनाशकारी हो सकता है. गौरीकुंड में मंदाकिनी नदी किनारे मलबे के बीच बिखरी पड़ी 10 से अधिक कंड़ियां भूस्खलन हादसे की विभीषिका को बयां कर रही हैं। कमाई का साधन तो रह गया लेकिन कमाने वाले मजदूर लापता है, जिनकी खोज की जा रही है। दो वक्त की रोटी के लिए ये लोग 16 किमी पैदल मार्ग पर कंडी के सहारे यात्री को पीठ पर लादकर केदारनाथ पहुंचाते थे।गौरीकुंड में हुए इस भूस्खलन से तीन लोगों की मौत हो गई है, जबकि 17 लोग लापता हैं। केदारघाटी के गौरीकुंड में हुए इस हादसे ने दस साल पहले वर्ष 2013 में आई केदारनाथ आपदा की यादों को ताजा कर दिया है। जबकि बीते चार दशक में ऊखीमठ ब्लॉक क्षेत्र में यह तीसरी बड़ी आपदा है। इसके बाद भी आज तक केदारघाटी से लेकर केदारनाथ पैदल मार्ग पर सुरक्षा के नाम पर ठोस इंतजाम तो दूर, कार्ययोजना तक नहीं बन पाई है।सरकार सिर्फ केदारनाथ में पुनर्निर्माण कार्यों तक ही सिमटी रही। वर्ष 1976 से रुद्रप्रयाग व केदारघाटी के गांव प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेलते आ रहे हैं। यहां आज भी कई गांव मौत के मुहाने पर खड़े हैं। बीते चार दशक में यहां 14 प्राकृतिक आपदाएं आ चुकी हैं जिसमें से 16-17 जून 2013 की केदारनाथ की आपदा सबसे विकराल रही।

 
 
केदारघाटी में आई आपदाओं के आंकड़े- 

2013 की आपदा ने केदारघाटी से लेकर केदारनाथ का भूगोल बदल दिया था। गौरीकुंड से रुद्रप्रयाग के बीच मुनकटिया, रामपुर, खाट, सेमी, भैंसारी, रामपुर, बांसवाड़ा, विजयनगर कई क्षेत्र हादसों का सबब बने हुए हैं लेकिन सरकारें, प्राकृतिक आपदा कम हो इसके प्रयास कम करने की योजना बनाने के बजाय केदारनाथ पुनर्निर्माण में ही घिरकर रह गई। केदारनाथ पैदल मार्ग पर यहां न तो भूस्खलन जोन का ट्रीटमेंट हो पाया न ही पैदल रास्ते का विकल्प ढूंढा गया। जबकि रुद्रप्रयाग जिला भूकंप व अन्य प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से पांचवें जोन में है। इस पूरी घाटी में आयी अब तक की इन आपदाओं के आंकड़े देखें तो साफ़ हो जायेगा कि सरकारों का रुख इस घाटी के प्रति क्या रहा है,,,इस घाटी में 1976 भूस्खलन से ऊपरी क्षेत्रों में मंदाकिनी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया था ।1979 में क्यूंजा गाड़ में बाढ़ से कोंथा, चंद्रनगर और अजयपुर क्षेत्र में भारी तबाही से 29 लोग काल के गाल में समा गए थे ।1986 जखोली तहसील के सिरवाड़ी में भूस्खलन हुआ जिसमें 32 लोगों की जान गयी थी, 1998 भूस्खलन से भेंटी और पौंडार गांव ध्वस्त हो गया था । साथ ही 34 गांवों में इससे  नुकसान पहुंचा जबकि  103 लोगों की मौत हुई थी ।

2001 से 2013 तक आई आपदा की घटनाएं- 

2001 ऊखीमठ के फाटा में बादल फटा जिसमें  28 की मौत हुई थी,जबकि 2002 बड़ासू और रैल गांव में भूस्खलन,,,2003 स्वारीग्वांस मेंं भूस्खलन,,,2004 घंघासू बांगर में भूस्खलन,,,2005 बादल फटने से विजयनगर में तबाही से  चार की मौत,,2006 डांडाखाल क्षेत्र में बादल फटने की घटना, 2008 चौमासी-चिलौंड गांव में भूस्खलन से  एक युवक की मौत  और कई मवेशी मलबे मेंं दबे थे,इतना ही नहीं 2009 गौरीकुंड घोड़ा पड़ाव मेंं भूस्खलन से  दो श्रमिक की मौत ,,,2010 में भी रुद्रप्रयाग जनपद में कई स्थानों पर बादल फटे, 2012 ऊखीमठ के कई गांवों में बादल फटने से  64 लोग मरे थे ।जबकि 2013 केदारनाथ आपदा में हजारों मौतों से  पूरी केदारघाटी प्रभावित हुई थी,और अब 2023 में गौरीकुंड में भूस्खलन 19 लोग लापता होने की घटना,,, ये सब वो घटनाएं हैं जिनमें कई लोगों ने अपनी जान गवाई पर आज तक हमारी किसी भी सरकार ने इस घाटी को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बनाई,,,

रुद्रप्रयाग जिले को देश में भूस्खलन से सबसे अधिक खतरा- 

2013 में केदारनाथ में हुए भूस्खलन और बाढ़ में 4500 लोग मौत के आगोश में सो गए थे और कई स्थानों का  नामो-निशान मिट गया।ये सिर्फ सरकारी आंकड़े हैं जबकि कहा जाता है कि मरने वालों की संख्या इससे भी कहीं  अधिक है , बीते दिन गौरीकुंड भूस्खलन हादसे ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो के राष्ट्रीय सुदूर संवेदी केंद्र (एनआरएससी) की उस भूस्खलन मानचित्र रिपोर्ट पर मुहर लगाई है। उपग्रह से लिए गए चित्रों के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट बताती है कि रुद्रप्रयाग जिले को देश में भूस्खलन से सबसे अधिक खतरा है। भूस्खलन जोखिम के मामले में देश के 10 सबसे अधिक संवेदनशील जिलों में टिहरी दूसरे स्थान पर है।पर्वतीय जनमानस के लिए चिंताजनक बात यह है कि सर्वाधिक भूस्खलन प्रभावित 147 जिलों में उत्तराखंड के सभी 13 जिले शामिल हैं। इनमें चमोली जिला भूस्खलन जोखिम के मामले में देश में उन्नीसवें स्थान पर है। चमोली जिले का जोशीमठ शहर भूस्खलन के खतरे की चपेट में पहले से है।
क्या कहते हैं पर्यावरण विशेषज्ञ-

पर्यावरण विशेषज्ञों और जानकारों का मानना है कि 2013 की वो आपदा सरकार के लिए एक सबक थी। लेकिन जिस तरह पहाड़ों में जरूरत से ज्यादा निर्माण, बहुत अधिक संख्या में पर्यटकों की आवाजाही भी आपदा के कारण हैं। खनन, पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले पदार्थों की अधिकता से पारिस्थितिकी तंत्र को अधिक नुकसान हुआ है। जो अभी वर्तमान स्थिति का प्रमुख कारण है।केदारनाथ में उमड़ती भीड़,यहां मार्गों में होते निर्माण  को कंट्रोल न करना भी इस घाटी पर अधिक दबाव बना रहे हैं,जिससे वहां का क्लाइमेट भी तेजी से बदल रहा है,इससे ग्लेशियरों पर भी प्रभाव पड़ रहा है जिससे वो तेजी से पिघल रहे हैं,अत्यधिक मानव गतिविधियां भी यहां कई परिवर्तन ला रहा है,घाटी में हेली सेवाओं का अत्यधिक आवाज से भी यहां काफी प्रभाव पद रहा है,कई जंलि पशु पक्षी इस कारण यहां से विलुप्त हो रहे हैं ,जो यहां हो रहे बदलावों का एक बड़ा प्रमाण हैं,,


भूविज्ञानी एवं पर्यावरणविद् एसपी सती ने कहा कि चार धाम जाने के लिए सड़कें चौड़ी कर दी गई हैं। वहां हजारों गाड़ियां पहुंच रही हैं, जिससे हालात बिगड़ रहे हैं। गाड़ियां खड़ी करने के लिए पार्किंग तक नहीं हैं। इस वजह से सड़कों पर जाम लगा रहता है। इसके अलावा पहाड़ों पर वीकेंड टूरिज्म को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे हिमालय की इकोलॉजी को नुकसान पहुंच रहा है। दूसरा इसके बदले स्थानीय लोगों को कोई फायदा भी नहीं मिल रहा। कुछ गिने-चुने लोगों की लॉबी न केवल कमाई कर रही है, बल्कि, जब पर्यटकों की संख्या सीमित करने की बात होती है तो प्रशासन पर दबाव बनाकर इसका विरोध करती है।
वैज्ञानिकों ने पहले भी दी थी चेतावनी- कई पहाड़ी क्षेत्रों में भू-धंसाव, दरारें आना, पहाड़ों का कटाव, नदियों में बढ़ता अवैध खनन, चमोली में हाइड्रो पावर प्लांट के नाम पर ऋषिगंगा में 2016 में आई बाढ़ हो या जोशीमठ में एनटीपीसी के द्वारा बनाई जा रही टनल ही क्यों न हो ? उच्च हिमालयी क्षेत्र में सीधे 12 महीने आवागमन संभव नहीं है. वैज्ञानिकों ने इस बारे में 2013 में आई आपदा से पहले ही चेतावनी दे दी थी, लेकिन सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया था,,विशेषज्ञ कहते हैं, ‘सरकार के पास सड़कें बनाने के लिए तो बजट है, लेकिन कटाव के कारण पहाड़ पर बनी ढलान को स्थिर करने के लिए कोई बजट नहीं है. यही कारण है कि ऐसी सड़कों पर साल भर भूस्खलन होता रहता है.’कुछ वैज्ञानिकों ने चार धाम मार्ग पर एक सर्वे किया था. जिसमें पाया गया कि इन हाईवे पर कई नए भूस्खलन क्षेत्र बने थे और कई आगे भी बन सकते हैं. रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई लेकिन सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. केदारनाथ के इलाक़े में दशकों से शोध कार्य कर रहे ‘वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन जीयोलॉजी’ ने दिसंबर 2013 में, इस आपदा पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. क्योंकि संस्थान के पास पिछले कई सालों से जुटाए गए विभिन्न वैज्ञानिक आंकड़े मौजूद थे तो इस रिपोर्ट में आपदा की वजहों की वैज्ञानिक पड़ताल भी थी. साथ ही कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए गए थे. उनके अनुसार  केदारनाथ चौराबाड़ी ग्लेशियर द्वारा बनाए गए ढीले और छिछले मलबे से बने मैदान में बसा है,बाढ़ के जरिए पहुंचे ग्लेसियो—फ्ल्यूवियल मलबे को छेड़ा नहीं जाना चाहिए. इस इलाके में ना ही इतनी जगह है और ना ही ऐसी कोई तकनीक है जिससे कि इतने अधिक मलबे को यहां से कहीं हटाया जा सके और निस्तारित किया जा सके. इसलिए, निकट भविष्य में इसे छेड़ने की कोई भी कोशिश नहीं की जानी चाहिए।

 

क्या कहते हैं वैज्ञानिक डॉ डोभाल-

वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल  बताते हैं, कि “हमने अपनी रिपोर्ट में हिमालयन जियोलॉजी के अनुसार कई सुझाव दिए थे, जिन्हें ध्यान में रखना बेहद महत्वपूर्ण था.”डॉ. डोभाल आगे कहते हैं, “इसमें कोई शक नहीं है कि एनआईएम की टीम ने इतनी ऊंचाई पर बड़ी बहादुरी से काम किया है. लेकिन जो काम हुआ है उसमें दूरदर्शिता और प्लानिंग की कमी है. जिस तरह से कंक्रीट और अन्य भारी निर्माण सामग्री का इस्तेमाल, निर्माण कार्य में किया गया है वह ग्लेशियर के मलबे से बने इस भू-भाग में इस्तेमाल नहीं की जानी चाहिए थी.”हिमालय के ऊंचाई वाले जिस भूगोल में केदारनाथ का मंदिर बना हुआ है, भूगर्भवेत्ताओं और ग्लेशियरों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के लिए यह  ग्लेशियर के मलबे का अस्थिर ढेर है जहां किसी भी किस्म के भारी निर्माण कार्य को वे अवैज्ञानिक मानते हैं। 

कई जियोलॉजिस्ट की भी है यही राय-

हिमालयी ग्लेशियर्स पर लम्बे समय से काम कर रहे ‘फिजिकल रिसर्च लैब, अहमदाबाद’ से जुड़े वरिष्ठ जियोलॉजिस्ट डॉ. नवीन जुयाल की भी यही राय है. वे कहते हैं, “केदारनाथ में आई बाढ़ अपने साथ इतना मलबा लाई थी कि उसने इस कस्बे को कई फीट तक ढक दिया. इस मलबे को स्थिर होने तक यहां कोई भी निर्माण करना विज्ञान संगत बात नहीं थी. अब जब वहां नई इमारतें बनाई जा रही हैं तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इन इमारतों की नींव को उस नए मलबे की गहराई से भी बहुत नीचे तक डालना होगा. डॉ. जुयाल उच्च हिमालयी इलाकों में वैज्ञानिक ढंग से निर्माण कार्यों के बारे में बताते हुए आगे कहते हैं, “इस ऊंचाई वाले भू-भाग में, ग्लेशियर के मलबे के ऊपर भारी इमारतें नहीं बनाई जा सकती. अगर आप इतनी ऊंचाई पर बसे पारंपरिक समाजों के स्थापत्य को देखेंगे तो हमेशा नज़र आएगा कि लकड़ी आदि, हल्की निर्माण सामग्री का इस्तेमाल किया जाता रहा है.”डॉ. जुयाल आगे कहते हैं, ”केदारनाथ में जब प्रकृति ने हमें तमाचा मारते हुए संभलने का एक मौक़ा दिया था तो हमें अपने स्थानीय पारंपरिक ज्ञान से सबक लेना चाहिए था. लकड़ी और पत्थरों की ढालूदार छतों वाली हल्की इमारतें वहां बनाई जानी चाहिए थी. लेकिन शायद हम ये मौका चूक गए हैं।”

कई एजेंसियों ने किया था पुन: निर्माण कार्य करने से मना- 

केदारनाथ कस्बे की दाहिनी ओर की पहाड़ी पर कुछ ऊंचाई पर बने भैरव मंदिर से पूरा केदारनाथ कस्बा दिखाई देता है. आपदा के निशान चारों ओर पसरे हुए हैं. आपदा के बाद फिर से, सुनहरी ढालदार छत और करीने से तराशे गए पत्थरों से बना केदारनाथ मंदिर, कंक्रीट से बनी घिचपिच, तंग, बहुमंजिला इमारतों से घिर गया है. पुनर्निमाण के नाम पर सौंदर्य को एकदम नज़रअंदाज कर सीमेंट और कंक्रीट की सपाट छतों वाली बहुमंजिला इमारतें बना दी गई हैं जो कि इस उच्च हिमालय के भूगोल से एकदम साम्य बनाती नहीं दिखती.एनआईएम बुनियादी तौर पर निर्माण कार्यों से जुड़ी एजेंसी नहीं है. लेकिन 2013 की आपदा के बाद, निर्माण के क्षेत्र में कोई विशेषज्ञता या अनुभव नहीं होने के बावजूद केदारनाथ कस्बे में पुनर्निर्माण का कार्य उसे इसलिए सौंप दिया गया, क्योंकि वह पर्वतारोहण में महारत रखती थी. आपदा ने इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में जिस तरह के हालात पैदा कर दिए थे ऐसे में निर्माण कार्य में दक्षता रखने वाली सभी एजेंसियों ने तत्काल निर्माण कार्य करने से मना कर दिया था।

पीएम मोदी ने अपने संबोधन में कही थी ये बातें- 

विशेषज्ञ समितियों की सलाह को नज़रअंदाज कर प्रधानमंत्री मोदी ने केदारनाथ के अपने संबोधन में अगले साल 10 लाख लोगों के केदारनाथ मंदिर में आने का दावा किया है. लेकिन साथ ही उन्होंने विरोधाभासी बयान देते हुए, वहां होने वाले निर्माण कार्यों के दौरान पर्यावरण का ध्यान रखे जाने की भी बात कही है. उन्होंने कहा, ”जब यहां इतना सारा पैसा लगेगा, इतना सारा इंफ्रास्ट्रक्चर बनेगा तो उसमें पर्यावरण के सारे नियमों का ख्याल रखा जाएगा. यहां की रुचि, प्रकृति, प्रवृति के अनुसार ही इसका पुनर्निर्माण किया जाएगा. उसमें आधुनिकता होगी मगर उसकी आत्मा वही होगी जो सदियों से केदारनाथ की धरती ने अपने भीतर संजोए रखी है.” यह समझ से परे है कि कैसे 10 लाख लोगों को इतने संवेदनशील भौगोलिक इलाके में ले जाकर पर्यावरण का ख़याल रखा जा सकता है. केदारनाथ में अब तक हुए नए निर्माण कार्य में पर्यावरण और भूगर्भशास्त्र की विशेषज्ञ एजेंसियों के सुझावों को पूरी तरह अनदेखा किया गया है. जो कुछ अब तक हुआ है उसका परिणाम, फिर से वही अनियोजित और अदूरदर्शी तरीके से कंक्रीट की इमारतों की घिचपिच है. एक विशेषज्ञ के तौर पर पर्यावरणीय और भूगर्भीय चिंताओं के अलावा डॉ. नवीन जुयाल हिमालय के शीर्ष पर बसे कैलाश पर्वत का उदाहरण देते हुए चिंता ज़ाहिर करते  हैं, ”चीन जैसे देश ने भी, जहां एक नास्तिक और तानाशाह सरकार है, जिसने सांस्कृतिक क्रांति के दौरान धर्मों से जुड़े कई प्रतीकों को तोड़ा, ऐसी सरकार ने भी कैलाश पर्वत की चढ़ाई करने पर इस कारण प्रतिबंध लगाया हुआ है क्योंकि वह हिमालय के आस-पास जन्मे सारे ही धर्मों के लिए पवित्र पर्वत है. लेकिन हम अपने संवेदनशील पवित्र स्थानों को लेकर कितने लापरवाह हैं।

न विशेषज्ञों और न ही वैज्ञानिकों की राय पर ध्यान दे रही सरकार- 

ये वो तमाम कारण और शोध से निकले निष्कर्ष है, जिसको लेकर सरकार को भी आगाह किया गया था लेकिन लगता है केदारघाटी की चिंता न  केंद्र सरकार को है और न राज्य सरकार को,, बस सरकार केदार घाटी को एक पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित करने में जुटी है और सिर्फ और सिर्फ राजस्व बटोरना ही सरकार का मकसद रह गया है, यही कारण है कि इतनी संवेदनशील घाटी होने के बावजूद सरकार तमाम विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की राय पर ध्यान ही नहीं दे रही,और इसका नतीजा आज सबके सामने हैं,,चाहे वो 2013 की आपदा हो या कल का गौरीकुंड हादसा।